वरिष्ठ साहित्य-साधिका श्रीमती गुलाब दुबे
का प्रथम बाल कहानी-संग्रह ‘अनमोल कहानियाँ’ पाथेय-प्रकाशन, जबलपुर से प्रकाशित
हुआ। आकर्षक आवरण के इस संकलन में 28 कहानियां तथा 8 कवितायेँ हैं। ज्यादातर
वे ही कहानियां हैं, जिन्हें हम सभी ने अपने बचपन में अपनी दादी या नानी से सुनी
होंगी। हाँ! कथा-लेखिका ने उन्हें बहुत रोचकता के साथ सहज, सरल और सरस भाषा में
प्रस्तुत किया। सभी कहानियां ‘आल इंडिया रेडियो’ की बाल-सभाओं में यदा-कदा
कही-सुनी गयीं या स्थानीय समाचार-पत्रों की साहित्यिक-परिशिष्टों में पढ़ीं हैं। एक
बात और, निजी संबंधों में श्रीमती गुलाब दुबे हमारी पुत्रवधु की नानी थीं। अतः उनकी
कथा-कृति को हम ‘नानी की अनमोल कहानियां’ नाम से परिचय करा रहें हैं।
देखा जावे तो वास्तव में, ये कहानियां पीढ़ी-दर-पीढ़ी
चली आ रहीं किस्साओं का रेडियो रूपांतरण हैं। इसलिए इनकी भाषा में आरोह-अवरोह है। लय
है, लोच है। लोरियों की गुनगुनाहट है, इकतारे की अनुगूँज है। इनमें रची-बसी गुलाब
की महक देर तक और दूर तक महसूस की जा सकती
है।
वैसे, बच्चों के लिए, बच्चों-जैसी, बच्चों
की भाषा में कहना – बच्चों का खेल नहीं है। बड़े-बड़े सिध्द-साहित्यकारों के भी
पसीने छूट जाते हैं। लेकिन मातामह गुलाब दुबे ने बच्चों की कहानियां अपनी शैली में
गढ़ी हैं, सुनाई हैं, खेल-खेल में उन्हें (बच्चों को) जीवन के गुर सिखाये हैं-बिल्कुल
विष्णु शर्मा की तरह।
‘प्रथम
पूज्य गणेश’ हों या ‘मित्र हो तो कृष्ण जैसा’, ‘चिड़िया और कौवे की कहानी’ हो या ‘मेहनत का फल’, ‘गाल
बजाना’ हो या ‘सिर धुनना’– सभी कहानियां बालमन में आत्मविश्वास जागृत करने में
सहायक रहेंगी। इन कहानियों को पढ़ने/सुनने के बाद बच्चे तरह-तरह के प्रश्न करते हैं।
ठीक जैसे-‘चिड़िया और कौवे की कहानी’ में पिंकी ने कहा – दादी! चिड़िया को दरवाजा
खोल देना चाहिए था। या सब बच्चे बोले – दादी! चिड़िया ने दरवाजा क्यों नहीं
खोला? यही कौतुहल, जिज्ञासा या फलाशा एक श्रेष्ठ कहानी की अन्विति है। शिशु से
किशोर होते बच्चों को इनसे जीवनोपयोगी शिक्षा मिलेगी, यही एक अच्छे कहानी संग्रह की अंतिम और अनिवार्य शर्त है।
आज के नौनिहाल कार्टून, कामिक्स, कंप्यूटर,
मोबाईल और इन्टरनेट में उलझे हैं, उनमें संस्कृति से अलगाव और हिंसात्मक प्रभाव
सुस्पष्ट दृष्टिगोचर है। कथाकारा गुलाब दुबे जैसी संवेदनशील-साहित्यशिल्पी प्रयासरत
रहीं कि उनकी कथा- कहानियों-कविताओं से
बच्चों की मौलिक सोच में परिवर्तन हो, उनका चरित्र निर्माण हो- जो अंततः सचरित्र
राष्ट्र के निर्माण में योगदान होगा। उनकी अनुपस्थिति में हम अभिभावकों का दायित्व
तो निश्चित ही बढ़ जाता है।
मोबाईल पर हुई उनसे आखिरी बातचीत में हमने
उनकी यह समीक्षा ‘रुचिर संस्कार’ में प्रकाशित होने की जानकारी दी तो कृतज्ञ भाव
से उन्होंने पत्रिका की प्रति प्रेषित करने का अनुरोध किया था, जो हम उन्हें नहीं
भेज पाए— इसका अफ़सोस हमेशा रहेगा। वे उस दिन दिल्ली के अधिकतम प्रदूषण- स्तर तथा
उस कारण से हुई स्कूलों की छुट्टी से व्यथित थीं। मृदुभाषी, मिलनसार और
ममतामयी गुलाब दुबे जी का पार्थिव शरीर दिल्ली में दिनांक 22 नवम्बर को पंचतत्वों
में विलीन हो गया ईश्वर उन्हें अपने चरणों में स्थान प्रदान करे, यही प्रार्थना
है।