कृष्ण: साहस और शक्ति के ज्योति-पुंज
---जिन्होंने सर्वशक्तिमान होने का संदेश दिया
कृष्ण ने जब नंद-ग्राम (84 कोस में
विस्तारित ब्रज-मण्डल के अठारह गोकुलों में से एक) में अपनी आंखें खोली तब उन्होंने ब्रज-वासियों को डर और
आतंक के साये में देखा। कहने को जिनके पास सभी-कुछ था; परंतु वास्तव में अपना कुछ भी नहीं था-न जल, न जंगल, न जीविका। यहां
तक कि गौ-रस (दूध) के उत्पाद घृत-दही-मक्खन भी सामंतवादी व्यवस्था की भेंट चढ़ जाते थे। अन्याय और
अत्याचार के तत्कालीन यथार्थ से जूझते हुए कृष्ण ने स्थापित व्यवस्था को स्पष्ट
चुनौती दी और सामाजिक न्याय की स्थापना के प्रयास करते हुए उन्होंने न केवल अपने
समकालीन समाज बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी गहरे तक प्रभावित किया। लोक और वेदों में नायक (क्षत्रिय) के जिन सात स्वाभाविक गुणों यथा- शौर्य, तेज, धैर्य, निपुणता, युद्ध से न भागना, दानशीलता और
ईश्वरीय-भाव की अनिवार्यता प्रतिपादित की गई है(गीता-18/42), वे सभी सार रूप में
कृष्ण में समाहित थे। उन्होंने ब्रज-वासियों (गोप-गोपियों) में वैचारिक क्रांति का जो उद्घोष किया, उनमें सर्व-शक्तिमान
होने का जो विश्वास जाग्रत किया और जिससे उत्साहित ब्रज-मंडल ने मथुरा की प्रचंड-सत्ता के विरुद्ध मोर्चा खोला---वह
विशिष्ट व विचारणीय है।
लेकिन, ऐसा एक
दिन में संभव नहीं हुआ। नंद-लाला कृष्ण ने हमउम्र ग्वाल-बालों की टोली बनाकर उन्हें शारीरिक
और मानसिक रूप से सुदृढ़ बनाने की दीर्घ-गामी योजना बनाई। नियमित-कसरत, कुश्ती-कला, लाठी-पटा-बनेटी संचालन और पौष्टिक-आहार पर जोर दिया।---जब वे (कृष्ण) गाय चराने के
लिए जंगल में जाने लगे तो उन्होंने अपने दल के साथ-साथ दलगत गतिविधियों का भी
विस्तार किया। उन्होंने जंगल में अभ्यास-शिविर स्थापित करवाए जहाँ गौ-पालक दल के साथ उन्होंने भी आत्मरक्षा के प्रभावी गुर (तरीके) सीखे और शक्तिशाली दुश्मन को परास्त करने का अद्वितीय कौशल भी।
कृष्ण के युगांतरकारी स्वरूप का प्रथम दर्शन
कालिया दह में होता है। कल-कल निनादिनी यमुना की अविरल धारा को अतिक्रमित कर नागवंशी कालिया ने वहां मादक पेय (मदिरा) उत्पादन की इकाई स्थापित कर रखी थी। कालिया यहां अपने
परिजनों के साथ रमणक द्वीप से आया था। ऐसी ही अ-सामाजिक गतिविधियों के कारण वहां
के अधिपति गरुड़, जो रिश्ते में नाग-वंशी कालिया का चचेरा भाई भी था, ने कालिया और उसके साथियों को देश-निकाला दे दिया था।
कालिया ने मथुराधिपति कंस से सांठगांठ
कर ली। कंस ने यमुना-क्षेत्र में मदिरा-उत्पादन की अनुमति देकर एक तीर से दो
निशाने साधे, एक यमुना-क्षेत्र में उत्पादन से उसे
और उसके अनुयायियों को मदिरा की सहज उपलब्धता होगी, दूसरे कालिया जैसे अ-सामाजिक तत्व को प्रश्रय देकर ब्रज-वासियों को नकेल डालना संभव था। हुआ भी यही, कालिया के गुंडों
ने गोकुलों में आतंक फैलाना शुरू कर दिया। निस्तार के लिए यमुना का जल, दुर्लभ हो गया, उसकी धार टूट गई, मादक-अपशिष्टों के बहाव से जल कलुषित हो गया, जन-जीवन
में नाना प्रकार की असाध्य बीमारियों के लक्षण दिखाई
देने लगे, गौ-वंश यमुना के पानी को पीकर
मरने लगा, ब्रज का पर्यावरण दूषित हो गया। एक तरह से महामारी का प्रकोप छा गया। कृष्ण ने गोकुल-वासियों
को समझाया कि जल और प्राण वायु जैसे प्राकृतिक तत्वों पर किसी का कोई अधिकार नहीं
होता। परंतु कालिया और उसके साथियों का प्रतिरोध करने से सीधे-साधे गोकुल वासी डरते थे। कृष्ण छोटे अवश्य थे परंतु महा शक्तिमान थे, कुश्ती-कला में
निष्णात थे, बेहद फुर्तीले थे, अदम्य साहस रखते
थे। उन्होंने कालिया को कुश्ती लड़ने की सशर्त चुनौती
दी, जिसमें परास्त होकर वह सदा-सदा के लिए [अपने रिश्तेदार और साथियों सहित] यमुना-क्षेत्र त्याग कर चल गया। कृष्ण की किशोर लीलाओं में
कालिया दह से गेंद वापस लाने के लिए कालिया नामक नाग नाथने की
लीला प्रचलित है।--- यमुना के प्रदूषण-मुक्त
होते ही खुशी से नाचते हुए गोकुल-वासियों ने
कालिया-दह के विषाक्त और विस्फोटक भंडार को आग लगा दी, जिनके धमाकों और लपटों ने मथुरा के राज-तंत्र की चूलें हिला
दीं। कृष्ण के बल, बुद्धि, साहस और पराक्रम के समक्ष नतमस्तक गोप-मण्डल ने उन्हें (कृष्ण) अपना नायक (ब्रज-राज) स्वीकार कर लिया।
जो
व्यक्ति स्थापित व्यवस्था को चुनौती दे उसे मुक्त क्षेत्र का रक्षक (प्रहरी) भी
बनना पड़ता है। कृष्ण ने जब नाग-वंशी कालिया का आतंक समाप्त
किया तो उनके ऊपर ब्रज-वृत की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी आ गई। उन्होंने देखा कि
ब्रज की मुक्त धरा पर सामंत वादी शक्तियां अपना वर्चस्व स्थापित करती जा
रही थी। नित-नए बाहु-बली पैदा हो रहे थे और नित-नए देवता। गिरिराज (इंद्र-पर्वत) गोचर के लिए आदर्श जगह रही परंतु वहां कुछ
गुंडे किस्म के लोगों का कब्जा था। कृष्ण
ने ब्रज के सभी 18 गोकुलों को गिरिराज क्षेत्र में गोचर ले जाने के लिए प्रोत्साहित किया। कृष्ण
ने गोप-दल के सहयोग से इंद्र-पर्वत के अनाधिकृत कब्जा हटाए, उस पर छाया और फलदार पौधों का रोपण कराया, तलहटी की भूमि समतल कर उसमें अक्षत उत्पादन हेतु प्रोत्साहित किया। मेहनत रंग
लाई, गिरिराज की रौनक लौट आईं। गिरिराज की ऊँचाई पर इंद्र की एक विशाल और भव्य
प्रतिमा स्थापित थी, हर वर्ष वहाँ परंपरागत इन्द्र-महोत्सव होता था,
जिसमें मथुरा का राजा मुख्य यजमान के रूप में आमंत्रित किया जाता था। कृष्ण ने इन्द्र-पूजा का विरोध किया, जब नंद बाबा ने समझाया, ‘इन्द्र वर्षा के देवता है। मेघ उसके अनुचर हैं। उसकी कृपा से जल बरसता है। कृषि का आधार जल
है। हमारा धन-धान्य उसी पर निर्भर है’। तब कृष्ण ने तर्क दिया,- “यदि इन्द्र की
पूजा नहीं होगी तो वर्षा नहीं होगी, यानी जहां इन्द्र की पूजा नहीं होती, वहाँ
वर्षा नहीं होती”। उन्होंने इंद्र पर्वत को गोवर्धन नाम दिया तथा गिरिराज-पूजा का प्रस्ताव रखा। और, चूंकि अब इन्द्र-महोत्सव नहीं हो रहा
था इसलिए मथुरापति को भी आमंत्रण नहीं
दिया। इसे संयोग ही कहें, गोवर्धन-पूजन के समय काली आंधी (प्राकृतिक आपदा) आई। गरजते बादल, चमकती बिजली और मूसलाधार बारिश--ऐसा लगा मानो बादल फट गए हों। डरे-सहमे लोग कहने लगे कि अपनी पूजा बंद होने से कुपित इंद्र के इशारे पर यह मूसलाधार
वारिस हो रही है ! बादलों की गर्जना इंद्र का प्रकोप है !!
दमकती बिजलियां इंद्र के वज्र की चमक है
!!! त्रस्त ब्रज का जन और गौ-धन यहाँ-वहाँ भागने लगे। कृष्ण ने बलराम
और अन्य गोप-साथियों की मदद से सभी को गोवर्धन में आश्रय दिया। इतनी विशाल कंदरायेँ, जिनमें एक नहीं, कई ब्रज सरलता से समा सकते थे, जिनकी जानकारी कृष्ण को
रही। सुरक्षित लोगों ने चैन की सांस ली, वे कहने लगे कि लीलाधारी
कृष्ण ने गोवर्धन को अपनी कानी अंगुली (कनिष्का) पर उठा लिया। दबे स्वर में
कंस के पक्षधर कह उठे कि –“अब तक नंद का छोरा आसमान सिर पर उठाए था, अब गोवर्धन
अंगुली पर उठा लिया”। ऐसे अवसर पर कृष्ण लोगों को यह समझाने में भी सफल हुए कि गिरिराज-गोवर्धन, सदा-नीरा यमुना
और गौ-धन ही उनकी असल संपत्ति है जिसके समक्ष दुनिया की सारी दौलत व्यर्थ है।---- मूसलाधार बारिश से गिरिराज पर स्थित इंद्र की विशालकाय मूर्ति ढह गई और लोग देवराज को छोड़ गिरिराज को पूजने लगे। गोकुल-वासियों
ने गोवर्धन पर योजनाबद्ध पौधारोपण किया, मृदा और पर्यावरण संरक्षित होने से ऋतु-चक्र
नियंत्रित हो गया। समय से वर्षा
होने लगी। गाय, मिट्टी(ब्रज-भूमि), पानी, वृक्ष, वन, नदी(यमुना) और पर्वत (गिरिराज) का महत्व
रेखांकित करना ही गिरधारी कृष्ण की गोवर्धन-लीला का उद्देश्य था। उन्होंने मिथकीय मान्यताओं का प्रतिकार कर
एक कल्याणकारी और वैज्ञानिक कदम उठाया जिससे ब्रज-मंडल में हरियाली
और खुशहाली छा गई ।
ब्रज-गोपों में इतना साहस नहीं था कि वे अकेले इंद्र की ईश्वरीय-सत्ता को चुनौती
देते। वैसे भी समाज में स्थापित मान्यताओं और व्यवस्थाओं के विरुद्ध विद्रोह या
आक्रोश एकाएक नहीं फूट पड़ता उसके पीछे सामाजिक-चेतना और उससे प्रेरित अनेक छोटे-छोटे संकल्प होते
हैं, उनका चमत्कारिक परिणाम होता है। श्रीमद्भागवत में वर्णित लीलाएं ऐसी ही हैं, जिसमें कृष्ण ने लीक छोड़कर चलने का दु:साहस किया, सफलता अर्जित की और आदर्श नायक बनकर उभरे। अलौकिक मानने वाली दृष्टि ने कृष्ण के इस
नायकत्व को परम-पुरुष की योग-माया या अवतार-पुरुष के चमत्कारों से जोड़ दिया। मेरी मान्यता है कि कृष्ण की उक्त लौकिक लीला के द्वारा अनाचारी कंस से पीड़ित ब्रज-वासियों के मन में उसका प्रतिकार
करने का साहस जुटा। स्वाभाविक है, उपदेशों-प्रवचनों से यह कार्य संभव नहीं था बल्कि
इसके लिए नायक को खुद पराक्रम करते हुए दिखना पड़ता है और ऐसा कृष्ण लीलाओं में एक-या-दो
बार नहीं, बार-बार घटित हुआ। कंस सामंतवादी था, निरंकुश था, गौ-वध का प्रवर्तक था। उसके राज्य में पशु-बलि के
साथ-साथ नर-बलि भी प्रचलन में थी। पूतना, तृणावर्त, बकासुर, अघासुर, धनुकासुर जैसे आसुरी-वृत्ति के सामंत जो किसी-न-किसी रूप में क्रूर-कंस की अनाचारी व्यवस्था के पदाती
(प्यादे) थे, राजाश्रय में अमात्य(वजीर)
बनकर भोली-भाली जनता को आतंकित करते रहते थे; कभी उनका गौ-धन खदेड़ ले जाते, कभी उनका गौ-रस जबरिया छीन
लेते, कभी
उनके गोचर पर कब्जा कर लेते, कभी गोपिकाओं के शील-हरण का कुत्सित प्रयास करते। कुछ मांसाहारी भी थे; जो नवजात बच्चों का अपहरण कर खा जाते, गौ-मांस उन्हें
अति-प्रिय रहा। छोटे होते हुए भी कृष्ण ऐसी बड़ी शक्तियों से जूझे और जीते, विशेषकर कालिया से अकेले। उनके हैरतअंगेज(आश्चर्यजनक) कार्यों ने युवा ब्रजवासियों को इतना आंदोलित किया कि वे इंद्र-महोत्सव का विरोध कर सके, कंस का बहिष्कार कर सके। सच भी है, साहस का एक कदम हजारों-हजार उपदेशों से ज्यादा कारगर होता है।
कंस-वध उस युग की
ऐसी अप्रत्याशित घटना है जिसमें कृष्ण के नेतृत्व
का वास्तविक रूप सामने आता है। इसमें ब्रज-वासियों के साथ मथुरा-जनपद के निवासियों
ने भी संगठित होने और संघर्ष हेतु उठ खड़े होने का परिचय दिया। कंस के चारों तरफ सुरक्षा की अभेद्य दीवार थी, जिसमें परिंदा भी पर नहीं मार सकता था। लीला-प्रसंग में आता है कि अक्रूर जी के साथ कृष्ण और
बलराम अकेले रथ पर बैठकर गोकुल से गए थे। परंतु ऐसा नहीं हुआ, कृष्ण-बलराम के कूच करते ही ब्रज-मंडल का समूचा गोप-समुदाय उनका अनुगमन करता
हुआ मथुरा पहुंच गया। देखने को, उनके हाथों में
गाय हांकने वाली लाठियां मात्र थी, परंतु उनके मन और हृदय आत्मविश्वास से भरे थे, उनकी भुजाएं जोश से फड़क रहीं थीं,
उनके इरादे मरने-मारने के थे। वे मुठ्ठी-भर गोप, मथुरा की चतुरंगिणी सेना से लोहा लेने में समर्थ थे।
कहते हैं, मथुरा के धनुष-यज्ञ
में कृष्ण और बलराम को छोड़कर शेष गोकुल -वासियों के लिए प्रवेश की अनुमति नहीं थी, जनपद की सीमाएं सील थीं। पूरी रात, गोप सीमा पर एकत्रित होते रहे, गुप्त मंत्रणाएं करते रहे। अलसुबह जब ब्रज-बालाएं दूध, दही, माखन, सब्जियां, फल, फूल, हार इत्यादि लेकर मथुरा आईं, तब कुछ उत्साही गोप,
गोपियों के परिधान में नगर प्रवेश पा गये और रंगशाला का नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया। सुरक्षा-घेरा टूटते ही
सशस्त्र ब्रज-गोपों की भीड़ कृष्ण के पीछे
खड़ी हो गई। जनपद-वासी, जो अपने राजा के
असंयत व्यवहार से व्यथित थे, वे भी गोपाल-कृष्ण में एक तारण-हार की छबि देखने लगे। मथुरा की बहुसंख्यक सेना, जो महाराज उग्रसेन की विश्वस्त थी, कृष्ण के समर्थन में आ गई। कुटिल कंस ने जिस मदान्ध कुवलयापीड हाथी से कृष्ण को कुचलकर मारने की योजना बनाई थी, दक्ष और दु:साहसी कृष्ण ने सहजता से उसे नियंत्रित कर लिया और उसी पर सवार होकर यज्ञशाला में
प्रवेश किया। देखा जाए तो कूटनीतिज्ञ
कृष्ण ने मथुरा-वासियों को मनोवैज्ञानिक रूप से उद्वेलित किया जिससे वे (मथुरा-वासी) स्व-शासन जैसे नैसर्गिक अधिकार की
प्राप्ति के लिए आंदोलित हो गए। कंस के प्राणांत होते ही कृष्ण-समर्थकों ने उद्घोषणा की कि अब राजसत्ता कृष्ण
के हाथों में होगी।
वास्तव में,
कृष्ण को न राज्य की कामना रही और न राजसी सुखों की। सत्ता
उनके लिए कभी साध्य नहीं रही। और, यही कारण था कि कृष्ण ने
राज्य सिंहासन पर खुद न बैठकर महाराजा उग्रसेन का राज्याभिषेक
करवाया। बर्बर तथा निरंकुश एकतंत्र समाप्त कर गणतंत्र की नींव रखी गई, जिसमें मथुरा जनपद के सभी प्रांतों, क्षेत्रों, वर्गों और वर्णों का प्रतिनिधित्व रहा। कृष्ण की पहल पर वृष्णि, अंधक, भोज, दाशह आदि अठारह कुल के विस्थापित
यादवों को बुलाकर
पुनर्वासित कराया, उनकी धन-सम्पत्ति और सम्मान उन्हें वापिस दिलाया।
कृतज्ञ मथुरा गणराज्य ने एक औपचारिक समारोह में क्रांति-नायक
कृष्ण को "श्री" की अनंत-उपाधि से विभूषित किया ('श्री' का अर्थ होता है- अनिंद्य सौंदर्य, अनिरुद्ध सामर्थ्य, अलौकिक बुद्धि, असीम यश, अपार संपत्ति, असीम गुणवत्ता)। कृष्ण ने श्रीकृष्ण बनकर समूचे संसार को
सर्व-शक्तिमान होने का संदेश दिया और ‘खुदी को बुलंद’ करते हुए किन्हीं-और कार्यों की सिद्धि के लिए कर्म-क्षेत्र
में आगे निकल गए। वे; सही अर्थों में एक धीरोदात्त नायक, एक युगंधर, एक युग-पुरुष थे।
‘मैं’ से ‘हम’ और फिर ‘जन’ को संघर्ष की प्रेरणा देता उनका कालजयी व्यक्तित्व लगभग 5000
वर्ष बाद आज भी प्रासंगिक हैं।
201,शास्त्री
नगर, गढ़ा, जबलपुर-482003(म. प्र.)/मोबाइल-9300104296/7000388332