मंगलवार, 27 मई 2014

माँ वैष्णव देवी (अर्धकुंवारी से आगे का सफ़र)

अर्धकुंवारी से भवन तक पहुँचने के लिए हम लोगों ने नया वैकल्पिक रास्ता चुना। यह पुराने रास्ते की अपेक्षा आसान एवं आधा किलोमीटर कम था। यहाँ से निशक्त जनों, विकलांगों एवं सीनियर सिटीजन्स के लिए ऑटो रिक्शा चलते हैं। काउंटर से तीन सौ रुपये में आने-जाने का पास मिलता है, बीमारी का सर्टिफिकेट या षष्ठि-पूर्ति का प्रमाण पत्र दिखाने पर। इस रास्ते पर पहाड़ी से लुढ़कते पत्थरों का डर रहा। अस्थायी सुरक्षा बतौर चिन्हित स्थलों पर टीन के शेड्स लगाये गए हैं, परन्तु देर सबेर पहाड़ी तरफ कंक्रीट की दीवार बना स्थायी समाधान आवश्यक होगा।


रास्ते में दिल्ली के रघुनन्दन शर्मा (रिटायर्ड सेल्स टैक्स ऑफिसर) मिले, उम्र ७३ वर्ष, लेकिन कमर झुकी नहीं थी। लकड़ी तो सहारे के लिए ले रखी थी, परन्तु तनकर चलते थे। वे यात्रियों को बाहिरी रैलिंग के पास बैठने एवं उसे पकड़कर चलने के लिए मना कर रहे थे। आज की ही ताजा घटना उन्होंने सुनाई- दो-तीन लोग बच्चों सहित रैलिंग के पास बैठे थे, अचानक बंदरों ने उनपर धावा बोल दिया। वह तो शर्मा जी और अन्य लोगों ने अपनी लाठी से बंदरों को धमकाया-डराया, तब उनकी जान बची। शर्मा जी का एक तर्क और रहा- पहाड़ी से लुढ़कते पत्थर रैलिंग तरफ़ ही सीधी मार करते हैं। चर्चा में शर्मा जी ने यह भी बतलाया कि अर्धकुंवारी में उन्हें जलगांव की दो महिलाएं मिली थी, जिनका पर्स और पैसा गुम गया। शर्मा जी ने उन्हें एक सौ रुपया दिया और कुछ लोगों से पैसा दिलवाया; कम से कम वे अपने घर तो पहुँच सकेंगी। शर्मा जी से क्षमा मांग कर हम अपने परिजनों के साथ हो लिए।


भवन की स्वच्छ, निर्मल सौंदर्यमयी प्रथम छवि दिखते ही हम सभी का जी बाग़ बाग़ हो गया। हम सभी मारे ख़ुशी के नाचने लगे। बस! कुछ दूर और, मील के कुछ पत्थर पार करते ही मंज़िल तय। घुमावदार रास्ते के प्रत्येक सौ मीटर पर लगे चैनेज स्टोन को देखकर लगता, मानो हमारा कोई हितैषी-रिश्तेदार वहाँ खड़ा मुस्करा रहा है। हमारे आने पर प्रोत्साहित करता हुआ, हमारे आगे बढ़ते ही हमें 'बैक-सपोर्ट' दे रहा है।
यात्रा के प्रारंभ में हम सशंकित रहे। मैहर में माँ शारदा मंदिर की सीढ़ियां और मंडला के काला पहाड़ की सीधी चढ़ाई में असफलता के पूर्व अनुभव हमारे साथ थे। सच! यह माँ वैष्णव देवी की कृपा थी, हमें शक्ति मिली, हमने एक कठिन यात्रा को पूरा किया और शाम होते-होते मंदिर परिसर में प्रवेश पाया। दर्शनों हेतु लाइन में लगकर ऐसा लगा, मानो एक स्वप्न देख रहे हों। कभी कल्पना की थी, माता रानी के दर्शनों की, कब? कैसे? यह नहीं सोचा था। आनन-फानन बनी योजना और तत्काल रिज़र्वेशन की सुविधाओं का लाभ उठाते हुए हम आखिर, दरबार तक पहुँच ही गए। सपना जो सच होने जा रहा था। यात्रा के सारे कष्ट, शरीर की सारी थकान कुछ देर के लिए भूल गए। मन ने बाह्य कष्टों पर विचार करना छोड़ दिया। अन्तर्मन में सिर्फ और सिर्फ माँ की वही छवि उभरने लगी जो सामने क्लोज सर्किट टी.व्ही. पर दिखाई दे रही थी। वातावरण कुछ ठंडा हो गया था। हम सभी जर्सी, स्वेटर इत्यादि पहिनकर लाइन में अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे।
कतार में रहे सहयात्रियों से बतियाते, उनके दुःख-दर्द, उनकी सुखद अनुभूतियों को शेयर करते हुए हम आगे बढ़ते गए। हमारे साथ जो परिवार था, वह माता के दरबार में पहले भी आ चुका था। उन्होंने बताया कि मातारानी इस भवन में नीचे बनी गुफ़ा में है। हम सीढ़ी चढ़ते हुए ऊपर जाएंगे और फिर गुफ़ा के लिए नीचे उतरेंगे। माँ के दर्शन चौबीसों घंटे होते हैं, बस सुबह शाम आरती के समय विराम रहता है। मुख्य गुफ़ा में प्रवेश वर्जित है। वह रास्ता नवरात्रियों में खोला जाता है। नवरात्रियों की भीड़ और धक्का-मुक्की को याद कर, उन्होंने बतलाया कि वहाँ उपस्थित सुरक्षाकर्मी एवं व्यवस्था-प्रभारी मूर्ति के सामने रुकने नहीं देते। कई बार तो हम प्रकटित प्रतिरूपों के ठीक से दर्शन नहीं कर पाते और पीछे से धक्का या घुड़की आ जाती है और हम बाहर आ जाते हैं। इतना कष्ट सहकर हम जहाँ दर्शनों की लालसा लेकर आते हैं, वहां क्लोज सर्किट टी.व्ही. से ही संतुष्ट होना पड़ता है। हम लोग सोच रहे थे कि यदि आज भी ऐसा हुआ तो हमारा आगमन/प्रयास व्यर्थ होगा। खैर, मन ही मन जयकारा लगाते हुए जब हम गुफा द्वार पर आये तो एकल कतार बद्ध हो गए। गुफ़ा के अंदर के शांत, शीतल एवं सुगंधित वातावरण से मन में विश्वास जग रहा था कि माता रानी के ठीक-ठीक दर्शन हो जावेंगे।
और...वह स्वर्णिम क्षण आया जब हम प्रमुख प्रतिमाओं के सामने हाथ जोड़े खड़े थे। वहाँ तैनात सुरक्षाकर्मी की दबंग आवाज़ सुनाई दी-"अपने बाएं तरफ दृष्टि डालें जो खड़ी मूर्तियों के दर्शन आप कर रहे हैं उनके ठीक नीचे माता की स्वयंभू झांकियाँ हैं"।



हम अवाक थे, हतप्रभ थे, चमत्कार सा देख रहे थे। ऐसा लगा- हमारे आगे-पीछे कोई नहीं है। माँ का दिव्य दरबार है, उनकी मनोरम झांकियाँ हैं और हम अपलक उन्हें निहार रहे हैं। न कोई भीड़-भाड़ न कोई धक्का-मुक्की, न कोई पुलिस या घुड़की। माता के दर्शन की लालसा पूर्ण होते ही नेत्र स्वयमेव बंद हो गए, मानो उन दृश्यावलियों को सदा-सदा के लिए कैद करना चाहते हों। वहां उपस्थित पंडितजी ने हमारी तन्द्रा भग्न की-"थोड़े आगे आइये जजमान। हम आपको तिलक लगा दें"। हमने उसी स्थिति में अपना मस्तक आगे झुका दिया। भाल पर सिन्दूरी तिलक अंकित कर पंडितजी ने हौले से आगे बढ़ने का संकेत किया। हम इसे अपना सौभाग्य माने या मातारानी की कृपा। सच है उनकी मर्ज़ी के बिना तो यह सब संभव नहीं था। अन्य परिजनों के साथ जब अलीशा और शौर्य का क्रम आया तो पंडितजी ने शौर्य को मातारानी के चरणों में लिटाने की अनुमति दे दी। वर्षा को मातारानी के आशीष के रूप में चुनरी प्राप्त हुई। हम सभी प्रसन्न एक-दूसरे को इस यात्रा का श्रेय देने लगे परन्तु हमारे हिसाब से इस यात्रा का पुण्य 'शौर्य' को मिला, क्योंकि उसके साथ हम सभी को यह दर्शन लाभ मिला। एक बार पुन: माँ के श्री चरणों में नमन किया और गुफ़ा से बाहर आये।


काउंटर से प्रसाद लिया। अमानती सामग्री (मोबाइल, कैमरा, पर्स, चमड़े की सामग्री जूते इत्यादि) मुक्त कराये।

शारीरिक थकान अब हावी होने लगी थी। हमलोग जहाँ बैठे थे लगा वहीं बैठे-बैठे नींद आ जाएगी। परन्तु वह स्थल मुख्य प्रवेश द्वार से लगा था, उसे तो अन्य दर्शनार्थियों के लिए खाली करना था। भूख भी लग रही थी। मंदिर परिसर के बाहर थोड़ा बहुत खाना खाया, बिना लहसुन प्याज़ का-प्रसाद था। आत्मा तृप्त हुई, मन संतुष्ट हुआ। परन्तु शरीर शिथिल हो गया। खाने के बाद तो अपनी काया खुद को भारी लगने लगी। वापिस भी उतारना रहा। सुनते आये थे कि चढ़ाई की अपेक्षा उतरने में कष्ट होता है, अधिक ऊर्जा लगती है। स्वाभाविक है हमें अपने गुरुत्व केंद्र के विरुद्ध कार्य करना पड़ता है, कष्ट तो होगा ही। रात्रि के ग्यारह बज रहे थे। वहां का तापमान ठिठुरन भरा था। हमारे पास सीमित गरम कपडे रहे। यात्री निवास में जगह नहीं मिली। मंदिर से कम्बल लेकर रात काटी जा सकती थी, परन्तु फिर दूसरे दिन का कार्यक्रम बिगड़ जाता। सभी ने विचार कर वापिसी विकल्प घोड़े चुने। बाबा भैरवनाथ को प्रणाम कर मातारानी की निर्मल झाँकियाँ अपने अंतर्मन में सहेजे हम वापिस लौट पड़े।
घोड़े पर चढ़ने और चलने खासकर एक ऊंचाई से नीचे में डर लगा। एक दूसरे को ढाँढस बंधाते, प्रोत्साहित करते हम चल रहे थे। नेतृत्व सौरभ ने संभाला। अलीशा और शौर्य का साईस बहुत अच्छा था, वह बीच-बीच में शौर्य को अपनी गोद में ले लेता था। अबीर का घोड़ा और साईस अपेक्षाकृत सुस्त रहे, उसे बीच में लेकर चलना पड़ा। वर्षा का घोड़ा मालिक अक्सर घोडा छोड़कर मोबाइल पर बात करता रहता था और उसे लगातार वर्षा की डाँट खानी पड़ी। मीना का घोड़ा हमने लगभग साथ रखा था, क्योंकि हम जानते थे कि वह बहुत डरती है। हमारा घोड़ा मालिक बहुत अनुभवी रहा। लगातार हम लोगों से बात करता रहा और "टिकी-टिकी-टिकी" कर घोड़े को संकेत देता रहा। जहाँ सीधा उतार होता, वह आगे आ जाता और लगाम पकड़कर घोड़ा उतारता था। बाकी समय या तो हमारे साथ चलता या पीछे घोड़े की पूँछ पकड़कर। घोड़े पर बैठने और लम्बी यात्रा के प्रारंभिक सूत्र उसने हमे दिए-घोड़े पर बैठकर कमर सीधी रखना, लगाम पकड़ने के लिए उसने मना किया था।पकड़ने के लिए घोड़े पर कसी जीन से एक हत्था था। उसने यह भी हिदायत दी थी कि हम सीधे सामने या ऊपर का नज़ारा देखते चलें, नीचे न देखें। ऊंचाई  उतरने का यह फंडा हमें तो आता था, परन्तु दल के बाकी अश्वरोही इससे अनभिज्ञ थे। चौदह कि.मी. घोड़े की पीठ पर बैठकर यात्रा कल्पना से परे थी। ऊपर से रास्ते में घटती बढ़ती प्रकाश व्यवस्था। पैरों और जांघों में असहनीय पीड़ा हो रही थी परन्तु थकान और रात्रि के कारण पैदल मार्ग या सीढ़ियों से उतरने का रिस्क हमारा परिवार नहीं ले पाया। बड़े कष्ट की कल्पना ने छोटे कष्टों का डर समाप्त कर दिया।
साईस से हमने घोड़ों के इतने अभ्यस्त होने का राज़ पूछा तो उसने बतलाया कि यही उनकी आजीविका है। रोज़ वे और उनके घोड़े ऐसे ही यात्रियों को ऊपर नीचे ढ़ोते हैं। लगभग दो चक्कर प्रतिदिन हो जाते हैं। "कभी घोड़े फिसलते नहीं"? प्रश्न के उत्तर में उसने कहा-"कभी नहीं हुआ"।
और हम मातारानी से दुआ माँग रहे थे कि आज भी ऐसा न हो। क्योंकि हमने आज ही अपनी इस दुर्गम यात्रा में सबसे सुरक्षित सवारी पालकी को मय कहारों के गिरते और क्षतिग्रस्त होते देखा था।
हम सभी सकुशल लौट आये, मातारानी को बार-बार प्रणाम किया, जिनकी कृपा से यह यात्रा सम्पन्न हुई।

मंगलवार, 20 मई 2014

माचिस की ज़रूरत यहाँ नहीं पड़ती, यहाँ आदमी आदमी से जलता है।

व्यथा 
माचिस की ज़रूरत यहाँ नहीं पड़ती,
यहाँ आदमी आदमी से जलता है… 
दुनिया के बड़े से बड़े साइंटिस्ट ये ढूँढ रहे है कि मंगल गृह पर जीवन है या नहीं  
पर आदमी ये नहीं ढूँढ रहा कि जीवन में मंगल है या नहीं... 
ज़िन्दगी में ना जाने कौनसी बात "आख़री" होगी,
ना जाने कौनसी रात "आख़री" होगी…  
मिलते, जुलते, बातें करते रहो यार एक दूसरे से,
ना जाने कौनसी "मुलाक़ात" आख़री होगी… 
अगर ज़िन्दगी में कुछ पाना हो तो 
तरीके बदलो, इरादे नहीं… 
ग़ालिब ने खूब कहा है… 
ऐ चाँद तू किस मजहब का है 
ईद भी तेरी और करवाचौथ भी तेरा।
 

चित्रकार: रजनी पवार, इंदौर
जीवन 

रविवार, 18 मई 2014

माँ वैष्णव देवी (अर्धकुंवारी तक का सफ़र)

अमृतसर से कटरा वाया जम्मू लक्ज़री बस से ओवरनाइट यात्रा कुछ थका देने वाली रही। विकल्प यदि ट्रैन चुनी होती तो जम्मू तक तो आराम रहता। हाँ, जम्मू से कटरा तो बस ही मिलती। वैसे जम्मू से कटरा तक एक रेल लाइन का कार्य प्रगति पर है और शीघ्र ही तीर्थयात्री सीधे कटरा तक रेल द्वारा पहुँच सकेंगे। ऐसी सुविधा मुहैय्या कराने के लिये रेल विभाग साधुवाद का पात्र है।
कटरा में होटल हिल व्यू पहले से बुक करवा रखा था, वहाँ की पिक-अप वेन आई और हमें हमारे लगेज के साथ ले गई। होटल पहुँच कर नहाया, तैयार हुए और माँ वैष्णव देवी के मन्दिर प्रवेश हेतु फोटो आई.डी. बनवाया। यह निःशुल्क प्रवेश पत्र छह घंटो तक मान्य होता है। मंदिर तक पहुँचने के लिये लगभग १५-१६ कि.मी. की चढ़ाई रही, पदयात्रियों के लिये सीढ़ियों के अलावा घुमावदार रास्ता था, घोड़े, पालकी और हेलीकाप्टर अन्य विकल्प थे।
हम लोगों ने पैदल माँ के दरबार तक पहुँचने का संकल्प किया, यह जानते हुए कि मुझे और मीना दोनों को पैदल चलने में तकलीफ होती है और नन्हा सहयात्री शौर्य, उसे तो गोद में एप्रन में ले जाना पडेगा।
रास्ते में दस-दस रुपयों की लाठियां मिल रही थी। जब हमने उसे खरीदना चाहा तो मीना ने मना कर दिया, 'हम दोनों एक दूसरे की लाठी (सहारा) बन कर मातारानी के दरबार तक पहुँच जाएंगे'। उसके आत्मविश्वास को सम्मान देते हुए हमलोगों ने एक जयकारा लगाया और आगे बढ़ गये।

भीड़-भाड़, रास्ते में घोड़ों-टट्टुओं की आवाजाही, उनकी लीद से उत्पन्न दुर्गंध, प्रसाद एवं अन्य सामग्री बेचने वालों के दलालों का ढ़ीठ आग्रह, घोड़ों-टट्टुओं और पिट्ठुओं को लेने अनुरोध; प्रथमदृष्टया माहौल अप्रियकर रहा। शनै:-शनै: हम सभी अभ्यस्त हो गये। रास्ते-रास्ते चाय, स्वल्पाहार, ठंडे पेय पदार्थ, प्रसाद, देवी श्रृंगार सामग्री, ड्रायफ्रूट्स की दुकानें। वहीँ जगह जगह बने मसाज सेंटर भी आकर्षण के केन्द्र रहे। मुख्य मंदिर में प्रसाद वहीं से मिलता है अत: हमलोग मातारानी के लिये चुनरी एवं श्रृंगार सामग्री ले लिये। वैष्णव देवी संस्थान द्वारा जगह जगह शेड्स, शौचालय एवं शीतल जल की व्यवस्था थी। हम रुकते-रुकते माँ का गुणगान करते बीच-बीच में पौत्र शौर्य के लिए गोदी बदलते हुए ऊपर की ओर बढ़ रहे थे। दल की कमज़ोर कड़ी तो हम तीन थे- मैं, मीना और मासूम शौर्य। जहाँ हम थोड़े से भी थककर सुस्त होते, काफिला रुक जाता। हमलोग बैठ जाते, शौर्य एप्रन से निकल कर खुले में खेलने लगता और बाकी सदस्य चुट-पुट खाने या सॉफ्ट ड्रिंक्स का बहाना खोज लेते।
यात्रा की चढ़ाई हमें मालूम थी, हमारे पैरों के सामर्थ्य की हमें जानकारी रही। परिवार साथ था अत: बिना किसी चिंता के पाँव-पाँव आगे बढ़ते गए। सच है 

मंज़िल भले दूर हो,
रास्ता हो कठिन। 
कन्धा मिलाकर साथ चले, 
तो कुछ नहीं मुश्किल॥
 
दर्शन कर लौटते श्रद्धालुओं के चेहरे पर ख़ुशी और परितोष हमारा उत्साह वर्धन करती थी। उन्हें देखकर हमलोग माता का जयकारा लगा देते, वे भी माता रानी की जय बोलते हुए आगे बढ़ जाते। लौटने वाले हम लोगों को नहीं जानते थे और न हम उन्हें- परन्तु जब हम उन्हें देखकर मुस्कराते तो उनके चेहरे की ख़ुशी दुगनी हो जाती। वे ऐसा व्यवहार करते मानो हम उनके सगे-सम्बन्धी हों। मुल्ला नसरुद्दीन की यह नसीहत जीवन में कितना काम आती है।  
अर्धकुंवारी पहुँचने के पूर्व ही हमारा दम टूटने लगा। तब वर्षा ने सहजता से एक बात कही- "हमारे आगे बढ़ाये दो कदम माता रानी तक पहुँचने की दूरी कम कर रहे हैं"। हम सभी में एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ और माता रानी की जय बोलकर हम आगे कदम बढ़ाने लगे। रास्ते में एक आदमी मिला। उसने हम से पूछा- 'बैक सपोर्ट चाहिए?'। हमारी समझ में नहीं आया कि वह किस 'स्पोर्ट' की बात कर रहा है। विस्तार से पूछने पर उसने पीछे से एक हाथ हमारी कमर पर और एक हाथ पीठ पर लगाया और लगभग धकाते हुए चलने लगा। समझ में आया कि वह पीछे से हमे सपोर्ट देगा, जिससे हमें आगे बढ़ने में कठिनाई नहीं होगी। हम सभी हंसी-ठिठौली के माहौल में आए। सौरभ ने कहा- "कमर का पट्टा बांधकर आना था"। अलीशा बोली- "हमारे राजस्थान में कमर में फेंटा बांधकर चलते हैं"। 'कमर कसना' एक प्रचलित मुहावरा भी है। बात बदलते-बदलते पॉलिटिकल सपोर्ट लीडरशिप तक पहुँच गयी। माहौल को हल्का फुल्का रखने के लिए हम सभी एक दूसरे को बैक सपोर्ट देने लगे और सीखा कि कमर और पीठ सीधा रखकर ऊपर चढ़ने में कम तकलीफ़ होती है।
धीरे-धीरे रुकते रुकाते हम अर्धकुंवारी पहुँच गए। वहाँ पहुँचने पर हमे पता चला कि वहाँ की कैंटीन पहले ही दो घण्टों के लिए बंद हो चुकी थी। वहाँ न बैठने की व्यवस्था थी न खाने की। अंतत: रास्ते में मिल रहे वेफर्स और बिस्कुट से ही काम चलाया।
मंज़िल अभी दूर थी सफ़र अभी भी बाकी था। 

इस कड़ी के अन्य लेख क्रमानुसार इस प्रकार हैं 
५. माँ वैष्णव देवी (अर्धकुंवारी तक का सफ़र)        



सोमवार, 12 मई 2014

सोना नहीं, चांदी नहीं हीरा तो मिला! उन्नाव का डोंडिया खेड़ा गाँव

अक्टूबर २०१३ संत शोभन सरकार के उस सपने का साक्षी है जिस सपने ने सरकार की नीँदें  उड़ा दीं। एक हज़ार टन सोने की चाह में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की बीस सदस्यीय टीम उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के डोंडिया खेड़ा गाँव में लगी रही। डेढ़ सौ साल से वीरान पड़े किले के नीचे एक हज़ार टन सोने की संभावना से सरकारी महकमे, मीडिया एवं लगभग दस हज़ार लोगों की भीड़ ने डोंडिया खेड़ा एवं उसके इतिहास को पूरे विश्व में चर्चा में ला दिया।

Unnao Treasure Hunt
 महीने भर चली खुदाई में .एस.आई के हाथ कुछ भी नहीं लगा। यूँ तो संतों के आदेशों एवं निर्दोशों पर अनेकोँ राजा-महाराजा निर्माण कार्य कराते रहे हैँ किन्तु लोकतांत्रिक भारत की संभवत: यह पहली ही घटना है जबकी किसी सन्त के सपने को सरकार ने इतनी तवज्जो दी हो। कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। आर्थिक संकट से गुज़र रही भारत सरकार ने एक हज़ार टन सोने में एक बड़ा समाधान खोजते हुए डोंडिया कला में ख़ुदाई का निर्णय ले लिया। इस खुदाई में कुछ मिला हो अथवा ना मिला हो एक ऐसे इतिहास को प्रकाश में ज़रूर ला दिया जिसकी कीमत सन्त के ख़ज़ाने की कीमत से कहीं ज़्यादा है। इस खुदाई से पहले राजा राव राम बख़्श सिंह की शहादत के बारे में कौन जानता था? कौन जानता था डोंडिया खेड़ा का किला?

इस खुदाई के घटनाक्रम मे मीडिया ने १८५७ के क्रांतिकारी राजा राव बख़्श सिंह के बलिदान और उससे जुड़े इतिहास को जमकर याद किया। इतिहासकार बताते हैं कि राजा राव राम बख़्श सिंह ने जून १८५७ की क्रांति में डिलेश्वर मंदिर में छिपे बाराह अंग्रेजोँ को ज़िंदा जला दिया था। इनमें जनरल डीलाफोंस भी मौजूद थे। बदले में अंग्रेज़ों ने राजा राव को फ़ाँसी की सज़ा सुनाई। कहते हैं चंद्रिका देवी के भक्त राजा राव राम बख़्श सिंह को तीन बार फाँसी पर चढ़ाया।  तब कहीं उन्होने अपने प्राण त्यागे थे। ऐसे लौहपुरुष बहादुर देशभक्त की चर्चा क्रांतिकारी इतिहास की किसी पुस्तक मे दर्ज नही है। हालांकि हाल के वर्षों में भूले बिसरे क्रांतिकारियों के इतिहास पर पर्याप्त लिखा गया है किन्तु राजा राव बख़्श सिंह की शहादत की सुध किसी ने नही ली है। भला हो संत शोभन सरकार का जिन्होने खजाने की चाह में लुप्त प्राय: इतिहास को उजागर करवा दिया।

उन्नाव के डोंडियाखेड़ा गाँव का इतिहास अत्यंत प्राचीन है जिसका ज़िक्र पुराणों में है। छठवीं शताब्दी में चीनी यात्री व्हेनसांग भी यहाँ से गुज़रा था, उन्नाव के इतिहास में यह उल्लेख है। स्थानीय मान्यता के अनुसार गौरी-गजनवी के हमलों के समय पूरे अवध प्रान्त की जागीरें और स्थानीय साहुकार भी अपने ख़जाने गंगा के किनारे स्थित इस सबसे सुरक्षित माने जाने वाले किले में रखते थे। गांव-गांव में इसकी मालदार हैसियत की काफी चर्चा है। मगध और दिल्ली के बीच बचा यह क्षेत्र व्यापारिक मार्ग था जिस कारण यहाँ दुर्ग का निर्माण करवाया गया।



कन्नौज के इतिहास से पता चलता है कि कभी यह भर राजाओं के अधीन था। तेहरवीं शताब्दी में यह क्षेत्र अर्गल राजाओं के अधिसत्ता में गया था सन १३२० के आसपास इस क्षेत्र में बैस राजपूतों का उदय हुआ। राजा अभय सिंह एक प्रभावशाली बैस राजा साबित हुआ। राजा अभय सिंह एवं उनके उत्तराधिकारियों ने इस क्षेत्र को पूर्णरूपेण भर राजाओं से मुक्त करा दिया।

लगभग १५वीं शताब्दी में राजा मर्दन सिंह का नाम आता है, जिन्होने मुगलों से बचने के लिये किले का नवनिर्माण करवाया। जहाँगीर के शासनकाल मे यहाँ का किला कोषगार के रुप में प्रयुक्त होने लगा। इसके पश्चात सोलहवीं शताब्दी में राजा त्रिलोकचन्द हुए जिन्होने पूरे बैसवारा क्षेत्र पर अपना क़ब्ज़ा कर लिया था। इस समय इस क्षेत्र को संग्रामपुर कहा जाता था। १७वीं शताब्दी में राजा राव बख़्श सिंह हुए जो बहुत प्रभावशाली थे। इस सम्पूर्ण क्षेत्र में इस राजा को अत्यन्त सम्मान से देखा जाता है। डोंडियाखेड़ा के किले के पास बने एक पार्क में बैस राजा राजा राव बख़्श सिंह की अश्वरोही प्रतिमा लगी हुई है। रही बात इस राजा की मालदार हैसियत की तो विलियम हॉवर्ड रस्सेल की किताब 'माय इंडियन डायरी', अमृतलाल नागर की किताब 'ग़दर के फूल' और 'कानपुर का इतिहास खण्ड एक' में लिखा गया है कि राजा राव बख़्श सिंह महाजनी करते थे। कलकत्ता-कानपुर के व्यापारी ही नहीं नाना साहब पेशवा भी अपना सोना उसके पास रखते थे।

ऐसे समृद्ध इतिहास की धरोहर डोंडियाखेड़ा गांव और १८६७ का वीर क्रांतिकारी राजा राव बख़्श सिंह की शहादत सन्त शोभन सरकार के सपने से सामने आई है। यूँ तो संत शोभन सरकार फतेहपुर के आदमपुर गांव में ढ़ाई हज़ार टन सोने की बात को पुन: तूल दे रहे हैं पर सरकार उन्हें तवज्जो नही दे रही है। उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया है। किन्तु यदि सपनों के सपने देखने से कोई इतिहास सामने आता है तो ऐसे सपने रोज़ देखे जाने चाहिये। ऐसा लगता है कि कहीं शोभन सरकार उपेक्षित पड़े किले, हवेलियां, महल, पुरा सम्पदा और भूले-बिसरे क्रांतिकारियों का इतिहास संजोने और संवारने की ओर तो सरकार को इशारा नही कर रहे हैं, क्योंकि ये राष्ट्र की वे सम्पदाएं हैं जिनकी कीमत एक हज़ार टन अथवा ढ़ाई हज़ार टन सोने से कहीं ज़्यादा है। ये सम्पदाएँ देश के माणिक और मोती हैँ। इस खुदाई से सोना या चांदी भले ही ना मिला हो किन्तु राजा राव बख़्श सिंह रूपी हीरा अवश्य मिला है।

लेखक: शैलेन्द्र सिंह भदौरिया, ग्वालियर