सोमवार, 21 अगस्त 2017

अरे! यह चिट्ठी तो मेरे नाम है

शेष कुशल है’- श्री सुरेश तन्मय का चौथा काव्य-संग्रह है. वे नागझिरी, पश्चिमी निमाड़ के मूल निवासी हैं, नौकरी के सिलसिले में भोपाल रहे; सम्प्रति जबलपुर में सृजन-रत हैं. समीक्षित कृति में १९ छंद-मुक्त गीत संकलित हैं, जिनमें से एक गाँव से बड़े भाई की चिट्ठीपर यहाँ सविस्तार चर्चा की जा रही है.

गाँव से बड़े भाई की चिट्ठीएक अतुकांत गीत है. इसमें सुरेश तन्मय की सरल-तरल भावनाओं की सुस्पष्ट अभिव्यक्ति है - सादगी से, सीधे-सादे शब्दों में. वैसे तो गीतकार लिखता है कि गाँव छोड़े ४६ वर्ष से अधिक हो गए हैं और उसे अपने गाँव की, घर की, घर के लोगों की याद आती है, स्वाभाविकतः गाँव और घर को अपने नगीना’ (छोटू) की याद आती होगी कितनी? कैसे? कब? इन्हीं मूर्त एवम् अमूर्त भावनाओं का उव्देलन और प्रकटीकरण इस लम्बे गीत को जन्म देता है.
    
चिट्ठी, पत्र या पाती अभिव्यक्ति का एक ऐसा सशक्त माध्यम है जो मन की गांठें खोलती है, अपनों से अपनी-बात कहती है वे जो उसे कहना चाहिए और वे जो उसे नहीं कहना चाहिए. बकौल गीतकार — “चिट्ठी लिखनेवाले और पढनेवाले दोनों की समझ जब एक हो जाती है, तब अंतर्मन की पीडायें खुलकर मुखरित होती है.यह अलग बात है, कि अब चिट्ठी-पत्री लिखना आउट ऑफ़ डेट हो गया. मोबाईल और उससे भी एक कदम आगे, भावहीन-व्हाटएप और आभाहीन फेसबुक ने पत्र-लेखन की सनातनी-परंपरा को समाप्त कर दिया है.

तन्मय जी एक सुशिक्षित-सुसंस्कारी परिवार से हैं. उन्हें रिश्तों का मूल्य मालूम है. उनके अनुसार अपनत्व और आत्मीयता से भरे गाँव के रिश्ते, रिश्ते होते है.सगे रिश्तों से मजबूत.और फिर यदि उनमें अंतरंगता हो तो, सोने पर सुहागा -भाई तू बेटा भी तू ही’. ऐसे में रामादाजी, नानू-नाई, फूलमती, चम्पाबाई, शिवदानी, अंसारी चाचा, रघुनंदन के बड़े पिताजी, केशव पंडित, बड़े डिसूजा, कोने की बूढी अम्माजी, दूर के रिश्ते की लगती सुमन बुआ, मंजी दाजी और छोटे के बचपन का मित्र राजाराम - ये सभी अपने और सिर्फ अपने ही रहे होंगे और उनके हर्ष-विषाद, उनके मिलन-विछोह अपने निजी नफा-नुकसान.

एक सामान्य ग्राम्य-जन की तरह रचनाकार की भी झाड-फूंक, टोने-टोटके, गंडा-तावीज, पूजा-पाठ, पंडा-पुजारी में अटूट-आस्था है. वह भी किसी दुर्घटना, अनिष्ट या अनहोनी की आशंका में इन्हीं का आसरा लेता है -

मन्नत किसी देव की/ कोई अधूरी हो तो
विधि विधान से उसे/ शीघ्र पूरी करवाना.

गीतकार जहाँ पारिवारिक-परिवेश के प्रति सजग नजर आता है, वहीं अपने सामाजिक दायित्व-बोध के प्रति भी पूर्णतया जागरूक है. एक मुखिया के नाते (मुखिया मुख सों चाहिए) परिवार को एकजुट रखना, तदानुकूल कुछ कठोर निर्णय लेना और अपने हिस्से का दर्द पीना - उसका जेठापन या बडप्पन कहा जा सकता है

समय लगेगा/ हो जाऊंगा ठीक/ नहीं तुम चिंता करना/
सहते सहते दर्द/ हो गयी है आदत अब जीने की.

बड़े भाई की पत्री में गीतकार यह तो चाहता है कि संयुक्त परिवार टूटे. परन्तु यह भी मान चाहता है कि छोटे, लाड़ी और छुटकू के साथ गाँव आये, जो कि वह कर सकता है; साधन सम्पन्न है, उसके पास एक अदद कार है और इसलिए, अपनी और अन्य-परिजनों के पाने की मज़बूरी जताता है-

धरा आकाश के जैसे/यह दूरी है.

इस सन्दर्भ से साम्य रखता चंद्रसेन विराट के मधुर-गीत का मुखड़ा उल्लेखनीय है -गज भर की दूरी भी सौ जोजन की हो जाती है”. हम भी यही चाहते हैं कि समाज की सबसे छोटी इकाई कुटुंबया परिवारका अस्तित्व बना रहे, “गज भर की दूरीमिटे, पहल कोई भी करे - छोटेया बड़े’.

गीतकार ने बड़े भाई की चिट्ठी में गाँव के घरों की छप्पर-छानी, वहां व्याप्त बंदरों का आतंक, मूलभूत स्वास्थ्य-सुविधाओं का अभाव, खुद एवम् पत्नी की बीमार स्थिति, गाय का मरा बछड़ा पैदा होना, गाय के लात मारने से लगी चोट, बंद पड़ा हैण्डपंप, गाँव के पास भरा नवगृह का मेला, बैलों का बाजार और सामूहिक शादी-सम्मेलन सभी की मौलिक चर्चा की है. एक बात गौर करने लायक अवश्य है कि अपने गाँव की दिशा और गाँव वालों की दशा बखानते कवि का स्वर अमिधात्मक नहीं रहता बल्कि वह कभी लक्षणा में बात करता है तो कभी व्यंजनायें कसता दिखाई देता है-

बड़े वुजुर्गों ने/ पहले से ठीक कहा है/ आगे आने वाला समय/ विकट आएगा/
अचरज होगा देख के/ भेदभाव की वारिश/ ऐसी होगी/ सींग बैल का केवल/
एक गीला होगा/ और एक सींग उसका/ सूखा रह जायेगा.

मंजी दाजी की मोटर जब्ती और सिंचाई के अभाव में उनकी सूखती फसल को देखकर रचनाकार एकदम भड़क उठता है और कहता है

किस्मत में किसान की/ बिन पानी के बादल/ रहते छाए.

वहीं वर्तमान-व्यवस्था पर किया गया व्यंग कुछ-अलग ही रंग बिखेरता है-

पञ्च और सरपंच/ स्वयं को जिला कलेक्टर/ लगे समझने/ पंचायत का सचिव अंगूठे लेकर इनके/ इन्हें दिखता रहता/ हरदम सुन्दर सपने.

यहाँ अंगूठे लेकरका प्रशस्य-प्रयोग किया गया है जो यह दर्शाता है कि कवि की प्रतीकों, रूपकों और बिम्बों पर अच्छी पकड़ है. हाँ! बाकी रही ग्राम्य-अराजकता की बात, यह तो गीतकार ने स्वयं स्पष्ट किया है कि लोग सिर्फ उपलब्धियों का आकलन करते हैं, जिम्मेदारियों का नहीं. बन्दर-बाँट और अपनी-अपनी जुगत भिडाते छुटभैया नेताओं के कारण योजनाओं का लाभ आम ग्रामीण-जनों तक नहीं पहुंच पाता. ऐसा भी नहीं  है कि सभी शासकीय योजनायें अलाभकारी हैं-

वैसे शासन के पैसों से/ अच्छे भी कुछ काम हुए हैं/ कच्ची गलियां और रास्ते/ कियेपत्थरों से पक्के हैं/ और नालियाँ/ गंदे पानी की/ जो बहती इधर उधर थीं/ वे भी सब हो गयीं व्यवस्थित/ अब गलियों में पहले जैसा/ नहीं अँधेरा फैला रहता/ बिजली के रहने से अब तो/ चारों ओर उजाला रहता.

फिर भी, कृषि और कुटीर-उद्योगों के प्रति उदासीनता, कर्ज में डूबता-मरता किसान तथा कस्बाई चकाचौंध से भ्रमित-पलायित ग्राम्य-युवा, ये, कुछ भयावह तस्वीरें हैं; उस निमाड़ की, जिसकी डग डग रोटीजग-जाहिर है. मौजूदा हालत में ये स्थानीय चिंता के विषय हैं और राष्ट्रीय-चिंतन के भी.

शहरी-परिवेश में रहते हुए भी गीतकार की जड़ें गाँव और ग्रामीण-संस्कृति से जुड़ीं हैं. भांजी की शादी में पिन्हावनी के कपडे ले जाना, बधावे में शकर-बतासे बांटना यह प्रदर्शित करता है कि उसे अपने संस्कारों का बखूबी ज्ञान है. वह अपने अभावों, अपेक्षाओं और संवेदनाओं को भी बहुत सहजता से व्यक्त कर देता है. उसे, ‘छोटेके शहर में कोठी बनवाने और कार खरीदने पर आत्मीय ख़ुशी है, वह, उसकी तरक्की और यशनाम के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता है, वहीं दूसरी ओर पत्नी के इलाज के लिए थोडी मदद करने और एक बार कार लेकर गाँव आने और लोगों को दिखाने का भी इच्छा रखता है.

गीत की उत्तर-यात्रा में गीतकार दर्शन की ओर मुड़ा दिखाई देता है. जीवन का यह अटल सत्य, सभी को जाना हैमानते हुए गाता है

सत्तर पार कर लिया/इस अषाढ़ में/और हो गई पैंसठ की/तेरी भाभी/इस कुंवार में/
लगा हुआ नंबर आगे/विधना ने जो बना रखीं हैं/मुक्तिधाम की कतारें.

तन्मय जी का शब्द-सामर्थ्य सराहनीय है. उन्होंने सरल तत्सम शब्दों से भाषा का श्रंगार किया है. जहां, मधु-गुन्जन, कुशल क्षेम, यश नाम, सेवानिवृत का साभिप्राय प्रयोग पत्र-गीत में विपुलता एवम् प्राणवत्ता का संचार करता है वहीं पूर्ण-पुनरुक्त-पदावली (सहते-सहते, बेच-बेच, थोडा-थोडा, पैसा-पैसा), अपूर्ण-पुनरुक्त-पदावली (रहन-सहन, टूटी-फूटी, ठीक-ठाक, मोड़-माड़) तथा सहयोगी-शब्द (खेती-बाडी, खून-पसीना, नीम-हकीम) के प्रयोग से भाषा में विशेष लयात्मकता आभासित हुई है. वैसे, इस चिट्ठी में निमाड़ी-मिट्टी का सोंधापन कुछ कम है (खासकर तब, जबकि कवि की प्रथम काव्य-कृति प्यासो पनघटनिमाड़ी में ही है). वहीँ, परिवेशानुगत मुक्ति-धाम की कतारेंका इतर-प्रयोग अटपटा-सा लगता है.

अंत में, यह अवश्य कहा जा सकता है कि ग्राम्य-जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं, जो इससे अछूता रहा हो. इसे पढ़कर यूँ लगता है कि- अरे! यह चिट्ठी तो मेरे नाम है’. और, यही अहसास इस गीत-कृति की सफलता है.  
(समीक्षित कृति - शेष कुशल है/ कवि - श्री सुरेश तन्मय/ प्रकाशकभेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल/मूल्य ६० रूपये)