शनिवार, 28 मार्च 2015

कुछ खट्टी-मीठी यादें

बनारस होते हुए काठमांडू की यात्रा की। पशुपति-नाथ, स्वयंभू-नाथ और गोरखनाथ के दर्शन कर वहां की ‘एस्क्लेतेड लाइफ स्टाइल’ (एक पायदान पर खड़े होकर मंजिल तक पहुंचना) का अध्ययन किया। पांच सितारा होटल, सजे-धजे केशिनो, टेक्सी में चलती दुनिया की बेहतरीन कारें, इलेक्ट्रिक बस रूट, खुबसूरत बाज़ार, रायल पैलेस, साँस्कृतिक विरासत भक्तपुर स्मृति-पटल पर आज भी चलचित्र की भांति दिखाई देते हैं।

हमारी यात्रा का अगला पड़ाव पोखरा था। पोखरा, काठमांडू से 200 किलोमीटर दूर पर्वतराज हिमालय की गोद में समुद्र-सतह से 900 मीटर ऊपर स्थित सुरम्य पयर्टन-स्थल है। यह रास्ता हमलोगों {मैं, मीना (पत्नी), सौरभ, ऋषि, अबीर (पुत्र), वीरेन्द्र (भतीजा)} ने बस द्वारा तय किया। रास्ता पहाड़ी एवम दुर्गम था। संकेत-सूचक विहीन घुमावदार रास्तों पर बस चलाने में चालक अभ्यत था। पहाड़ों पर झुलेदार पध्दति से खेती, मृदा-संरक्षण के लिए बनाये गये स्टेप्स और रहवासी मकान (सामान्यतः कच्चे दुछत्ती, ऊपर का हिस्सा लकड़ी से तथा छत घास, टिन या कवेलू युक्त-समुचित ढाल के साथ) मनुष्य का प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर रहा था। बस की खिड़की के करीब बैठकर सुदूर बर्फ से आच्छादित हिमगिरी की चोटियों का सुन्दर दृश्य कवि की कल्पना सा प्रतीत हो रहा था। बर्फीली हवाओं के थपेड़े चेहरे से टकराकर झुरझुरी सी पैदा कर रहे थे। मन अत्यन्त उमंग से भर उठा था। निश्चय हीयह यात्रा जीवन की बिरली यात्राओं में से एक थी।

पोखरा में हम होटल डायमण्ड में रुके। होटल की छत से 4.5 वर्ग किलोमीटर में फैली प्रसिध्द फेवा झील तथा हिमालय का ऊँचा कंगुरा फिश-टेल का सुन्दर नज़ारा दिखाई देता था।  हमने प्रकृति के सुन्दरतम स्वरूप को नमन किया। शाम को झील में  नौका-विहार कियाझील के मध्य से अन्नपूर्णा के ललामी हिम-शिखर स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे। क्षितिज की मध्दिम रोशनी में फेवा झील, उसमें पड़ती पहाड़ों की प्रतिच्छाया, झील को घेरे वन और टापू पर बने बहराई देवी मंदिर का दृश्य रमणीय लगे। बीच-बीच में कुछ जल-जन्तु ऊपर सतह पर आकर झांकते नज़र आते, ठीक वैसेघर में आये अपरिचितों को देख छोटे बच्चे दरवाजे या परदे की ओट में छिपकर देखते हैं, और पहचान बनाने तथा घर में अपना अस्तित्व जतलाने का प्रयास करते हैं। इसी बीच एक ऐसी घटना घटी, जिसने हम सभी को विचलित कर दिया। हुआ यह, सौरभ ने झील में बहती एक जलकुम्भी पकड़ी- उसमें मछुआरों द्वारा डाला गया जाल बंधा था- जिससे नाव उलझ गयी।  नाविक के चेहरे पर उभरी चिंता की लकीरें परिस्थिति की गंभीरता को स्पष्ट कर रहीं थीं। अनुभवी नौचालक ने हमें सुरक्षित किनारे तक पहुंचा दिया। थैंक्स गॉड! बाल-बाल बचे।

झील पर टहलते समय एक बंगभाषी परिवार मिला। कोलकाता से आकर उन्होंने अपनी पोखरा से प्रारम्भ की थी। बातचीत से निजता बढ़ी। परदेश में अपनों की आत्मीयता और मृदुल व्यवहार से हम अभिभूत हुए। “पोखरा भ्रमण कैसे करें?” ‘काठमांडू का कार्यक्रम कैसे बनायें?’ इत्यादि आदान-प्रदान हुआ।

रात्रि–भोज के बाद सुपर-मार्केट की सड़कों पर चहलकदमी की और अगली सुबह के लिए टेक्सी तय की। मोलभाव के बाद होटल द्वारा नियत दर से आधे में टेक्सी मिल गई। टेक्सी चालक ने बताया कि होटल के माध्यम से बुलाने पर उसे तो उतना ही मिलता। “सुबह 5:30 बजे होटल पर टेक्सी पहुँच जाएगी”- टेक्सी ड्राइवर ने आश्वत किया। दिन भर की थकान, खट्टे-मीठे अनुभव एवम मनोरंजन की चर्चा करते हुए योजना बनी कि सुबह ज्यादा ठण्ड होने से ऋषि और अबीर को सोने दिया जायेगा। सन राइज के बाद शेष भ्रमण में वे साथ रहेंगे।

अगली सुबह, 4:30 बजे—तापमान 4 ड्रिग्री के आसपास। एक झटके के साथ ऋषि और अबीर उठकर बैठ गये। लगा, वे रात भर सोये नहीं! वे हमसे पहले तैयार हो गये। ठीक 5:30 बजे। होटल कंपाउंड में किसी गाड़ी के रुकने की आवाज आई। छत से झांक कर देखा तो- “गुड मार्निग! गाड़ी आ गया, साब”। सुनाई दिया। अपने आप को सहेजते हुए हम लोग टेक्सी में बैठ गये।

लगभग रात ही थी। जब टेक्सी सुनसान रास्ते से गुजरती तो कुत्ते भौंकने लगते। परन्तु एक उमंग, एक कौतुहल। 2000 फीट की सीधी चढ़ाई के बाद हम लोग 6:25 बजे उस स्थान पर पहुंचे, जहाँ से सूर्योदय देखना था। टेक्सी से उतरते ही एक ग्यारह-बारह वर्ष का नेपाली लड़का आया और बोला—“गाइड चाहिए”? “क्या बतलायेगा”? पूछने पर उत्तर मिला-‘हिमालय की चोटियाँ दिखाऊंगा, वन हंड्रेड आई सी लगेगा’—मेरे “टेन रुपीज एन सी” बोलने पर वह पीछे पड़ गया। पचास, चालीस करते-करते वह बीस रुपया आई सी तक आ गया। हम लोग ‘पोखरा वियु प्वाइंट’ के नजदीक थे। अपनी दाल न गलते देख उसने ऊपर से आ रहे एक हमउम्र को ‘बीस रुपया आई सी’ कहते हुए वापिसी ली। ऐसा लगा जैसे कोई ठगराज हमारा पीछा कर रहा था, उसकी सीमा समाप्त होने पर उसने अपना शिकार आगे वाले को सौंप दिया। हम लोग हंसे बिना न रह सके।

बीती रात आसमान साफ था, अतः हिमगिरी का रजत-सौन्दर्य सहज दिखाई दे रहा था। कडकडाती सर्दी के बाद भी बहुत से सैलानी- सभी अपने कैमरे, वीडियो, दूरबीन तैयार कर भुवन-भास्कर की अगवानी में खड़े थे। एकाएक याद आई अन्जिलो सिकेलियानो की कविता-
सूर्योदय रुका हुआ है।
सूरज को मुक्त करो
ताकि संसार में प्रकाश हो
देखो उसके रथ का चक्र कीचड़ में फंस गया है
आगे बढ़ो साथियों
सूरज के लिए यह सम्भव नहीं,
कि वह अकेला उदित हो।

6 बजकर 40 मिनिट पर मुर्गे की बांग सुनाई दी और पूर्व दिशा से पौ फटने लगी। अचरज हुआ! सूर्योदय का इतना सटीक समय, इस प्राणी ने किस घडी से मिलाया? प्राची में सूर्य की एक हलकी सी झलक के साथ सैकड़ों फ्लेश चमकने लगीं। स्वस्थ, तरोताजा, आबनूस सा दमकता सूर्य ऊपर आ रहा था।

प्रकृति–प्रेमियों ने इसे अपना एहलौकिक सुख माना जबकि धर्म–प्रियजन इस ईश्वरत्व को स्वीकार प्रातः-वंदना करने लगे। उदयाचल में सूर्य का स्वरूप सामने आते –आते अरुणिमा और ऊष्मा का संचार होने लगा, साथ ही सुदूर उत्तर में अवस्थित धौलगिरी, फिशटेल और अन्नपूर्णा के शिखरों पर लदी बर्फ का रंग सुनहरा होने लगा। हिमराशी के दुग्ध –धवल सौन्दर्य में सुनहली आभा का दृश्यावलोकन ही इस वियु प्वाइंट का आकर्षण है। हम सभी प्रकृति का इतना सहज एवम लुभावना परिवर्तन देखकर मन्त्र–मुग्ध से खड़े रहते, यदि सह–सैलानी की तेज आवाज ध्यान–भग्न न करती; वे किसी पर नाराज हो रहे थे– “तुम्हें तो ठीक से पर्वत-शिखरों के नाम नहीं मालूम, फिर बीस रुपया किस बात का दूँ”। मैंने देखा यह वही बालक है, जिसने हम लोगों को अपने हमजोली के हाथ ‘बीस रुपया आई सी’ कहते हुए सौंपा था। बालक होशियार था, सफल गाइड के गुण पालने में ही दिख रहे थे।

हम दीप्तिमान दृश्यावलियों को हृदयंगम कर वापिस लौटे। चाय–नाश्ता के बाद पोखरा के अन्य दर्शनीय स्थल-विंध्यवासिनी देवी का मंदिर, महेंद्र गुफा, सेती गार्ज, देवी फाल तथा नेचुरल म्यूजियम देखे। रात्रि में नेपाली सांस्कृतिक कार्यक्रमों में वहाँ के परम्परागत नृत्य, गीत संगीत का आनंद उठाया। बच्चे अत्याधिक खुश थे। हमें भी संतोष था कि यदि सुबह ऋषि और अबीर को साथ न लिया होता तो वे एक ऐसा मौका गँवा देते जिसे शायद हम सभी कभी न भूल सकेंगे।

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

ज़रूरत है।

जाग जाएँ, तम-विनाशन की ज़रूरत है।
क्षात्रता के दीप-नूतन की ज़रूरत है।
याद कर लें शान अपनी मान-मर्यादा,
अस्त्र उस पावन पुरातन की ज़रूरत है।
रुढियों के फंद के उलझाव से सुलझें,
क्रांति के शुभ-पथ सनातन की ज़रूरत है।
एकटक चेहरा हमारा क्यों न सब ताकें!
फिर हमें सर्वोच्च आसन की ज़रूरत है।
उन पुरानी खूबियों को याद फिर कर लें,
आज फिर इतिहास वाचन की ज़रूरत है।
फिर पड़ेगा क्षात्र को ही सामने आना,
पुनः नव-आदर्श सर्जन की ज़रूरत है।
युद्ध सामाजिक पड़ेगा आज फिर लड़ना,
अविलम्ब दोषों के विसर्जन की ज़रूरत है।
मेल से फिर खेल बनने में कहाँ देरी!
आपसी कटुता न अनबन की ज़रूरत है।
संगठन से जीत, कारण हार का विघटन,
शीघ्र कारण के निवारण की ज़रूरत है।
           -डॉ. शेषपाल सिंह ‘शेष’

सोमवार, 23 मार्च 2015

नवगीत: झोपड़-झुग्गी से बँगलेवाले हारे

झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे।
झाड़ू लेकर
राजनीति की
बात करें।
संप्रदाय की
द्वेष-नीति की
मात करें।
आश्वासन की
मृग-मरीचिका
ख़त्म करो।
उन्हें हराओ
जो निर्बल से
घात करें।
मैदानों में
शपथ लोक-
सेवा की लो।
मतदाता क्या चाहे
पूछो जा द्वारे
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे।

मन्दिर-मस्जिद
से पहले
शौचालय हो।
गाँव-मुहल्ले
में उत्तम
विद्यालय हो।
पंडित-मुल्ला
संत, पादरी मेहनत कर-
स्वेद बहायें,
पूज्य खेत
देवालय हों।
हरियाली संवर्धन हित
आगे आ रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे।

जाती जन्म से
नहीं, कर्म से
बनती है।
उत्पादक अन-
उत्पादक में
ठनती है।
यह उपजाता
वह खाता
बिन उपजाये-
भू उसकी
जिसके श्रम-
सीकर सनती है।
अन-उत्पादक खर्च घटे
वह विधि ला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे।

श्रम की
सबसे अधिक
प्रतिष्ठा करना है।
शोषक पूँजी को
श्रम का हित
वरना है।
चौपालों पर
संसद-ग्राम
सभाएँ हों-
अफसरशाही
को उन्मूलित
करना है।
बहुत हुआ द्लतंत्र
न इसकी जय गा रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे।

बिना बात की
बहसें रोको,
बात करो।
केवल अपनी
कहकर तुम मत
घात करो।
जिम्मेवारी
प्रेस-प्रशासन
की भारी-
सिर्फ सनसनी
फैला मत
आघात करो।
विज्ञापन की पोल खोल
सच बतला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे।
-संजीव सलिल

मंगलवार, 17 मार्च 2015

रानी पद्मिनी

यह रानी पद्मिनी महल जिसके नाम से एक त्वरा उठती है, एक हुक बरबस ह्रदय को मसोस डालती है; क्या पद्मिनी महल की दर्दनाक कहानी का किसी ने और-छोर भी पाया...है? क्या फुसलाने से भी कोई व्यथा मिट सकती है? क्या सहलाने से भी दर्द समाप्त हो सकता? महल स्वंम एक कहानी-एक दर्दभरी दास्ताँ है; एक उपेक्षित किंतु महान कौम का महाकाव्य है, जो कागजों पर नही, इतिहास के भुलाये हुए महाकवियों द्वारा पत्थरों पर लिखा गया है पत्थर की लकीरों की भांति ही है-वे कहानियाँ जो न समय की आंधी से अब तक मिट सकी है और न ही विस्मृति की वर्षा से धुल सकी है 

रावल समरसिंह के बाद उनका पुत्र रत्नसिंह चितौड़ की राजगद्दी पर बैठा
रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर दूर तक फैली थी उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चितौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी उसने चितौड़ के किले को कई महीनों घेरे रखा पर चितौड़ की रक्षार्थ तैनात राजपूत सैनिको के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावजूद वह चितौड़ के किले में घुस नहीं पाया


तब उसने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चितौड़ रत्नसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि "हम तो आपसे मित्रता करना चाहते है रानी की सुन्दरता के बारे बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुंह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली लौट जायेंगे”। सन्देश सुनकर रत्नसिंह आगबबुला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि "मेरे कारण व्यर्थ ही चितौड़ के सैनिको का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है" रानी को अपनी नहीं पुरे मेवाड़ की चिंता थी वह नहीं चाहती थी कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अल्लाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी सो उसने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अल्लाउद्दीन चाहे तो रानी का मुख आईने में देख सकता है

अल्लाउद्दीन भी समझ रहा था कि राजपूत वीरों को हराना बहुत कठिन काम है और बिना जीत के घेरा उठाने से उसके सैनिको का मनोबल टूट सकता है साथ ही उसकी बदनामी होगी वो अलग सो उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया

चितौड़ के किले में अल्लाउद्दीन का स्वागत रत्नसिंह ने अथिती की तरह किया
रानी पद्मिनी का महल सरोवर के बीचों बीच था सो दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया रानी को आईने के सामने बिठाया गया आईने से खिड़की के जरिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी वहीँ से अल्लाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया सरोवर के पानी में रानी के मुख की परछाई में उसका सौन्दर्य देख देखकर अल्लाउद्दीन चकित रह गया और उसने मन ही मन रानी को पाने के लिए कुटिल चाल चलने की सोच ली जब रत्नसिंह अल्लाउद्दीन को वापस जाने के लिए किले के द्वार तक छोड़ने आये तो अल्लाउद्दीन ने अपने सैनिको को संकेत कर रत्नसिंह को धोखे से गिरफ्तार कर लियारत्नसिंह को कैद करने के बाद अल्लाउद्दीन ने प्रस्ताव रखा कि रानी को उसे सौंपने के बाद ही वह रत्नसिंह को कैद मुक्त करेगा रानी ने भी कूटनीति का जबाब कूटनीति से देने का निश्चय किया और उसने अल्लाउद्दीन को सन्देश भेजा कि -"मैं मेवाड़ की महारानी अपनी सात सौ दासियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने पति के दर्शन करना चाहूंगी यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मुझे सूचित करे”। रानी का ऐसा सन्देश पाकर कामुक अल्लाउद्दीन के ख़ुशी का ठिकाना न रहा, और उस अदभुत सुन्दर रानी को पाने के लिए बेताब उसने तुरंत रानी की शर्त स्वीकार कर सन्देश भिजवा दिया

उधर रानी ने अपने काका गोरा व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर सात सौ डोलियाँ तैयार करवाई और इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिक बिठा दिए डोलियों को उठाने के लिए भी कहारों के स्थान पर छांटे हुए वीर सैनिको को कहारों के वेश में लगाया गयाइस तरह पूरी तैयारी कर रानी अल्लाउद्दीन के शिविर में अपने पति को छुड़ाने हेतु चली उसकी डोली के साथ गोरा व बादल जैसे युद्ध कला में निपुण वीर चल रहे थे अल्लाउद्दीन व उसके सैनिक रानी के काफिले को दूर से देख रहे थे सारी पालकियां अल्लाउदीन के शिविर के पास आकर रुकीं और उनमे से राजपूत वीर अपनी तलवारे सहित निकल कर यवन सेना पर अचानक टूट पड़े इस तरह अचानक हमले से अल्लाउद्दीन की सेना हक्की बक्की रह गयी और गोरा बादल ने तत्परता से रत्नसिंह को अल्लाउद्दीन की कैद से मुक्त कर सकुशल चितौड़ के दुर्ग में पहुंचा दिया

इस हार से अल्लाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ और उसने अब चितौड़ विजय करने के लिए ठान ली आखिर उसके छ:माह से ज्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण किले में खाद्य सामग्री अभाव हो गया तब राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना पहन कर जौहर और शाका करने का निश्चय किया जौहर के लिए गोमुख के उतर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया रानी पद्मिनी के नेतृत्व में १६००० राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया थोडी ही देर में देवदुर्लभ सोंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन खिलजी भी हतप्रभ हो गया महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर ३०००० राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति खिलजी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ गोरा और उसके भतीजे बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया-

बादल बारह बरस रो,
लड़ियों लाखां साथ
सारी दुनिया पेखियो,
वो खांडा वै हाथ।।

इस प्रकार छह माह और सात दिन के खुनी संघर्ष के बाद 18 अप्रेल 1303 को विजय के बाद असीम उत्सुकता के साथ खिलजी ने चित्तोड़ दुर्ग में प्रवेश किया लेकिन उसे एक भी पुरूष,स्त्री या बालक जीवित नही मिला जो यह बता सके कि आख़िर विजय किसकी हुई और उसकी अधीनता स्वीकार कर सके
उसके स्वागत के लिए बची तो सिर्फ़ जौहर की प्रज्वलित ज्वाला और क्षत-विक्षत लाशे और उन पर मंडराते गिद्ध और कौवे

रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और रानी पद्मिनी राजपूत नारियों की कुल परम्परा मर्यादा और अपने कुल गौरव की रक्षार्थ जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हो गयी जिसकी कीर्ति गाथा आज भी अमर है और सदियों तक आने वाली पीढ़ी को गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी

- स्व. विजयसिंह सोलंकी, बीकानेर