रविवार, 25 मार्च 2018

नर्मदा यात्रा- डंडौरी की राह


नर्मदा, हिमालय से भी प्राचीन है. यानी गंगावतरण के पहले से वे अस्तित्व में हैं. यह सत्य और तथ्य जानकर हमारा नर्मदा व्रती दल आत्म विभोर हो गया और यू-ट्यूब पर खोजी बमबुलिया श्रध्दा भाव से गाने लगा. शहपुरा में हम चाय पीने रूके, तभी सड़क किनारे खड़े कुछ आदिवासी युवक-युवती हमारे नजदीक गये. हाल-चाल पूछने पर जाना कि वे ग्राम मोहनी (निवास) के निवासी है और उस डांस ग्रुप के सदस्य हैं जिसे हम अखिल भारतीय साहित्य परिषद के राष्ट्रीय अधिवेशन में 7 अक्टूबर 2017 को जबलपुर ले गए थे. स्मृति पटल पर उस दल द्वारा किये करमा, झूमरा और लहकी नृत्य के दृश्य एक एक कर उभरने लगे. गौडी नृत्यों की उन मनोहर प्रस्तुतियों को जबलपुर वासियो के साथ देश के विभिन्न प्रदेशों से आये 650 मूर्धन्य साहित्य कारों ने जी भरकर सराहा था. दलनायक सेवा मरावी ने बताया कि "अब उनके ग्रुप को बाहर-बाहर से आर्डर मिलने लगे हैं." उन लोक साधकों से मिलकर हमारी टोली अत्यंत प्रसन्न हुई, विशेषकर डा रजनी (इंदौर) और अनुमेघा (सागर) तो उन युवतियों से करमा के कुछ स्टेप्स सीखने लगी, संगीत और नृत्य में हम प्याला- हमनिवाला जो ठहरी. मीना, सौरभ और अलीशा ने तो उनका जीवन्त प्रदर्शन देखा है. सेवा मरावी और उनके साथियो को शुभकामनाये देकर हमने डिडौरी की राह पकड ली.

नर्मदा पर स्थित डिंडोरी का पुल 
'डॉडे' अर्थात खुले में बसने के कारण इसका नाम डंडौरी पड़ा, जो बाद में डिनडोरी हो गया. हम जोगी टिकरिया घाट पर रूके. यहाँ पाट लगभग 20 मीटर चौड़ा है. चट्टानी धरातल पर बहती नर्मदा में टखनों तक पानी रहा.
इस खंड यात्रा के पूर्व मित्र शरद अग्रवाल ने सुझाव दिया था कि 'घर से चलते समय एक टाइम का खाना तो साथ बांध लेना चाहिए.'  उसी पर अमल कर हम पूरी-सबजी बनाकर लाये थे, सो घाट पर बैठकर खाया. सामने स्कूल के अहाते में कोई 50 लोग सामूहिक खाना बना-खा रहा था, पता चला वे हंडिया से चले परिक्रमा वासी हैं जो निजी बस से चल रहे हैं. घाट पर एक पक्के कूड़ेदान की व्यवस्था रही,  जो स्वच्छ नर्मदा-स्वच्छ भारत मिशन का प्रशस्त प्रयास रहा.

वैसे, इस घाट से हमारा लगभग 38 वर्ष पूर्व का रिश्ता है, जब हम नर्मदा के किसी घाट पर पहली बार नहाये थे. उस समय जबलपुर से आयी एक मित्र की बारात का जनवासा इसी स्कूल का अहाते में था.
तटवासियो से चर्चानुसार, तब से स्थितियों में सुधार तो हुआ है, परन्तु अभी भी यहाँ के कुछ हिस्सों में वेवर की खेती होती है, अभी भी कुछ लोग लंगोटी लगाये लगभग दिगम्बर की स्थिति में मिल जाते हैं और अभी भी लोग लकडी काटने की आवश्यकता होने पर वे पहले वृक्ष से हाथ जोड़कर क्षमा मांगते हैं.
सचमुच! इस नर्मदामय जिले के प्राकृतिक सौंदर्य को देखकर तो यह यकीन करना ही पड़ता है कि भगवान ने अपनी सुन्दर संरचनाओं में से एक को अभी तक बचा रखा है वरना सभ्यता की दौड में आसपास के जिले तो कब के बिला गये?

नर्मदा घाट 
हम अखंड नर्मदाव्रती तो हैं नहीं, हम तो निकले हैं खंड-खंड में बिखरे माँ नर्मदा के अप्रतिम-सौन्दर्य का रसपान करने के लिए, उसके प्राकृतिक-वैभव का समग्र दर्शन करने के लिए. तब, तब उसको लांघने में, उसके परले पार जाने में संकोच क्यों? अब कपिल धारा को ही लें - वहाँ तक पहुंचकर, सिर्फ व्यू-पाइन्ट से निहारकर लौट आना तो बेमानी होगा. नर्मदा, यहाँ पर 50 फीट की ऊंचाई से पहली बार कूदी हैं. मानो मेकल से निकलते ही उसे पंख लग गए हों. हो सकता है, सतपुड़ा और विन्ध्य के मध्य की रमणीक वादियों, वहां बहती शीतल-मंद-सुगन्धित समीर और स्वच्छंद-वातावरण से वशीभूत वह अल्हड किशोरी कूदने-नाचने-गुनगुनाने को विवश हो गयी और रेवते इति रेवायानि उचक-उचक कर, उछल-उछल कर चलने के कारण उसे रेवानाम मिला हो और दूध समान श्वेत दृष्टिगोचर होने से उसकी इस गोताखोरी को कपिल यानि श्वेतधारा नाम मिला. कुछ लोग इसे कपिल मुनि के नाम से भी जोड़ते है. हमने इस प्रपात को दक्षिणी तट से देखा और वहां बने 20 फीट चौडे फुट-ब्रिज को पार कर उत्तरी तट से भी.

वैसे, दुर्गम चट्टानों से होकर प्रपात के निचले हिस्से तक तथा पीछे खोह में भी जाया जा सकता है. जहाँ झरने की उडती हुई जल फुहार और चट्टानों से टकराने पर उत्पन्न ध्वनि-प्रतिध्वनि हमें इन्द्रिय-सुख प्रदान करती है. दिन के दौरान सूर्य किरणों का बदलता प्रभाव तथा इसके आसपास के पेड़ों की छाया और चांदनी प्रकृति-प्रेमियों के लिए विस्मयकारी दृश्य उपस्थित करते हैं. वर्षा के मौसम में जब नदी अपने पूर्ण यौवन पर होती है तब इसके क्या कहने? बस! तब पानी का रंग धूसर हो जाता है. आज से लगभग 28 वर्ष पूर्व हमने अपने और मित्र मुदगल के परिजनों सहित नीचे तक जाकर प्रपात को देखा था और वहां नहाया भी था. वहीं से दूध धारा के लिए भी रास्ता जाता है, परन्तु मधु-मक्खियों के आतंक की सूचना तथा सूर्यास्त की संभावना को देखते हुए हमने नीचे जाना स्थगित कर दिया. कपिल धारा में नीचे चट्टान पर हाथ-हाथ भर लम्बे पैरों के निशान हैं. कहते हैं, वे कपिल मुनि के पांवों के हैं, जब उन्होंने यहाँ खड़े होकर नर्मदा के प्रवाह को रोकने का प्रयत्न किया था. वे यहाँ सामने आश्रम में रहते थे, जहाँ अपने प्रसिध्द सांख्य शास्त्रकी रचना की थी.

कपिलधारा के रास्ते में छोटे-बड़े कई आश्रम हैं. यहाँ के प्रसिध्द शिवरात्रि-मेले के लिए साधु-संत-महात्मा अभी से धूनी रमा कर बैठे है. मध्य प्रदेश इको पर्यटन विकास बोर्ड द्वारा संचालित ट्रेकिंग रूट भी यहाँ आकर्षण का केंद्र है. कुछ जड़ी-बूटियां की दुकानें भी दिखीं, जो ज्यादातर स्थानीय लोगों द्वारा संचालित रहीं. एक ऐसी ही दुकान पर एक बाबाजी को बैठे देख कौतुहलवश हमने किसी आयुर्वेदिक दवाई के सम्बन्ध में पूछ लिया. उन्होंने मुस्कराकर उत्तर दिया - ‘दुकानदार ऊपर गया’. हम लोग ऊपर आसमान की तरफ देखने लगे और पूछा कि क्या वह वापिस आएगा? बाबाजी बोले - ‘बेटा! जहाँ तुम देख रहे हो, वहां से कोई वापिस नहीं आता, परन्तु वह देखो, दुकानदार पीछे पहाड़ी से उतरकर रहा है’. बाबाजी के सामान्य से उत्तर ने हमें जीवन का दर्शन समझा कर मौन करा दिया. हमें कुछ खरीदना तो था नहीं, फिर भी दुकानदार के आने पर हम लोगों ने अपना सामान्य ज्ञान अवश्य बढ़ाया. उसके पास गुलबकावली के अर्क(नेत्र रोग की अचूक दवा) के अलावा शतावर, ब्राम्ही, काली-मुसल, अडूसा, आंवला, जंगली अदरक, जटामासी, बहेड़ा, धतुरा, लाजवंती, आमी हल्दी, जटाशंकरी, नागकेसर, मुलेटी, सफेद-मुसली, हडजोड, गोखरू, गोरखमुंडी, नागरमोथा, शंखपुष्पी, भरामासी, जवाखार इत्यादि वनौषधियाँ उपलब्ध रहीं जो गंभीर और असाध्य रोगों के लिए संजीवनी बूटी की तरह हैं. आश्चर्य की बात तो यह थी कि वे सारी-की-सारी दुर्लभ औषधियाँ यहीं प्राप्त होती हैं, इसी मेकल पर्वत पर, यहीं माई की बगिया में.