अतुल्य! पचमढ़ी.. बाकई जिसने भी कहा,बिलकुल सही कहा.अपनी गोद में अप्रतिम-सौंदर्य और प्राचीन-विरासत समेटे पचमढ़ी हमें सदैव आकर्षित करती रही है. हम दूसरी-बार पचमढ़ी आये. पहले, १९७७ में इंजीनियरिंग शिक्षा के दौरान दस-दिवसीय एन.सी.सी. केम्प में और आज, अपने परिजनों के साथ. इन चालीस वर्षों में पचमढ़ी में बेहताशा परिवर्तन हुए; पर्यटक बढे,सुविधाएँ बढीं, शासन-प्रशासन का नियंत्रण बढ़ा. परन्तु,पचमढ़ी की प्रकृति में कोई परिवर्तन नहीं आया. वह न जड़ हुई और न जरा. वह आज भी धानी-चुनरी ओढ़े नयी-नवेली दुल्हन की तरह अलसाई, शरमाई-सी दिखाई दी. चांदी से चमकते झरने और सतपुड़ा-बायो-स्फियर के सदाबहार वृक्ष, गहने वन उसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा रहे थे. लगा, ‘पर्वतों की महारानी’ ने औगढ़दानी भगवान शिव से “अक्षत-यौवना” का वरदान पा लिया हो.
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Pachmarhi |
यूँ तो, हम अपने निजी-वाहन से आये थे. साथ में, प्रशिक्षित चालक भी था. परन्तु, पहाड़ी,सकरे और घुमावदार रास्तों के लिए फोर-व्हील वाहन की अनिवार्यता के चलते हमने केन्टोमेंट बोर्ड से संचालित टेक्सी और मार्गदर्शक
(गाइड) लिया. वैसे, इस सैरगाह में किराये की गियरयुक्त साईकिल, रेसिंग-वाइक और काबुली घोड़े भी मिलते हैं. जैसे ही, हमारी खुली जिप्सी आगे बढ़ी, ठंढी हवा के झोंके हमारे तन और मन को रोमांचित करने लगे.
हमने पचमढ़ी-दर्शन का श्री-गणेश जटाशंकर मंदिर से किया. लगभग सौ फीट नीचे कंदराओं में बिराजे स्वयंभू महादेव ने यहाँ अपनी जटायें फैला रखीं हैं, जिनसे निकलती जलधारा गंगावतरण का दृश्य सजीव करती है. हम सभी ने इस शांत, शीतल और पवित्र स्थान पर बैठकर योगस्थ शिव की पूजा-अर्चना की. पुजारी ने शिव-पुराण को संदर्भित करते हुए बताया कि कैलाश के बाद,पचमढ़ी को भोले-बाबा का ‘दूसरा स्थान’ माना गया है. अचानक, याद आई ब्लागर कृष्ण कुमार यादव की कविता
पचमढ़ी यहीं रची गयी
शंकर-भस्मासुर की कहानी
जिसमें विष्णु ने अंततः
नारी का रूप धरकर
स्वयं भस्मासुर को भस्म कर दिया
आज भी जीती-जागती सी लगती हैं, कन्दराएँ
जहाँ शिव-लीला चली.
सीढियों के दोनों तरफ औषधि-वृक्षों की दुर्लभ प्रजातियाँ दिखाई दीं. वहीँ विलुप्तप्राय काली गिलहरी का जोड़ा विहार करते दिखा. किनारे पर बैठा दुकानदार कह रहा था- कि यहाँ का शहद विशुध्द व वनौषधियुक्त है. टेक्सी में वापिस आने पर गाइड ने बताया कि इस स्थान पर शाहरुख खान और करीना कपूर की फिल्म ‘अशोका’ और रघुबीर यादव के गाने ‘मंहगाई डायन खाये जात है’ के फिल्मांकन का, वह चश्मदीद गवाह है.
जब हम ‘पाण्डव-गुफाएं’ पहुंचे तो वहां देशी पर्यटकों की अच्छी-खासी भीड़ थी. १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद तात्या टोपे को खोजते कप्तान जेम्स फोरसिथ और सूबेदार नाथूराम पवार (जो बाद में पचमढ़ी का कोतवाल नियुक्त किया गया) ने इन छिपी हुई पञ्च-मढ़ी को खोज निकाला. फोरसिथ ने यहाँ एक फारेस्ट - लाज का निर्माण कराया और ‘द हाईलेन्ड्स ऑफ़ सेन्ट्रल इंडिया’ नामक पुस्तक लिखी जिसमें सतपुड़ा पर्वत-श्रेणी की उत्कृष्ट सुन्दरता का चित्रण है. उल्लेख्य है कि ब्रिटिश-काल में पचमढ़ी मध्यप्रांत तथा स्वतंत्रतोत्तर मध्यप्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी रही है.
सामान्य-मान्यता के अनुसार वनवासी पांडवों ने अपना अज्ञातवास इन्हीं गुफाओं में गुजारा था. इतर इससे, पुरातत्वविद इन गुफाओं को गुप्तकालीन धरोहर मानते हैं; जिनका निर्माण बौध्द-भिक्षुओं द्वारा किया गया. यद्यपि वहाँ उपलब्ध रॉक-पेंटिंग्स की कार्बन डेटिंग, इनके सिरे १०००० वर्ष पूर्व के आदि-मानव से जोडती हैं. जो भी हो, होशंगाबाद के शैलाशय, भीमबैठका, रायसेन की रॉक-पेंटिंग्स, उदयगिरी की गुफाएं, झिन्झरी(कटनी), पुतलीखोह(नरसिंहपुर), हाफचंद गुफाके भित्तिचित्र (सागर) के क्रम में इनका अध्ययन शोध के नये आयाम स्थापित कर सकता है.
हमारी यात्रा का अहम और आकर्षक बिन्दु रहा, तीन किलोमीटर दूर अवस्थित ‘बी-फाल’, जिसे ‘जमुना-प्रपात’ भी कहते हैं. गूगल के अनुसार दो दिन पूर्व यहाँ झमा-झम वारिस हुई थी, एक संस्मरण (सही के हीरो) में कभी टूरिस्ट गाइड रहे शिशु रोग विशेषज्ञ डाक्टर अव्यक्त अग्रवाल लिखते हैं –
“बारिश में पचमढ़ी और भी सुन्दर होता. बादल छुट्टी मनाने पचमढ़ी उतर आते. पेड़ों और बादलों की आपस में खूब बातें होती.और बुजुर्ग पर्वत उनकी बातों पर नज़र रखते.”

देखते-ही-देखते दिन चढ़ आया. पेट में चूहे कूदने लगे. पिकनिक के हिसाब से हम अपने साथ दोपहर का खाना लेकर चले थे, जिसे नजदीक के बगीचे में बैठकर खाया.वैसे, यहाँ कुछ सस्ते और स्तरीय रेस्तरां हैं; जहाँ फूड तथा फास्ट-फूड मिलता है.
मध्यांतर के बाद, सौरभ-अलीशा (बेटा-बहू) ने पैरासेलिंग का आनंद लिया. यहाँ हमसे एक चूक हो गई, हमारा पौत्र शौर्य; हमसे छूटकर हवा में तैरते अपने मम्मी-पापा के पीछे भागा और उसे पकड़ने हमें दौड़ लगाना पड़ी. पैरासेलिंग-प्रक्षेत्र में द्रुतगामी-जिप्सियों एवम् उड़ते गगन- चुम्बी पैराशूट से दुर्घटना की सदैव आशंका रहती है.


रात्रि में, जबलपुर लौटकर जब जूते उतारे तो पंजों में हलकी-हलकी जलन हो रही थी, कुछ खरोंचें भी दिखाई दीं. ध्यान आया कि जोश-जोश में बी-फाल की मछलियों को मरी खाल के साथ ताजी-त्वचा भी खिला दी. और वे गर्रा-रूफा (डाक्टर्स-फिश)तो थीं नहीं, जिनके दांत नहीं होते. खैर, गुनगुने पानी में डेटाल डालकर पैरों की सिकाई की और बोरो-प्लस लगाकर सो गए इस स्थापित सत्य के साथ कि पचमढ़ी आकर श्रीनगर जैसी खूबसूरती तथा पोखरा जैसी शांति प्राप्त हुई.
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