बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

रामचरितमानस में शौर्य

परमात्मा के समस्त लौकिक और आध्यात्मिक मर्यादाओं का साकार विग्रह बनकर, रघुकुल में, राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र के रूप मेंअवतरित हुए। लोक और वेद में क्षत्रियों के जिन सात स्वाभाविक गुणों की अनिवार्यता प्रतिपादित की है, यथा-
शौर्यं तेजो धुतिर्दाक्ष्यं युध्दे चाप्य पलायनम।
दानमीश्वर भावश्च क्षात्रकर्म स्वाभाजम।।

(गीता-18/42)
अर्थात शौर्य, तेज, धैर्य, निपुणता, युध्द से न भागना, दानशीलता और ईश्वरीय भाव----वे सभी सार-रूप में राम में समाहित हैं। रामचरितमानस के प्रसंगानुकूल दोहे/अर्धालियाँ महानायक राम का गुणानुवाद तो हैं ही, उन्हें पढ़-सुनकर क्षत्रिय-धर्म और भारतीय-संस्कार भी धन्यता का अनुभव करते हैं।
कहते हैं, जो शूर नहीं वह क्षत्रिय नहीं। दुर्दांत एवं बलवान शत्रु का सामना करते समय भयभीत न होना, न्याययुक्त युध्द करने के लिए सदैव तत्पर रहना और अवसर आने पर साहसपूर्ण तरीके से युध्द करना ही शूरवीरता है। मुनि विश्वामित्र के यज्ञ-रक्षार्थ गये राम-लक्ष्मण, वहाँ मायावी ताड़का और सुबाहु का वध करते हैं, मारीच बिना फल वाले बान से सौ योजन दूर जा गिरता है।
जनकसभा में शिव-धनुष टूटने पर क्रोधित परशुराम की चुनौती का साहसपूर्ण प्रत्युत्तर देते हुए राम अपनी गौरवशाली वंश-परम्परा और क्षत्रिय-धर्म का भी स्मरण करते हैं-
देव दनुज भूपति भट नाना,
सम बल अधिक होउ बलवाना।
जों रन हमहि पचारै कोऊ,
लरहिं सुखेन कालु किन होऊ।
क्षत्रिय तनु धरि समर सकाना,
कुल कलंक तेहिं पावर आना।
कहऊ सुभाऊ न कुलहि प्रसंसी,
कालहु डरहिं न रन रघुवंसी।

(बाल/284/1-4)
चित्रकूट में जब भरत सेना सहित प्रभु राम से मिलने आते हैं तब युध्द की संभावना को संज्ञान में लेते हुए लक्ष्मण अकेले ही भरत एवम् उनकी सेना से मुकाबला हेतु तैयार हो जाते हैं। यह अलग बात है कि भरत का मंतव्य व्दंद या युध्द कदापि नहीं था।
तैसिहिं भरतहि सेन समेता,
सानुज निदरि निपताऊ खेता।
जों सहाय कर संकरू आई,&
तों मारऊ रन राम दोहाई। 

(अयोध्या/230/7-8)
खर-दूषण से युध्द में शूरवीरता के साथ-साथ क्षत्रिय धर्म के अन्य गुणों की भी विशद व्याख्या की गई है-
हम क्षत्रिय मृगया बन करहीं,
तुम्ह से खल मृग खोजत फिरहिं।
रिपु बलवान देख नहीं डरहीं,
एक बार कालहु सन लरहिं।
जदपि मनुज दनुज कुल घालक,
मुनि पालक खल सालक बालक।
जों न होई बल घर फिरि जाहू,
समर विमुख मैं हतऊ न काहू।
रन चढ़ी करिअ कपट चतुराई,
रिपु पर कृपा परम कदराई।

(अरण्य/19/9-13)
श्री राम की शूरवीरता की प्रशंसा करते हुए मारीच,रावण से कहता है--
जों नर तात तदपि अति सूरा,
तिन्हहि विरोध न आइहि पूरा।

(अरण्य/28/8)
जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड,
खर दूषण तिसिरा बधेउ, मनुज कि अस बरिवंड।

(अरण्य/28)
                                                                                                     -सुरेन्द्र सिंह पंवार

इनसे मिली दशहरा पर्व की हार्दिक शुभकामनाये:
१) ठाकुर वन्शगोपाल सिंह सिसोदिया, राष्ट्रीय अध्यक्ष,
अखिल भारतीय क्षत्रिय धर्म संरक्षण शोध एवम समन्वय संस्थान
२) ठाकुर लख सिंह भाटी, पूनमनगर, जैसलमेर
३) ठाकुर बद्री नारायण सिंह पहाड़ी, मैसूर
४) ठाकुर जितेन्द्र कुमार सिंह, वैशाली (बिहार)
धन्यवाद 

ठाकुर रमेश राघव खुली चुनौती  की सम्पादकीय में लिखते हैं-
एक स्वामीजी वैश्य परिवार में बैठे चर्चा कर रहे थे। उनका कहना था कि प्राचीन काल में स्थापित वर्ण व्यवस्था के दो वर्ण ब्राम्हण और क्षत्रिय तो लगभग समाप्त हो गये हैं। कोई भी अपने धर्म अर्थात कर्तव्य का पालन नहीं कर रहा है। चतुर्थ वर्ण शूद्र का भी लगभग सफाया हो रहा है। कोई भी सेवा नहीं करना चाहता है। पूरा का पूरा समाज वैश्य हो गया है। सोचिये! विचारिये!!