प्री-इस्लामिक अरब में ग़ज़ल का अस्तित्व नहीं मिलता। दसवीं सदी के आसपास वहाँ प्रचलित ‘परशियन
कशीदो’ को ग़ज़ल का जन्मदाता माना गया। मध्यकाल में अमीर ख़ुसरो (१२३५-१३२५)
ने—
सखी पिया को जो मैं न देखूँ
तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ।
किसे पड़ी है कि जो सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियाँ।
जैसी ग़ज़लों को गाते हुए ‘हिंदी’ एवम् ‘हिन्दुस्तान’ में प्रवेश
किया।
उर्दू
में ग़ज़ल-उर्दू में काव्य की प्रचलित विधाओं
में ग़ज़ल को ‘दिव्यास्त्र’ माना गया है। अरबी-फारसी के छंद-विधान, भाव-सम्पदा और विचार-दृष्टि की छाया में फूली-फली
ग़ज़ल ‘उर्दू ग़ज़ल’ या ‘परंपरागत ग़ज़ल’ कहलाती है। अपने जन्म से लेकर अब तक इसमें सबसे ज्यादा प्रयोग तथा परिवर्तन हुए। बाबजूद इसके, वह
आज भी जीवंत है और उसकी लोकप्रियता किसी भी प्रकार कम नहीं हुई है।
उर्दू ग़ज़लों का केन्द्रीय भाव ‘प्रेम’ होता है। उसमें एक मतला होता है, एक मक्ता होता
है और इनके बीच में पांच से बारह तक अशआर (शे`र का बहुबचन) होते हैं। रदीफ़ और काफिये (तुकांत) के बिना ग़ज़ल
की बुनाबट सम्भव नहीं और तखल्लुस (उपनाम), वह तो शायर को अदब की दुनिया में नाम और पहिचान दोंनों दिलवाता
है। एक अनिवार्यता अवश्य है,
ग़ज़ल के सभी शे`र हमवजन, अर्थात एक ही बहर में होना चाहिए। एक शे`र दूसरे से स्वतन्त्र हो सकता है। हाँ ! जब ग़ज़ल के सभी अशआर में एक ही भाव शुरू से आखिर तक चलता गया हो, उसे ‘मुसलसल
ग़ज़ल’ कहते हैं। बहादुर शाह
जफ़र की तीन अशआर की मुसलसल ग़ज़ल इस प्रकार है
नहीं हाले-देलही सुनाने के काबिल
ये किस्सा है रोने रुलाने के काबिल।
उजाड़े लुटेरों ने वो कस्र इसके
जो थे देखने दिखाने के काबिल।
न घर है, न दर है, रहा इक ‘जफ़र’ है
फ़कत हाले देलही सुनाने के काबिल।
उल्लेखनीय है कि इक़बाल, वाली, आतिश, मीर, ग़ालिब, मोमिन,
जौक, दर्द, दाग, अल्ताफहुसैनअली, जिगर मुरादाबादी, फ़िराक, मजरुह सुल्तानपुरी, अख्तर,
कमर जलालाबादी, साहिर लुधियानवी और साज जबलपुरी आदि शायरों ने उर्दू ग़ज़ल को
सामाजिक सरोकारों से जोड़ा। ‘मलिका-ए-ग़ज़ल’ बेगम अख्तर (2014, उनका जन्म शताब्दी वर्ष है) ने मंच,
मुशायरों एवम फिल्मों में ग़ालिब, मीर, मोमिन, जौक, फ़िराक, फैज अहमद फैज आदि-आदि
ग़ज़लकारों की गज़लें गाकर जनप्रचारित की; और बाकायदा ‘गंडा बांधकर’
ग़ज़ल-गायिकी के क्षेत्र में शिष्य-परम्परा प्रारंभ की। शकील बदायूँनी की ग़ज़ल, ‘ऐ
मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’ बेगम अख्तर की गायिकी का एक हद तक पर्याय ही
बन गयी थी।
हिन्दी में ग़ज़ल-हिन्दी में ग़ज़ल के तीन प्रचलित स्वरूप हैं-
१—क्लासिकल
(शास्त्रीय) ग़ज़ल-ऐसी ग़ज़ल, जो परम्परागत बहर (उर्दू
छन्द-विधान के अनुसार) या उससे मिलते-जुलते हिन्दी के वर्णिक छंद पर आधारित हो, मीटर
में कसा एक मतला (गज़लोदय) हो, भिन्न-भिन्न भाव-भूमियों पर कहे पांच-सात अशआर (शे`र)
हों, और अंत में चमत्कृत कर देने वाला मक्ता (ग़ज़ल-इति) हो। संगीत की स्वर लहरियों पर
थिरकते काफिये हों। तखल्लुस (नाम
की छाप) हो तो ठीक, न हो तो भी ठीक। महाभाव
प्रेम-सौन्दर्य या अध्यात्म से सराबोर। परंपरागत प्रतीक यथा, हुस्नो-शबाब, जामो-मीना, महबूब-माशूका इत्यादि इत्यादि
का प्रयोग। अरबी-फारसी के
भारी-भरकम शब्द या संस्कृत की तत्सम शब्दावलियाँ। निराला की पूर्ववर्ती पीढ़ी में शम्भुनाथ ‘शेष’, रूपनारायण त्रिपाठी, रुद्र
काशिकेय, गुलाब, बलवीर सिंह ‘रंग’, शिशु, चिरंजीत और नर्मदा प्रसाद खरे के नाम
सम्मानित ग़ज़लकारों की सूची में हैं। उस समय की
अधिकांश गज़लें उर्दू के निकट थीं। दुष्यंत की
शुरुआती गज़लें कुछ ऐसी ही थीं-
कैस की लैला या फ़रहाद की शीरी कह दो,
हम नहीं राँझा, मगर हीर से बातें की
हैं।
‘रंग’ का रंग ज़माने ने बहुत देखा है,
क्या कभी आपने बलवीर से बातें की हैं।
(रंग
की ग़ज़ल का एक शे`र और मक्ता)
हमने जो चखी तो बुरी लगी
कडवी तुम्हें लगेगी, मगर एक जाम और।
(दुष्यंत
की ग़ज़ल का एक शे`र)
नीरज की गीतिकाओं में उर्दू की स्पष्ट छाप है। सूर्यभानु गुप्त, बालस्वरूप ‘राही’, शेरजंग गर्ग और
भवानीशंकर मालपानी भी उर्दू के सम्मोहन से नहीं बच पाये—
आदमी खुद को कभी यूँ भी सजा देता है,
रोशनी के लिए शोलों को हवा देता है।
(नीरज)
चंद्रसेन ‘विराट’ ने मुक्तिकाओं के माध्यम से ग़ज़ल का नया
अन्दाज काव्य-क्षेत्र में प्रस्तुत किया। उन्होंने उर्दू बहर से लयात्मक साम्य रखने वाले हिंदी के मात्रिक छंदों का
प्रयोग किया। उनकी
मुक्तिकाओं में उनकी ‘गीतात्मक आस्था’ विद्यमान है। देखिये एक 16 मात्रिक मुक्तिका, जो भावोदय से अंत तक एक ही भाव में लिखी गयी
है—
फिर पुष्पित वन्य पलाश पिया,
फागुन मांगे भुजपाश पिया।
वन-वन कूके कोयल प्रिय की,
उसको है तीव्र तलाश पिया।
तन थाप रहा उपले, मन
बुनता सपनों के पाश पिया।
सखियों के कंत सभी लौटे,
तुम भी आ जाते काश ! पिया।
2-मिश्रित
(खिचड़ी) ग़ज़ल-स्वतंत्रोतर भारत में ग़ज़ल (उर्दू/हिंदी)
कवि-सम्मेलनों/मुशायरों में खूब पसंद की गई। छोटे-छोटे शे`रों में अपनी बात कहती-सुनती ग़ज़ल जहाँ चाहे रुक जाती। मंच की दाद, श्रोताओं की वाह!-वाह!!, वन्स-मोर
की आवाजें, सीटियाँ, तालियाँ---------। रातों-रात गज़लकार बनने और प्रसिध्दि पाने के चक्कर में हिंदी के दिग्भ्रमित
युवा, अरबी- फारसी की बहरें सीखने लगे और गलत-सलत देवनागरी में गज़लें लिखने लगे। उन्हें न हिंदी का ठीक से ज्ञान रहा, न
बहर न मतला-मक्ता की पहिचान। बस ! काफिये मिलाकर ग़ज़ल का आकार गढ़ा जाता। ढ़ेरों गज़लें, अनगिनत गज़लकार, बहुत से
ग़ज़ल-संग्रह। यह वही समय
था, जब हिंदी कविता- ‘अकविता’, ‘छंद की वापिसी’ जैसे आंदोलनों से जूझ रही
थी। गज़लकार/कवि या ग़ज़ल- विशेष
को संदर्भित किये बिना यह कहना उचित होगा कि ये वे गज़लें थीं, जिन्हें उर्दू के
उस्तादों ने सिरे से नकारा, ‘वर्णसंकरी’ कहा, और तो और हिंदी के
प्रकाण्ड-पण्डितों ने ‘अरबी-फारसी से आयातित’ मानकर सौतेला व्यवहार किया। खैर, जब कोई विधा अधिक लिखी जाती है
तो ‘अति-वर्जयेत’– उसमें प्रदूषण आना स्वाभाविक है। धीरे-धीरे मैल (गन्दगी) छँट जाती है और स्तरीय लेखन शेष रह जाता है।
3-नव
ग़ज़ल-ग़ज़ल पर लगे आरोपों-प्रत्यारोपों के
बाद हिंदी कवियों ने अपने को सम्भाला। सर्व प्रथम उन्होंने अपने-आप को उन तथाकथित उस्तादों के मकडजाल से मुक्त किया,
जिनकी शागिर्दगी में उर्दू-अदब की आधी-अधूरी तालीम ले रहे थे। फिर हिंदी के वार्णिक एवम् मात्रिक
छन्दों का ग़ज़लों में विधिवत प्रयोग प्रारम्भ किया। आज रोला, सोरठा, सवैय्या, मदाक्रांता, गीतिका, हरिगीतिका, दोहा और हाइकू छंद
ग़ज़ल में बहु-प्रचलित हैं। साथ ही, इनकी
भाषा में एक मध्यम-मार्गीय सहजता दिखाई देती है। यानि इनमें जहाँ एक ओर तत्सम शब्दावली सम्पन्न भाषा को अस्वीकार किया, वहीं
ग़ज़ल के फारसीपन से भी अपना दामन छुड़ाया है। सत्यप्रकाश शर्मा की ग़ज़ल में आक्रोश और विद्रोह के स्वर ही नहीं, आशा और
विश्वास की अनुगूँज भी है और समत्व का अनुरागी भाव भी-
सबकी खुशियों की चाह करते हैं,
कौन सा हम गुनाह करते हैं।
किस तरह जाल को उड़ें लेकर,
कुछ परिन्दे सलाह करते हैं।
नये ज़माने के साथ विज्ञान व्रत, दीक्षित
दनकौरी, मिर्जा हसन नासिर, दरवेश भारती, आचार्य भगवत दुबे, भगवानदास जैन, अशोक
अंजुम, शिव ओम अम्बर, सागर मीरजापुरी, डॉ महेंद्र अग्रवाल आदि स्तरीय गज़लें गा रहे हैं।
उक्त चर्चा का सार यह है
कि उन्नीस अरेबिक बहरों के सांचे में ढली, उर्दू में कही ग़ज़ल ‘परम्परागत ग़ज़ल’ या
‘ग़ज़ल’ कहलाती है। जबकि इन्हीं
बहरों के छंदानुशासी तख्तीअ या उनके समतुल्य हिन्दी के वार्णिक व मात्रिक छन्दों
में गाई ग़ज़ल को ‘हिन्दी-ग़ज़ल’ कहते हैं। सायुज्य है कि दोनों की लिपि देवनागरी होती है। यह भी सर्व-सत्य है कि ग़ज़ल को ‘आम-आदमी’ तक पहुँचाने की पहल दुष्यन्त ने की थी। वे उर्दू-हिन्दी के सांप्रदायिक झमेले
में नहीं उलझे। दुष्यन्त ने
ग़ज़ल को ग़ज़ल ही माना, ’उर्दू- ग़ज़ल’ अथवा ‘हिन्दी-ग़ज़ल’ नहीं। बकौल दुष्यन्त— “मेरी नीयत और कोशिश यह रही कि इन दोनों भाषाओँ को ज्यादा
से ज्यादा निकट ला सकूँ। इसलिए ये
गज़लें उस भाषा में कही गई हैं, जिसे मैं बोलता हूँ-
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ,
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ।”
कमलेश्वर भी ग़ज़ल को ‘हिन्दी’ या ‘हिन्दू’ का
जामा नहीं पहनाना चाहते थे। शायद इसलिए, उन्होंने
उर्दू-हिन्दी के 100 से अधिक शायरों की श्रेष्ठ ग़ज़लें सम्पादित की और
संकलन-श्रंखला का नाम रखा ‘हिन्दुस्तानी गज़लें’। गोया इनका आकार भी हिन्दुस्तानी है और निधि भी हिन्दुस्तानी है। यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन मुंगेर के
अनिरुध्द सिन्हा का ख्याल है कि-“हमने ग़ज़ल का काव्य-रूप हिन्दी में अंगीकार
किया है,इसलिए ग़ज़ल के पहले ‘हिन्दी’ जोड़ना उचित होगा।” तब सोचना पड़ा कि ऐसा क्यों? अरे !
हमने अरब-फारस से आई संस्कृति और वहाँ के लोगों को ‘नीर-क्षीर’ सदृश स्वीकार कर
लिया है। उसे/उन्हें इस
देश में स्थापित होने के लिए कोई पृथक पहचान नहीं दी।
देखा जावे तो दुष्यन्त के पूर्व उर्दू ग़ज़ल-हिन्दी ग़ज़ल जैसा
कोई विवाद नहीं था। 1976 में
कमलेश्वर व्दारा सम्पादित ‘सारिका’ के ‘दुष्यन्त स्मृति विशेषांक’
ने हिन्दी ग़ज़ल के पक्ष में पाठकों-प्रशंसकों का एक बड़ा वर्ग तैयार कर दिया, सामाजिक
सरोकारों से सम्बध्द ग़ज़लों से एक नये युग की सम्भावित शुरुआत ने कुछ कट्टरपंथियों
का हाजमा ख़राब कर दिया और उससे उत्पन्न असहज भाव ग़ज़ल एवम हिन्दी ग़ज़ल के मध्य
गहराती खाई का प्रमुख कारण बना। रसूल अहमद
‘सागर’ लिखते हैं कि “ग़ज़ल अरबी से फारसी,फारसी से हिन्दी तथा हिन्दी से उर्दू
में आयी”। लेकिन हिन्दी
में ग़ज़ल का वर्तमान स्वरुप परम्परागत (उर्दू) ग़ज़ल से सीधा प्रभावित दिखाई देता है। जैसे कि-
1.
ग़ज़ल के कारण उर्दू और
हिन्दी ‘दो सगी बहिनों’ जैसी नजदीक आईं.उर्दू की नफ़ासत और रूमानियत ने
काव्यकारों को प्रभावित किया, वहीं उर्दू की शब्दावलियाँ हिन्दी में आसानी से
आत्मसात कर ली गई।
2.
ग़ज़ल पढ़ने-लिखने के लिए
लोगों ने अरबी-फारसी और उर्दू सीखी। उर्दू ग़ज़लों
के चुनिन्दा दीवान हिन्दी में भाष्यांतरित किये/कराये गये, इस प्रकार हिन्दी के
साहित्यागार में श्री-वृध्दि हुई।
3.
ग़ज़ल की गहराई को समझने के
लिए लोगों ने सूफी विचारधारा का विशद अध्ययन किया।
4.
हिन्दी में उर्दू-अदब की
तरह इस्लाह (शागिर्द का अपनी काव्य-रचना दिखाने पर उस्ताद व्दारा उसमें किया गया
कलात्मक संशोधन/सुधार) की परम्परा की आवश्यकता महसूस की जा रही है। साज जबलपुरी (जबलपुर), चन्द्रसेन
‘विराट’ (इन्दौर), तथा स्वामी श्यामानंदन सरस्वती ‘रौशन’ (नई दिल्ली) ने अपनी
संथागत संगोष्ठियों के माध्यम से अनुज-ग़ज़लकारों को आदर्श ग़ज़ल के गुर सिखाने के
प्रशस्त-प्रयास किये। ‘साज’ और
‘रौशन’ अब इस दुनिया में नहीं रहे, परन्तु विराट की ग़ज़ल-पाठशाला बदस्तूर जारी है। दरवेश भारती (सम्पादक-ग़ज़ल के बहाने)
डॉ महेंद्र अग्रवाल (सम्पादक-नई ग़ज़ल) और भानुमित्र (सम्पादक-ग़ज़ल गरिमा) व्दारा भी
ग़ज़ल के पक्ष में स्तुत्य कार्य किये जा रहे हैं।
5.
हिन्दी काव्य में ग़ज़ल के
रूप में छंद की वापिसी हुई है, लय की वापिसी हुई है। कविता का सहज स्वीकार बढ़ा है। छंद मुक्त
कविता की ओर मुडती काव्यधारा ग़ज़ल विधा को पाकर आकृष्ट भी हुई और आश्वत भी।
6.
ग़ज़ल के शिल्प और कथ्य पर
केन्द्रित कवि अब नये प्रतीक, बिम्ब और मिथकों के माध्यम से हिन्दी काव्य में चमक
एवम् चुटीलापन लाने के प्रयास कर रहे हैं। यह ग़ज़ल का हिन्दी काव्यधारा पर विशिष्ट प्रभाव है।
न चाहते हुए भी उर्दू ग़ज़ल के कुछ विधागत दोष हिन्दी की
ग़ज़लों में पाये जा रहे हैं। जैसे कि-
अ)
उर्दू के छंद विधान में
जरुरत के अनुसार मात्रा घटाकर शब्दों,शब्दांशों और उनके समूहों को सही रुकन के वजन
में लाया जा सकता है।
आ) उर्दू गज़लों में ‘अलिफ़’ का काफिया ज्यादातर प्रयोग होता रहता है, ग़ालिब का ‘अन्दाजे-बयाँ’
कुछ इस तरह है-
दिल-ए- नादाँ तुझे हुआ क्या है,
आखिर इस दर्द की दवा क्या है।
इसमें हुआ, दवा बगैरह बगैरह में अलिफ़ का काफिया इस्तेमाल है। ऐसी ही दुष्यन्त ने एक ग़ज़ल कही-
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ
होगा,
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोका हुआ
होगा।
इसमें दुहरा, धोका इत्यादि में अलिफ़ के काफिये प्रयुक्त हैं।
वैसे, हिन्दी ग़ज़ल के विस्तृत प्रभा-मण्डल ने उर्दू ग़ज़ल को भी गहरे तक प्रभावित
किया और उस (उर्दू-ग़ज़ल) में कुछ आमूलचूल परिवर्तन दिखाई दिए; जैसे कि-
गज़लें अब ‘गजाल-चश्म’ (इम्प्लाइड अर्थ-मृगनयनियों से बातचीत) से हटकर
सामाजिक सरोकारों से जुड़ गयीं हैं। अब तो
राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानि क,ऐतिहासिक एवम् पौराणिक
विषयों पर गज़लें लिखीं जा रहीं हैं।
·
बड़े-बड़े शायरों की शायरी
देवनागरी में छप रही है। वे अब हिन्दी
में लिख रहे हैं। डा.बशीर बद्र
का एक दीवान है, ‘आस (वाणी प्रकाशन से प्रकाशित)-जिसका मशहूर शे`र
है---
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने
दो,
न जाने किस गली में जिन्दगी की शाम हो
जाये।
·
कवि-सम्मेलनों और
मुशायरों का ‘गंगा-जमुनी’ रूप अक्सर देखने को मिलता है। मुशायरों में शायर हिन्दी ग़ज़ल पढ़कर
वाह-वाही लुटते हैं। फिल्मों में
ग़ज़लों के अपने रंग और शेड्स हैं।
·
स्कूल एवम् स्नातक स्तर
के हिन्दी पाठ्यक्रम में रंग, नेपाली, बच्चन, दुष्यंत, नीरज और विराट जैसे ग़ज़लकार हैं। दुष्यंत की -‘हो गई है पीर पर्वत
सी पिघलनी चाहिए’ मध्यप्रदेश में कक्षा ११ के कोर्स में तथा विराट की-
‘करने वालों ने की होगी
पर अब कुरवानी कौन करे,
सत्ता छोड़ सड़क
पर आये यह नादानी कौन करे’।
(साहित्य-कलश/पृष्ठ129)
महाराष्ट्र के कालेज में पढाई जा रही सुप्रसिध्द गज़ल है। अलावा इसके, देश के विभिन्न-
विश्वविद्यालय चुनिन्दा ग़ज़लकारों और उनकी विविध-आयामी ग़ज़लों पर अति महत्त्वपूर्ण
शोध कार्य करा रहे हैं, यह ग़ज़ल के पक्ष में शुभ- संकेत है।
·
पड़ोसी देश पाकिस्तान में
दोहा-ग़ज़ल की अच्छी पूंछ-परख है। सहबा अख्तर की
एक दोहा ग़ज़ल का मतला इस प्रकार है
कब तो स्वयंवर दिन आयेगा, होगा अंत
वियोग,
सपनों की संजोगिता,तुझसे कब होगा
संजोग।
हाँ! वहाँ दोहा-छंद प्रयोग की अपनी सीमाएं भी हैं और स्वतंत्रता भी। तभी तो आचार्य भगवत दुबे कहते हैं-“परम्परागत बहरों से बाहर निकलने की छटपटाहट में
ग़ज़लदा ‘दोहा-ग़ज़ल’ का फार्मेट पाकर राहत की साँस ले रहे हैं।”
·
उर्दू ग़ज़ल में अब सादगी
को पसंद किया जाने लगा है। आम बोलचाल की
भाषा, उसमें देशज और क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग देखने मिलता है। अब साफ-सुथरी, धीर-गंभीर और नवीन
विचारों से युक्त समसामयिक गज़लें कही जा रही हैं।
·
ग़ज़ल में अब नये प्रयोगों
को मान्यता मिलने लगी है। मकता के नियम
शिथिल हो गये हैं। बेमकता गज़लें
भी मिल जाती हैं। मकता में
तख़ल्लुस मिलता है और बिना तख़ल्लुस की असंख्य गज़लें। शे`र कहने के लिए रदीफ़ बांछित माना जाता है, अनिवार्य नहीं। बेरदीफ अशआर भी प्रचलन हैं।
देर से ही सही, आज गज़लें कोठी-कोठे से उतरकर गली-कूंचों में
विचरण करती हुई ग्राम-चौपालों तक पहुँच चुकीं हैं। मानस की अर्धालियों, घाघ-भड्डरी की कहावतों और निर्गुनियों की साखियों के समान
ग़ज़लों के शे`र आमजन की कहन का हिस्सा बन रहे हैं। ग़ज़लों को अब न आधिकारिक-अनुशंसा की आवश्यकता है और न ‘फ़ारिगुल इस्लाह’ (एक
ऐसी अवस्था, जब शागिर्द को अपने उस्ताद से इस्लाह की जरुरत नहीं होती) की। वैसे, ग़ज़ल के
पक्ष में यदि कुछ करना ही है तो केवल इतना कि इस कोमल-विधा को भाषाई-सांप्रदायिकता
की लपटों में झुलसने से बचाया जावे।