रविवार, 29 दिसंबर 2013

कौटिल्य एव चन्द्रगुप्तमुत्पन्न

श्री शुक्ल जी की जानकारी का स्त्रोत क्या है? और, उनके अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य आज की स्थिति में किस अन्य पिछड़ी जाति में बैठते हैं? इन प्रशनों का उत्तर माँगा है।
देखिये, प्रतीक्षा रहेगी।
वर्ष २०१३ का हम धन्यवाद करते हैं।

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

झुके न तुम प्रताप प्यारे

@आजकल टेलीविजिन पर ऐतिहासिक कथानकों के प्रसारणों की भरमार हैं।
जोधा-अकबर (जी-टी वी) एवं महाराणा प्रताप (सोनी-टी वी) -मध्यकालीन इतिहास की परतें उधेड़ते ये दो धारावाहिक अपने-अपने नायकों को "महान "बताने की कोशिश कर रहें हैं।
कुछ भी हो , आम-आदमी को एजुकेट करने की बड़ी जिम्मेदारी तो वे निभा ही रहे हैं।
साधुवाद !

@डॉ नरसिंह परदेशी के आमंत्रण पर जळगाव (महाराष्ट्र) गया था। वहाँ दैनिक त्रिकाल (मराठी समाचार पत्र) के पूर्व संपादक प्रताप शाहिर विद्याधर पानत से हुई। कहते हैं, उन्हें महाराणा प्रताप के हाल (भाव) आते हैं। उन्होंने संकल्प लिया है कि वे एक करोड़ लोगों को महाराणा प्रताप की कथा सुनायेंगे। महाराष्ट्र और गोवा उनका कार्यक्षेत्र है। महाराणा प्रताप से संबंधित समूचा साहित्य उनके पास उपलव्ध है। प्रताप के ऐसे पैगम्बर को प्रणाम।

@कादम्बिनी (अप्रेल-2013) में संपादक शशि शेखर लिखते हैं -"इसमें दो राय नहीं कि महाराणा प्रताप की बहादुरी और मातृभूमि के प्रति उनका जज्बा बेजोड़ है। वे हार गये, पर झुके नहीं। बाद में भीलों के यहाँ शरण ली और वहाँ घास की रोटियां खाकर अपना शेष जीवन व्यतीत किया। काश, वे भारतीय सभ्यता और संस्कृति के धीरोदात्त पुरुष श्रीराम से सीख ले पाते।
अगर चित्तौड के महाराज ने श्रीराम के सिद्धांतों पर अमल किया होता तो यकीनन इतिहास कुछ और होता। अकबर की फौजें तब उन घने जंगलों को पार ही नहीं कर पातीं, जिनके पत्ते-पत्ते पर आदिवासियों का राज्य था। इन धरतीपुत्रों के पास छापामार लड़ाई का जन्मजात कौशल था। मुगलों की तोपों के मुँह उलटे मोड़ देना, उनके लिए कोई खास कठिन नहीं होता। राम ने सदियों पहले इस समाज की ताकत को परख लिया था। महाराणा चोट खाने के बाद इसे समझ पाये।"


 [] खैर यह तो किसी घटना को देखने-परखने का नजरिया होता है। आधा गिलास भरा हुआ! अथवा आधा गिलास खाली!! यदि सोनी-टी वी के धारावाहिक महाराणा प्रताप को ध्यान से देखा हो तो किशोर प्रताप को उनके पूर्वज राजा राम के आदर्श और मर्यादित जीवन की गाथा कराई गयी थी तथा वे प्रारम्भ से ही वनवासियों से सम्बन्ध सुधारते या स्थापित करते हुए दिख रहे हैं।

[] []इतिहास का सच यह है कि भामाशाह से धन -सहयोग प्राप्त कर प्रताप ने जो सैन्य-संगठन खड़ा किया ,वह ऐसे समुदायों का रहा जो शस्त्र चलाने में पारंगत रहे ,जिनमें स्वदेश-प्रेम कूट-कूट कर भरा था, जो अपनी मातृभूमि के लिए अपना बलिदान देने तैयार थे। विशेषकर भील और स्थानीय जन-जातियाँ, जिन्हे शशि शेखर ने 'धरती-पुत्र 'कहा है। ईश्वरसिंह मढाड अपनी पुस्तक 'महाराणा प्रताप 'में लिखते हैं-
इस संयुक्त सैन्य दल ने विशेषतः गुरिल्ला युद्धप्रणाली में महारत हासिल की थी|दस्तावेज दर्शाते हैं कि कई मोर्चों पर मुग़ल -सेना ने इससे करारी मात खाई।

[] [] [] "ओरछा का इतिहास "में ठाकुर लक्ष्मणसिंह गौर लिखते हैं-

[] [] [] [] और अन्त में एक प्रेरक-प्रसंग --शीतल भाट ने दिल्ली दरवार में मुग़ल बादशाह अकबर को मुजरा करते समय सिर पर बंधी पगड़ी उतारकर दूसरे हाथ में ले ली। पूछे जाने पर उसने उत्तर दिया -"यह पगड़ी उन महाराणा प्रताप ने दी थी ,जिनका सिर भगवान एकलिंग को छोड़कर कभी किसी को नहीं झुका। अतः मैने भी पगड़ी का मान रखा।" शंहशाह अकबर शीतल की निर्भीकता से प्रसन्न हुआ|परन्तु उसके दिल में एक टीस उठी -