रविवार, 29 जून 2014

श्रीनगर-काश! उनके अच्छे दिन जल्दी आ जाते।

श्रीनगर, भारत के शीर्षस्थ सीमांत-प्रदेश जम्मू और कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी है। श्रीनगर (श्री+नगर) का शाब्दिक अर्थ-वैभव की नगरी है। वहाँ का नेचर (प्रकृति) और नेचुरल ब्यूटी (दमकते चेहरे) देखते ही बनते हैं। लगता है, कुदरत ने उन्हें फुर्सत से गढ़ा है। किंवदन्ती यह भी है कि एक समय वहाँ के बहुसंख्यक लोग (कश्मीरी पंडित) ईश्वर को अपना लाभांश देते थे और उतनी स्वर्ण-मुद्राएँ वहाँ स्थित झील (डल झील का आरम्भिक हिस्सा गोल्डन-लेक कहलाता है) में डाल देते थे। यह अलग बात है कि आज वे अपने ही घरों से बेघर हैं? वैसे, मोदी सरकार कश्मीरी-पंडितों के पुनर्स्थापन के लिए कृत-संकल्पित है। काश! उनके अच्छे दिन जल्दी आ जाते।
इतिहासकार मानते हैं कि श्रीनगर, मौर्य संम्राट अशोक द्वारा बसाया गया। अन्य पर्वतीय शहरों की तुलना में यह शहर कुछ अलग लगता है। यहाँ के घर और बाजार पहाड़ी ढलानों पर नहीं बसे। एक विस्तृत घाटी के मध्य होने के कारण यह मैदानी शहरों जैसा है। किन्तु पृष्ठभूमि में दिखाई पड़ते बर्फाच्छादित पर्वत-शिखर यह अहसास कराते हैं कि हम वास्तव में समुद्रतल से 1730 मीटर ऊँची सैरगाह में हैं।
श्रीनगर को याद करें तो याद आते हैं वहाँ के सूखे मेवे, स्वादिष्ट फल, सुगन्धित केशर, सुपाच्य पेय कहवा, सुन्दर परम्परागत हस्तशिल्प, खूबसूरत डल झील और मुग़ल स्थापत्य शैली के बाग-बगीचे। "सिटी ऑफ़ गार्डन्स" के नाम से मशहूर इस शहर में छोटे-बड़े 700 बगीचे हैं।
कश्मीर का ट्यूलिप-गार्डन पूरे साल में मात्र पच्चीस दिन खुलता है। पूर्व प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की स्मृति संजोये यह बॉटनिकल गार्डन 90 एकड़ क्षेत्र में विकसित है। 23 अप्रैल दोपहर को जब हम वहाँ थे, तब लगभग 70 किस्मों के ट्यूलिप खिले थे। अलग-अलग रंग के, अलग-अलग ढंग के, अलग-अलग कतारों में। दूर तक, जहाँ भी निगाह दौड़ती, एक से बढ़कर एक गुल खिले दिखते। 'नन्दन -कानन' जैसी दिव्यता देखकर हम दंग रह गए। लगा, श्रीनगर आना सार्थक हुआ। पाँव-पाँव घूमते हुये हम थक गये, परन्तु बगीचे का कोई  ओऱ-छोर नहीं पकड़ पाये। भूख भी लग रही थी। पुए खाकर कहवा पिया, परम्परागत परिधानों में फोटो खिंचवाए और उस सपनों के संसार से बाहर आ गये।
यहाँ एक गड़बड़ हो गई। कश्मीर के शाही बगीचे (मुग़ल बादशाहों के ख्बाब गाह) हमने ट्यूलिप गार्डन के बाद देखे। एक औपचारिकता सी निभाते हुये। फिर भी, 'चश्म-ए-शाही' में सोतों से निकलते शीतल स्वादिष्ट जल का स्वाद और 'शालीमार' में चिनार वृक्षों के बैक-ग्राउंड में लिए फोटोग्राफ्स हमारी निजी धरोहर  हैं।
कश्मीर यात्रा का अंतिम और अहम पड़ाव था -डल झील। श्रीनगर के मुकुट पर जड़ा बेशकीमती नगीना। जब हमने सुन्दर, सजी-धजी पैडल टेक्सी बोट (शिकारा) किराये पर लेकर झील में प्रवेश किया, तब भगवान भाष्कर अस्ताचल की ऒर थे। आकाश का नारंगी रंग समूची झील को अपने रंग में रंग रहा था। यहाँ की शान्त, स्तब्ध झील में नौकायन, भेड़ाघाट (जबलपुर) में किये नौका-बिहार से पृथक अनुभव रहा। यहाँ थ्रिल या रोमांच नहीं था बल्कि चुलबुलापन था, मौज-मस्ती थी। हम सभी बौराये से झील का अनुपम सौन्दर्य निहार रहे थे। नन्हा शौर्य अत्याधिक प्रसन्न रहा, उसे बहुत सारा मम (पानी) दिख रहा था। दादी की गोदी में किनारे बैठा वह, छप-छप कर रहा था। झील में तैरती कुमुदनी पकड़-फ़ेंक रहा था।
डल झील में दो बातें बहुत अच्छी लगीं। एक- वहाँ तैरते आवास, हाउसबोट। श्रीनगर आयें और वहाँ के हाउसबोट में रात्रि-विश्राम न किया, तो क्या किया? हाउसबोट युवा जोड़ों की पहली पसंद होती है, या यूँ कहें-ज्यादातर हनीमून-पैकेज  में हाउसबोट नाइट-स्टे पहले से जुड़ा होता है। यहाँ के हाउसबोट, केरल की तुलना में स्टेशनरी हैं, स्थिर हैं। किनारे से मेहमान की फेरी के लिये इनके अपने शिकारे होते हैं-निःशुल्क।
हमारे नाविक ने बताया कि डल झील में हाउसबोट का चलन डोंगरा राजाओं और अंग्रेजों के मध्य विवाद से हुआ। डोंगरा राजाओं द्वारा कश्मीर में स्थायी सम्पत्ति खरीदने और घर बनाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुये अँग्रेजों ने झील में बड़ी नाव पर लक्जरी केबिन बनाकर रहना आरम्भ कर दिया।
1962 की चर्चित फिल्म 'कश्मीर की कली' में सर्वप्रथम डल झील, हॉउसबोट और शिकारा-राइड को भारतीय दर्शकों ने पसन्द किया। यही कारण रहा कि बाद के फिल्म-निर्माताओं ने इनकी पॉपुलरिटी को जमकर भुनाया। जंगली, जानवर, कभी-कभी, जब-जब फूल खिले, रॉकस्टार, मिशन-ए-कश्मीर, लम्हा, दिल से, ये जवानी है दीवानी, जैसी सुपरहिट फिल्मों के कई रोमांटिक दृश्य और गीत डल झील के हाउसबोटों में फिल्माये गये हैं। हाउसबोट कीपर बड़ी शान से प्रचार-प्रसार करते हैं कि फलाँ-फलाँ फिल्म की शूटिंग इस हौजरे में हुई। 'मिशन-ए-कश्मीर' तथा 'गुल-गुलशन-गुलफाम' (टी व्ही सीरियल) नामक दो हाउसबोट हमने भी देखे।
डल झील का दूसरा मुख्य आकर्षण-वहाँ के तैरते बाजार थे। दुकानें भी शिकारे पर लगी थी और शिकारे पर सवार होकर विभिन्न वस्तुएँ खरीदीं जा रहीं थीं। शिकारे बार-बार हमारे नजदीक आ रहे अपने प्रोडक्टों का प्रदर्शन कर रहे थे, हमें ललचा रहे थे, हम मोल-भाव करें, कुछ खरीदें। चाय-चटपटे से लेकर कीमती केशर और जवहराती-जेवर तक सभी विक्रय हेतु उपलब्ध थे। 'या-हू' की मुद्रा में युवा एवं कश्मीरी वेशभूषा में छुई-मुई सी युवतियां झील में, शिकारे पर बिताये उन अविस्मरणीय पलों को कैमरों में कैद करा रहे थे। शिकारे पर झील में अतराता पोस्ट-ऑफिस भी हमारे आकर्षण का केन्द्र रहा। काश्मीर के कारीगरों, दस्तकारों, लघु व कुटीर उद्योग संचालकों, कृषकों को उनके उत्पादों का घर-बैठे उचित मूल्य मिले, बिना बिचौलियों की मदद के, यह सोचकर डल झील में तैरते बाजार की कल्पना की गई। यहाँ सैलानी/शौकिया लोग झील में घूमने का आनन्द लेते हुये रोजमर्रा की खरीददारी करते हैं, यानि आम के आम, गुठलियों के दाम। सोना झील से नागिन झील तक घूमने में अँधेरा गहराने लगा। हाउसबोटों पर जगमगाती रंग-बिरंगी विद्युत लड़ियों के प्रतिबिम्ब से झील का सौन्दर्य दुगुना हो गया था।
हम घाट की ओऱ आ रहे थे। हमारा नाव-चालक हमें बता रहा था कि ठण्ड में झील जम जाती है, एक सपाट मैदान, एक स्टेडियम की तरह। और, तब यहाँ के जुझारू लोग और उनके परिजन देवदार की लकड़ियों पर नक्काशी कर सुन्दर कलाकृतियाँ बनाते हैं। रेशमी कपड़ों पर बेलबूटे काढते हैं, एक अंगूठी से पार हो सकने वाला पश्मीना शॉल बुनते हैं। भारत-पाक सीमा पर आये दिन होती गोलाबारी और आतंक के साये में जीवन यापन करते लोगों की सर्जनात्मक-सामर्थ्य को  साधुवाद!

शिकारे से उतरते ही ख्याल आया कि यदि जम्मू के ट्रैवल-एजेंट की सलाह मान हम वहीं से वापिस लौट गये होते तो.......तो, ऐसी परानुभूतियाँ कैसे होतीं? तो, खुली ऑखों में स्वर्ग का अनावृत सौन्दर्य कैसे बसता? लेकिन, अभी दिल भरा नहीं। घूमने को बहुत बाकी रहा। मन ही मन संकल्प लिया कि बाबा अमरनाथ के दर्शनों को यहीं से जाना पड़ता है। यदि, उनकी कृपा रही, बुलाबा आया तो एक बार फिर इस शहर की श्री-सम्पदा देखने की चाह रहेगी, विशेषकर सोनमर्ग और पहलगांव।
हम कल जबलपुर लौटेगें, कुछ दिन यात्रा के खट्टे-मीठे अनुभव शेयर करेंगे, फिर अपने राग में लग जायेंगे, लेकिन इन वादियों में गूंजतीं सूफी-सदाये बहुत देर तक और दूर तक, हमें सुनाई देंगी-
                                                     गर फ़िरदौस, रहें जमीं अस्तो 
                            हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो।