बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

रामचरितमानस में शौर्य

परमात्मा के समस्त लौकिक और आध्यात्मिक मर्यादाओं का साकार विग्रह बनकर, रघुकुल में, राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र के रूप मेंअवतरित हुए। लोक और वेद में क्षत्रियों के जिन सात स्वाभाविक गुणों की अनिवार्यता प्रतिपादित की है, यथा-
शौर्यं तेजो धुतिर्दाक्ष्यं युध्दे चाप्य पलायनम।
दानमीश्वर भावश्च क्षात्रकर्म स्वाभाजम।।

(गीता-18/42)
अर्थात शौर्य, तेज, धैर्य, निपुणता, युध्द से न भागना, दानशीलता और ईश्वरीय भाव----वे सभी सार-रूप में राम में समाहित हैं। रामचरितमानस के प्रसंगानुकूल दोहे/अर्धालियाँ महानायक राम का गुणानुवाद तो हैं ही, उन्हें पढ़-सुनकर क्षत्रिय-धर्म और भारतीय-संस्कार भी धन्यता का अनुभव करते हैं।
कहते हैं, जो शूर नहीं वह क्षत्रिय नहीं। दुर्दांत एवं बलवान शत्रु का सामना करते समय भयभीत न होना, न्याययुक्त युध्द करने के लिए सदैव तत्पर रहना और अवसर आने पर साहसपूर्ण तरीके से युध्द करना ही शूरवीरता है। मुनि विश्वामित्र के यज्ञ-रक्षार्थ गये राम-लक्ष्मण, वहाँ मायावी ताड़का और सुबाहु का वध करते हैं, मारीच बिना फल वाले बान से सौ योजन दूर जा गिरता है।
जनकसभा में शिव-धनुष टूटने पर क्रोधित परशुराम की चुनौती का साहसपूर्ण प्रत्युत्तर देते हुए राम अपनी गौरवशाली वंश-परम्परा और क्षत्रिय-धर्म का भी स्मरण करते हैं-
देव दनुज भूपति भट नाना,
सम बल अधिक होउ बलवाना।
जों रन हमहि पचारै कोऊ,
लरहिं सुखेन कालु किन होऊ।
क्षत्रिय तनु धरि समर सकाना,
कुल कलंक तेहिं पावर आना।
कहऊ सुभाऊ न कुलहि प्रसंसी,
कालहु डरहिं न रन रघुवंसी।

(बाल/284/1-4)
चित्रकूट में जब भरत सेना सहित प्रभु राम से मिलने आते हैं तब युध्द की संभावना को संज्ञान में लेते हुए लक्ष्मण अकेले ही भरत एवम् उनकी सेना से मुकाबला हेतु तैयार हो जाते हैं। यह अलग बात है कि भरत का मंतव्य व्दंद या युध्द कदापि नहीं था।
तैसिहिं भरतहि सेन समेता,
सानुज निदरि निपताऊ खेता।
जों सहाय कर संकरू आई,&
तों मारऊ रन राम दोहाई। 

(अयोध्या/230/7-8)
खर-दूषण से युध्द में शूरवीरता के साथ-साथ क्षत्रिय धर्म के अन्य गुणों की भी विशद व्याख्या की गई है-
हम क्षत्रिय मृगया बन करहीं,
तुम्ह से खल मृग खोजत फिरहिं।
रिपु बलवान देख नहीं डरहीं,
एक बार कालहु सन लरहिं।
जदपि मनुज दनुज कुल घालक,
मुनि पालक खल सालक बालक।
जों न होई बल घर फिरि जाहू,
समर विमुख मैं हतऊ न काहू।
रन चढ़ी करिअ कपट चतुराई,
रिपु पर कृपा परम कदराई।

(अरण्य/19/9-13)
श्री राम की शूरवीरता की प्रशंसा करते हुए मारीच,रावण से कहता है--
जों नर तात तदपि अति सूरा,
तिन्हहि विरोध न आइहि पूरा।

(अरण्य/28/8)
जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड,
खर दूषण तिसिरा बधेउ, मनुज कि अस बरिवंड।

(अरण्य/28)
                                                                                                     -सुरेन्द्र सिंह पंवार

इनसे मिली दशहरा पर्व की हार्दिक शुभकामनाये:
१) ठाकुर वन्शगोपाल सिंह सिसोदिया, राष्ट्रीय अध्यक्ष,
अखिल भारतीय क्षत्रिय धर्म संरक्षण शोध एवम समन्वय संस्थान
२) ठाकुर लख सिंह भाटी, पूनमनगर, जैसलमेर
३) ठाकुर बद्री नारायण सिंह पहाड़ी, मैसूर
४) ठाकुर जितेन्द्र कुमार सिंह, वैशाली (बिहार)
धन्यवाद 

ठाकुर रमेश राघव खुली चुनौती  की सम्पादकीय में लिखते हैं-
एक स्वामीजी वैश्य परिवार में बैठे चर्चा कर रहे थे। उनका कहना था कि प्राचीन काल में स्थापित वर्ण व्यवस्था के दो वर्ण ब्राम्हण और क्षत्रिय तो लगभग समाप्त हो गये हैं। कोई भी अपने धर्म अर्थात कर्तव्य का पालन नहीं कर रहा है। चतुर्थ वर्ण शूद्र का भी लगभग सफाया हो रहा है। कोई भी सेवा नहीं करना चाहता है। पूरा का पूरा समाज वैश्य हो गया है। सोचिये! विचारिये!!

रविवार, 27 जुलाई 2014

नमामि गंगे

बात तब की है, जब सरस्वती थी, यमुना थी परन्तु गंगा नहीं थी। तब, आर्यावर्त में सूर्यवंशी राजा सगर का साम्राज्य था। उनके राज्य में एक बार भयानक अकाल पड़ा, प्रजा बूँद-बूँद पानी के लिए तरस गई। खेतों में दाना भी नहीं उगा। राजा ने अश्व (१)- मेघ यज्ञ (२) किया। स्वर्ग के राजा (३) इन्द्र ने ईर्ष्यावश यज्ञ का घोडा चुराया और कपिल मुनि के आश्रम में छिपा दिया। 60 हजार सगर-पुत्रों (४) ने मुनि पर चोरी का आरोप लगाया। निर्दोष-कपिल मुनि की क्रोधाग्नि में सगर-पुत्र जल गए (५)। उनके उध्दार हेतु पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रयास हुए। असमंजस पीछे, अंशुमान, दिलीप और अंत में भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग से उतारा (६), भगवान शिव की जटाओं से होकर (७) गंगाजी धरती पर आयीं और सगर-पुत्र जीवित हो गए (८)।
आर्य्यन-विजय' में ठाकुर हरनामसिंघ चौहान लिखते हैं- 
हिमालय से उतरा हुआ जल अनेक मार्गों से बहकर यमुना में मिलता होगा, उसके द्वारा छोटी-छोटी नदियाँ और नाले बन गये होंगे। यह पानी अपनी गति बदलने से आर्यों के ग्रामों को नष्ट-भ्रष्ट कर देता होगा। सत्य प्रतिज्ञ महाराजा भगीरथ ने गंगोत्री पर्वत से उतरे जल वेग की धारा को एक निश्चित मार्ग से ले जाकर यमुना में मिला देने का निश्चय किया। 
"रामायण के बालकाण्ड" श्लोक 19/31-34 का सार इस प्रकार है-
आकाश स्वरूपा गंगोत्तरी पर्वत से उतरे जल को बड़े -बड़े पर्वत टीलों को काटकर आर्यावर्त की भूमि पर नहर के समान जलमार्ग बनाते हुए चले। रथ पर सवार महाराजा भागीरथ आगे-आगे बढ़ते जाते थे और उनके पीछे-पीछे नहर तैयार होती जाती थी। भागीरथ जी के इस अद्भुत कार्य को देखकर देवता जय-जयकार करने लगे।"
पतितों को पावन करने वाली माहात्म्यमयी गंगा आज प्रदूषित होकर सामान्य सी नदी बनकर रह गयी है।प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने जनता से वादा किया है, गंगा को साफ करने का। उन्होंने गंगा पुनर्जीवन मंत्रालय भी बनाया है। साध्वी सुश्री उमा भारती को उसकी कमान सौंपी है, लेकिन यह केवल शासन तंत्र से संभव नहीं, सबका सहयोग चाहिए। आपका भी।
(१) ऋग्वेद के मंडल 3-4 में अश्व का अर्थ यंत्र आया है। हो सकता है, उस समय यंत्र अश्व के रूप जैसा हो, जो मिट्टी कटाई, खुदाई के काम आता हो।
(२) यंत्र-योजना (यजुर्वेद 18-9)।
(३) स्वर्ग के राजा इंद्र-वर्तमान हरियाणा, पंजाब, दिल्ली का राजा।
(४) 60 हजार सगर-पुत्र -राजा सगर अपनी प्रजा को पुत्रवत स्नेह करते थे। शायद, उस समय आबादी 60 हजार हो।
(५) जल गए-जल के अभाव में प्रजा मृतप्राय हो गयी।
(६) गंगा को स्वर्ग से उतारा-गंगा के उद्गम (गंगोत्री) से गंगा सागर तक धरातल में लगभग 5000 मीटर का अंतर है। अतः पुराणों में गंगा के स्वर्ग से उतारने की परिकल्पना की गई।
(७) भगवान शिव की जटाओं से-स्कन्द पुराण के अनुसार महादेव जी पहाड़ी क्षेत्र के क्षत्राधिपति थे। उनकी राजधानी कैलाश (तिब्बत) थी। भागीरथ ने उनसे पर्वत श्रृंखलाओं से होकर जलधारा ले जाने की अनुमति माँगी और वे सहमत हो गए। अमिश त्रिपाठी ने उपन्यास 'मेहला' में इसकी चर्चा की है।
(८) सगर-पुत्र जीवित हो गए-गंगा के मैदानी क्षेत्र में पदार्पण से सिंचाई एवं पीने के पानी की सुविधा बढ़ गई, बंजर जमीन लहलहा उठी, समृध्दि हुई, अर्थात प्रजा (सगर-पुत्र) जीवित हो गए।

क्षत्रिय सभा ने किया सम्मानित


पिछले दिनों क्षत्रिय सभा, जबलपुर ने समर्पित सामाजिक सेवाओं के लिए सुरेन्द्र सिंह पँवार को सम्मानित किया। चित्र में स्मृति-चिन्ह भेंट करते ठाकुर सुभाष सिंह गौर, संरक्षक क्षत्रिय सभा एवं मंचासीन डॉ (श्रीमती) अंजू सिंह बघेल, ठाकुर रज्जन सिंह बैस, अध्यक्ष क्षत्रिय  सभा, ठाकुर पंचम सिंह (पूर्व-अध्यक्ष) तथा संचालन करते सरदार सिंह राजपूत। 

रविवार, 29 जून 2014

श्रीनगर-काश! उनके अच्छे दिन जल्दी आ जाते।

श्रीनगर, भारत के शीर्षस्थ सीमांत-प्रदेश जम्मू और कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी है। श्रीनगर (श्री+नगर) का शाब्दिक अर्थ-वैभव की नगरी है। वहाँ का नेचर (प्रकृति) और नेचुरल ब्यूटी (दमकते चेहरे) देखते ही बनते हैं। लगता है, कुदरत ने उन्हें फुर्सत से गढ़ा है। किंवदन्ती यह भी है कि एक समय वहाँ के बहुसंख्यक लोग (कश्मीरी पंडित) ईश्वर को अपना लाभांश देते थे और उतनी स्वर्ण-मुद्राएँ वहाँ स्थित झील (डल झील का आरम्भिक हिस्सा गोल्डन-लेक कहलाता है) में डाल देते थे। यह अलग बात है कि आज वे अपने ही घरों से बेघर हैं? वैसे, मोदी सरकार कश्मीरी-पंडितों के पुनर्स्थापन के लिए कृत-संकल्पित है। काश! उनके अच्छे दिन जल्दी आ जाते।
इतिहासकार मानते हैं कि श्रीनगर, मौर्य संम्राट अशोक द्वारा बसाया गया। अन्य पर्वतीय शहरों की तुलना में यह शहर कुछ अलग लगता है। यहाँ के घर और बाजार पहाड़ी ढलानों पर नहीं बसे। एक विस्तृत घाटी के मध्य होने के कारण यह मैदानी शहरों जैसा है। किन्तु पृष्ठभूमि में दिखाई पड़ते बर्फाच्छादित पर्वत-शिखर यह अहसास कराते हैं कि हम वास्तव में समुद्रतल से 1730 मीटर ऊँची सैरगाह में हैं।
श्रीनगर को याद करें तो याद आते हैं वहाँ के सूखे मेवे, स्वादिष्ट फल, सुगन्धित केशर, सुपाच्य पेय कहवा, सुन्दर परम्परागत हस्तशिल्प, खूबसूरत डल झील और मुग़ल स्थापत्य शैली के बाग-बगीचे। "सिटी ऑफ़ गार्डन्स" के नाम से मशहूर इस शहर में छोटे-बड़े 700 बगीचे हैं।
कश्मीर का ट्यूलिप-गार्डन पूरे साल में मात्र पच्चीस दिन खुलता है। पूर्व प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की स्मृति संजोये यह बॉटनिकल गार्डन 90 एकड़ क्षेत्र में विकसित है। 23 अप्रैल दोपहर को जब हम वहाँ थे, तब लगभग 70 किस्मों के ट्यूलिप खिले थे। अलग-अलग रंग के, अलग-अलग ढंग के, अलग-अलग कतारों में। दूर तक, जहाँ भी निगाह दौड़ती, एक से बढ़कर एक गुल खिले दिखते। 'नन्दन -कानन' जैसी दिव्यता देखकर हम दंग रह गए। लगा, श्रीनगर आना सार्थक हुआ। पाँव-पाँव घूमते हुये हम थक गये, परन्तु बगीचे का कोई  ओऱ-छोर नहीं पकड़ पाये। भूख भी लग रही थी। पुए खाकर कहवा पिया, परम्परागत परिधानों में फोटो खिंचवाए और उस सपनों के संसार से बाहर आ गये।
यहाँ एक गड़बड़ हो गई। कश्मीर के शाही बगीचे (मुग़ल बादशाहों के ख्बाब गाह) हमने ट्यूलिप गार्डन के बाद देखे। एक औपचारिकता सी निभाते हुये। फिर भी, 'चश्म-ए-शाही' में सोतों से निकलते शीतल स्वादिष्ट जल का स्वाद और 'शालीमार' में चिनार वृक्षों के बैक-ग्राउंड में लिए फोटोग्राफ्स हमारी निजी धरोहर  हैं।
कश्मीर यात्रा का अंतिम और अहम पड़ाव था -डल झील। श्रीनगर के मुकुट पर जड़ा बेशकीमती नगीना। जब हमने सुन्दर, सजी-धजी पैडल टेक्सी बोट (शिकारा) किराये पर लेकर झील में प्रवेश किया, तब भगवान भाष्कर अस्ताचल की ऒर थे। आकाश का नारंगी रंग समूची झील को अपने रंग में रंग रहा था। यहाँ की शान्त, स्तब्ध झील में नौकायन, भेड़ाघाट (जबलपुर) में किये नौका-बिहार से पृथक अनुभव रहा। यहाँ थ्रिल या रोमांच नहीं था बल्कि चुलबुलापन था, मौज-मस्ती थी। हम सभी बौराये से झील का अनुपम सौन्दर्य निहार रहे थे। नन्हा शौर्य अत्याधिक प्रसन्न रहा, उसे बहुत सारा मम (पानी) दिख रहा था। दादी की गोदी में किनारे बैठा वह, छप-छप कर रहा था। झील में तैरती कुमुदनी पकड़-फ़ेंक रहा था।
डल झील में दो बातें बहुत अच्छी लगीं। एक- वहाँ तैरते आवास, हाउसबोट। श्रीनगर आयें और वहाँ के हाउसबोट में रात्रि-विश्राम न किया, तो क्या किया? हाउसबोट युवा जोड़ों की पहली पसंद होती है, या यूँ कहें-ज्यादातर हनीमून-पैकेज  में हाउसबोट नाइट-स्टे पहले से जुड़ा होता है। यहाँ के हाउसबोट, केरल की तुलना में स्टेशनरी हैं, स्थिर हैं। किनारे से मेहमान की फेरी के लिये इनके अपने शिकारे होते हैं-निःशुल्क।
हमारे नाविक ने बताया कि डल झील में हाउसबोट का चलन डोंगरा राजाओं और अंग्रेजों के मध्य विवाद से हुआ। डोंगरा राजाओं द्वारा कश्मीर में स्थायी सम्पत्ति खरीदने और घर बनाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुये अँग्रेजों ने झील में बड़ी नाव पर लक्जरी केबिन बनाकर रहना आरम्भ कर दिया।
1962 की चर्चित फिल्म 'कश्मीर की कली' में सर्वप्रथम डल झील, हॉउसबोट और शिकारा-राइड को भारतीय दर्शकों ने पसन्द किया। यही कारण रहा कि बाद के फिल्म-निर्माताओं ने इनकी पॉपुलरिटी को जमकर भुनाया। जंगली, जानवर, कभी-कभी, जब-जब फूल खिले, रॉकस्टार, मिशन-ए-कश्मीर, लम्हा, दिल से, ये जवानी है दीवानी, जैसी सुपरहिट फिल्मों के कई रोमांटिक दृश्य और गीत डल झील के हाउसबोटों में फिल्माये गये हैं। हाउसबोट कीपर बड़ी शान से प्रचार-प्रसार करते हैं कि फलाँ-फलाँ फिल्म की शूटिंग इस हौजरे में हुई। 'मिशन-ए-कश्मीर' तथा 'गुल-गुलशन-गुलफाम' (टी व्ही सीरियल) नामक दो हाउसबोट हमने भी देखे।
डल झील का दूसरा मुख्य आकर्षण-वहाँ के तैरते बाजार थे। दुकानें भी शिकारे पर लगी थी और शिकारे पर सवार होकर विभिन्न वस्तुएँ खरीदीं जा रहीं थीं। शिकारे बार-बार हमारे नजदीक आ रहे अपने प्रोडक्टों का प्रदर्शन कर रहे थे, हमें ललचा रहे थे, हम मोल-भाव करें, कुछ खरीदें। चाय-चटपटे से लेकर कीमती केशर और जवहराती-जेवर तक सभी विक्रय हेतु उपलब्ध थे। 'या-हू' की मुद्रा में युवा एवं कश्मीरी वेशभूषा में छुई-मुई सी युवतियां झील में, शिकारे पर बिताये उन अविस्मरणीय पलों को कैमरों में कैद करा रहे थे। शिकारे पर झील में अतराता पोस्ट-ऑफिस भी हमारे आकर्षण का केन्द्र रहा। काश्मीर के कारीगरों, दस्तकारों, लघु व कुटीर उद्योग संचालकों, कृषकों को उनके उत्पादों का घर-बैठे उचित मूल्य मिले, बिना बिचौलियों की मदद के, यह सोचकर डल झील में तैरते बाजार की कल्पना की गई। यहाँ सैलानी/शौकिया लोग झील में घूमने का आनन्द लेते हुये रोजमर्रा की खरीददारी करते हैं, यानि आम के आम, गुठलियों के दाम। सोना झील से नागिन झील तक घूमने में अँधेरा गहराने लगा। हाउसबोटों पर जगमगाती रंग-बिरंगी विद्युत लड़ियों के प्रतिबिम्ब से झील का सौन्दर्य दुगुना हो गया था।
हम घाट की ओऱ आ रहे थे। हमारा नाव-चालक हमें बता रहा था कि ठण्ड में झील जम जाती है, एक सपाट मैदान, एक स्टेडियम की तरह। और, तब यहाँ के जुझारू लोग और उनके परिजन देवदार की लकड़ियों पर नक्काशी कर सुन्दर कलाकृतियाँ बनाते हैं। रेशमी कपड़ों पर बेलबूटे काढते हैं, एक अंगूठी से पार हो सकने वाला पश्मीना शॉल बुनते हैं। भारत-पाक सीमा पर आये दिन होती गोलाबारी और आतंक के साये में जीवन यापन करते लोगों की सर्जनात्मक-सामर्थ्य को  साधुवाद!

शिकारे से उतरते ही ख्याल आया कि यदि जम्मू के ट्रैवल-एजेंट की सलाह मान हम वहीं से वापिस लौट गये होते तो.......तो, ऐसी परानुभूतियाँ कैसे होतीं? तो, खुली ऑखों में स्वर्ग का अनावृत सौन्दर्य कैसे बसता? लेकिन, अभी दिल भरा नहीं। घूमने को बहुत बाकी रहा। मन ही मन संकल्प लिया कि बाबा अमरनाथ के दर्शनों को यहीं से जाना पड़ता है। यदि, उनकी कृपा रही, बुलाबा आया तो एक बार फिर इस शहर की श्री-सम्पदा देखने की चाह रहेगी, विशेषकर सोनमर्ग और पहलगांव।
हम कल जबलपुर लौटेगें, कुछ दिन यात्रा के खट्टे-मीठे अनुभव शेयर करेंगे, फिर अपने राग में लग जायेंगे, लेकिन इन वादियों में गूंजतीं सूफी-सदाये बहुत देर तक और दूर तक, हमें सुनाई देंगी-
                                                     गर फ़िरदौस, रहें जमीं अस्तो 
                            हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो। 

मंगलवार, 17 जून 2014

गुलमर्ग

22 अप्रेल, 2014 -अल्ल्सुबह, हमारा परिवार श्रीनगर से गुलमर्ग के लिये निकला। टेंगमार्ग, जहाँ से गुलमर्ग के लिये 11.00 किलोमीटर पहाड़ पर चढ़ाई आरम्भ होती है। रुककर हल्का नाश्ता और चाय ली। बर्फीली-शीत से बचने के लिये फर-कोट, केप और गमबूट लिये। रंग-बिरंगे परिधानों में सब एक से बढ़कर एक दिख रहे थे, विशेषकर, पिंक-ड्रेस में पौत्र शौर्य एकदम एस्किमो दिख रहा था।
बर्फ पर चलने-घूमने का रोमांच हमारी हृदयगति बढ़ा रहा था, साथ ही एक सुनिश्चित उंचाई पर जाने का भय और, तापमान लगभग 6 डिग्री सेन्टीग्रेड। खैर, हिम्मत जुटाकर हम आगे बढे। बर्फ से ढके पहाड़ और उनपर झाँकते शंकुनुमा-विशाल देवदार के पेड़! मानो, मेहमानों की अगवानी में सुन्दर फूलों के गुलदस्ते लिये कतारबध्द खड़े हों। लगा, हम किसी काल्पनिक दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं।
हिमालयीन पर्वत-श्रृंखलाओं में से एक पीर-पंजाल पर 2653 मीटर की ऊंचाई पर स्थित विश्व का सबसे ऊँचा गोल्फ-कोर्स, गुलमर्ग-गोंडोला और एक सुन्दर स्कीइंग स्पॉट। चारों तरफ, जहाँ भी नज़र जाती, बर्फ ही बर्फ दिखाई देती। जहाँ हमारी टेक्सी रुकी, वहाँ 6 फुट बर्फ, कुल मिलाकर एक कटोरे की शक्ल में गुलमर्ग। सी.एन.एन. की एक रिपोर्ट में इस जगह को भारत में शीतकालीन खेलों की हृदय-स्थली कहा है। उस दिन गुलमर्ग पहुँचने वाली हमारी पहली टेक्सी थी, जिसमें सात देशी सैलानियों को देखकर वहाँ के जन-जीवन में यंत्रवत गति आ गई।
जैसे ही हमने बर्फ पर पैर रखा, हमें लगा मानो हमने चाँद पर पहला कदम रखा है। नील आर्म स्ट्राँग की भाँति हमें भ्रम हुआ कि कहीं हमारा पैर नीचे तो नहीं धँस जायेगा। यह भी कल्पना हुई कि नीचे बर्फ पिघलकर पानी
हो गया और ऊपर जहाँ, जिस जमीन पर खड़े हैं वह खिसक तो नहीं जावेगी। परन्तु, ऐसा नहीं हुआ। स्वच्छ, श्वेत, शॉफ्ट और स्पंजी बर्फीले धरातल को छूते ही परिजन ख़ुशी से नाचने लगे। हमारे मुँह से भी निकला "वाह"! मीना (पत्नी) और बच्चों के चेहरों पर आयी बड़ी सी मुस्कान ने हमारी ख़ुशी को दुगना कर दिया। निःसंदेह, यह भारत में अब तक देखे खूबसूरत स्थानों में सर्वश्रेष्ठ है।
सामान्यतः मई के प्रथम सप्ताह से गुलमर्ग में बहार आती है। हम कुछ पहिले आ गये। गुलमर्ग का मुख्य आकर्षण गोंडोला में सुधार/रखरखाव चल रहा था अतः हमलोग रोपवे से ऊँचाई पर जाकर और नयी ऊंचाइयों को नापने से वंचित रह गये। परन्तु हमारी कल्पनाओं के घोड़े थामने से भी न रुके। एक ऊँचाई पर जाकर नागा पर्वत (7000 मीटर) गिलगिट की चोटियों को निहारने का काल्पनिक सुख लिया। मन- रूपी गरुण तो अपने पंख पसारकर और ऊँची उड़ान भर आया एवं वहाँ खड़े-खड़े माउॅट- एवरेस्ट की परिकल्पना कर डाली। ऐसा लगा कि हम गोंडोला की अधिकतम ऊँचाई से कुशल प्रशिक्षक के साथ स्कीईंग करते तेजी से नीचे उतर रहे हैं- जोर-जोर से चीखते हुये, अपने डर को दूर भगाते हुए, मार्ग की सभी भव-बाधाओं को पार करते हुए।
"गोल्फ मैदान की बर्फ पर पैदल न चलकर स्लेज से दौड़ा जावे "-यह तय होने पर सात स्लेजों पर सवार हमारा परिवार-दल आगे बढ़ा। शौर्य अभी तक अपनी माँ से चिपका था, परन्तु बाद में बर्फ पर अठखेलियों का सही आनंद इस जूनियर सदस्य ही ने लिया। ऋषि और वर्षा ने अपने स्लेज आपस में जोड़ रखे थे, एक स्लेज वाहक उन दोनों को एक साथ खींच रहा था। हम सबसे पीछे थे। एक तरह से अपने दल को हंकारते हुए, उनका उत्साह-वर्धन करते हुए। हँसी,ठिलठिलाहट , चीख, सीटियों की आवाज, कभी गिरना, ऊपर से नीचे जाना, अपने स्लेज-वाहक को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना-यही आनन्द था बिना पहियों की, बिना ब्रेक की गाड़ी पर चलने का! दौड़ने का !!
स्लेज खींचने वाले बड़े मेहनती और बाक्पटु थे। उस विस्तारित मैदान में कुछ प्राकृतिक, कुछ काल्पनिक वियु-पॉइन्ट बता रहे थे। बीच-बीच में वे फिल्मों, फ़िल्मी नायक-नायिकाओं और उन पर फिल्माये दृश्यों/गीतों की बातें कर हमारा कौतुहल बढ़ा रहे थे। उनकी जानकारी में अभी तक वहां 22 फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है, जिनमें हाइवे, ये जवानी है दीवानी, जब तक है जान, स्टूडेंट ऑफ़ द इयर, सात खून माफ, रॉक स्टार, मिशन-कश्मीर और लम्हा प्रसिध्द हैं। एक वरिष्ठ वाहक बता रहा कि
वह यहाँ तीन पीढ़ियों की शूटिंग देख चुका है। 1962 में शम्मीकपूर आये थे, कश्मीर की कली की शूटिंग के लिए, 1974 में ऋषिकपूर और डिम्पल बॉबी के लिए आये और अभी 25 जनवरी को रणवीर कपूर, दीपिका पदुकोण अपनी फिल्म यूनिट  के साथ आये थे (-) 10 डिग्री तापमान में उन्होंने यहाँ शूटिंग की।
मौसम आज भी बेहद ठण्डा रहा, तब भी स्लेजवाहक पसीने से लथ-पथ हो रहे थे। बर्फ पर नंगे पैर दौड़ना और सवारी खींचना दोनों मेहनत के काम हैं। बॉबी हट (कहते हैं यहाँ बॉबी फिल्म की शूटिंग हुई थी) पर आकर हमारी आगे-पीछे दौड़तीं स्लेज एक लाइन में रुक गयीं। स्लेज खींचने वाले भी ओत लेने (सुस्ताने) लगे। हम सभी ने भी अपने हाथ-पैर सीधे किये और बर्फ से खेलने लगे। शुरुआत में लगा बर्फ ठण्डी होगी,सख्त होगी। परन्तु हाथ में लेते ही एक विशेष गर्माहट महसूस की। वह रुई जैसी मुलायम थी, उसे उठाकर एक दूसरे को मारना ऐसा लगता था जैसे बृज में फूलों की होली खेल रहें हों।
स्लेज दल नायक बार-बार आग्रह कर रहा था -"अपने-अपने पर्स, मोबाईल और अन्य कीमती चीजें सम्भाल कर रखें। यहाँ के लोग चोर या पॉकेटमार नहीं हैं, बर्फ चोर है।" लगा एक सच्चाई और ईमानदारी है, उसके कथन में। बर्फ में एक बार कोई वस्तु गुम जावे, फिर उसे ढूँढना नहीं होता।
सूर्य सिर पर आ गया था। गुनगुनी धूप रही इसलिए ठण्ड से थोड़ी राहत रही। टूरिस्टों की हलचल बढ़ गयी थी। हमारी स्लेज गाड़ियाँ फिर दौड़ने लगीं। साथ-साथ चलते-दौड़ते स्कीईंग के यंत्र/उपकरण लिए, बार-बार अनुरोध करते, ट्रेन्ड प्रशिक्षक का प्रमाण-पत्र दिखलाते, कुछ ही देर में बर्फ पर स्कीईंग से दौड़ाने का वायदा करते। बीच मे एक नाला आ गया, जिसमें लबालब पानी बह रहा था। वह वहाँ की बर्फ का द्रव में अवस्था-परिवर्तन था। नाले पर बने अस्थायी पुल को पारकर हम खुले मैदान में आ गए।
यहाँ एक चौपाटी जैसा माहौल था। मेगी ,चिप्स, बिस्किट,चाय आदि की दुकानें सजीं थीं। स्कीइंग वाले तो वाकायदा स्टॉल लगाये हुए थे। हमने वहाँ चाय पी। बच्चों ने गर्मा -गर्म मेगी खाई। स्लेजवाहकों के साथ उनके कुछ लोग जुट गए। उनमें से एक ढपली बजाने लगा। जब तक है जान फिल्म का गीत 'जिया रे' की स्वर-लहरियाँ वहाँ गूंजने लगी। एक स्लेज-मैन नाच रहा था। हमने शौर्य को छोडा, तो वह उस गीत-संगीत पर अपनी कमर मटकाने लगा। अच्छा खासा मनोरंजन, बिल्कुल शूटिंग का सा माहौल बन गया।
हम सभी ने मुलायम बर्फ समेट कर एक बन्दर (मंकी) की आकृति बनाई, उसे सजाया, सँवारा और नाम दिया मन्ना (पौत्र शौर्य मंकी को मन्ना कहता है) उसके साथ फोटो खिंचवाए। बर्फ पर अपने नाम लिखे-सन्देश छोड़े यह जानते हुए कि बर्फ एक मायाबी स्वरुप है, छलावा है। कुछ देर बाद अपनी अवस्था परिवर्तन कर लेगा।अबीर (सबसे छोटा बेटा) बर्फ पर लेट-लेट कर पीठ से मार्डन-आर्ट बना रहा था, लगा उसने इस कला का पूर्वाभ्यास किया है।
स्कीईंग किसी को नहीं आती रही। हाँ! थोड़ी बहुत स्केटिंग सभी को आती थी। प्रशिक्षण लेकर या प्रशिक्षक के साथ स्कीईंग कठिन भी नहीं थी। हम लोगों ने उपकरण लिए, हल्के-फुल्के टिप्स लिए और दो-दो हाथ अजमाने लगे। चले, दौड़े, गिरे, चोट खाई, सहलाया और फिर उठकर चल दिए। यही तो जीवन का क्रम है। स्कीईंग न सही, परन्तु उसके लिए किया गया ईमानदार प्रयास ही हमारे लिए पर्याप्त था। ठीक वैसे, जैसे तैरने के लिए पानी में उतारना।
गुलमर्ग की गुलबादियों को चंद घण्टों में घूमना सम्भव नहीं, परन्तु हम अपने  हिसाब से चल रहे थे। स्लेज वाहक भी जल्दी में दिखे। सैलानियों की क्रमशः बढ़ती संख्या पर उनकी आँखें जमी हुईं थी। वे इस जुगत में रहे कि जल्दी से जल्दी हमसे फारिग हों। लौटते समय हमारा सलेजमेन बता रहा था
मई-जून में यहाँ मैदान में  सुन्दर हरियाली होती है। ऊपर के हिस्से में गुलमर्ग-गोंडोला के बगल में लीची के बगीचे होते हैं। सामने मैदान में पोनी-राइडिंग होती है। हाँ! ऊपर पहाड़ पर बर्फ होती है, जहाँ एडवेंचरस-स्पोर्ट्स होते हैं। विषयांतर होने पर वह बोला फिल्म वाले बड़ा धोका देते हैं। अभी-अभी आई फिल्म 'ये जवानी है दीवानी' के ट्रेकिंग-ट्रिप्स यहाँ गुलमर्ग में फिल्माए गए, जिन्हें मनाली का बताया जा रहा है। ऐसा और फिल्मों में भी होता है। हम लोग तो उनके स्वागत में पलक-पाँवड़े बिछाते हैं और वे हमारे साथ चिटिंग करते हैं।
स्लेज-वाहक ने यह भी बताया गुलमर्ग में कोई घर नहीं बनाता। पाकिस्तानी नियंत्रण रेखा (एल ओ सी) यहाँ प्रभाव डालती है। यहाँ की आबादी 500-600 ही है। होटल में रुकने वाले और होटल में काम करने वाले, बस! उसने यह भी बतलाया कि यह वास्तव में 'गौरी -मार्ग' है, माता गौरी (पार्वती) अपने पति भगवान शिव से मिलने इसी रास्ते से आती-जाती थीं। यूसुफ शाह चक ने इसका नाम बदलकर गुलमर्ग यानि फूलों का मैदान रख दिया।
वापिस आने पर स्लेज-वाहक ने हमसे पूछा -'गुलमर्ग कैसा लगा?' हमने कहा -'वाह! स्वर्णिम!! अलौकिक!!!' उसने अत्यन्त भावुक लहजे में कहा -'आप सैलानी हमारे लिये भगवान का प्रतिरूप हैं। आप आते हैं तो हमें और हमारे बच्चों को खाना मिलता है। आप प्रसन्न होंगे तो वापिस जाकर अपने चार दोस्तों को कहेंगे कि गुलमर्ग सुरक्षित है, तो चार लोग और आयेंगे। बीच में जब आतंकबादियों के कारण टूरिस्टों ने यहाँ आना बंद कर दिया था, तब कई दिनों हमारे घर में चूल्हा नहीं जला।' हमने उसे आश्वत किया कि हम वापिस लौट कर अपने मित्रों/परिचितों को अवश्य बतलायेंगे, ब्लॉग लिखेंगे। भारत का स्वर्ग ,कश्मीर ,पर्यटन के लिये पूर्णरूपेण सुरक्षित है।
एक छोटी सी जगह में लगभग 40 छोटे-बड़े होटल, तीन से पाँच सितारा तक। टेक्सी-ड्राइवर ने होटल हाईलैंड भी दिखाया, जहाँ फिल्म बॉबी की कुल शूटिंग हुई, विशेषकर वह गाना 'अंदर से कोई बाहर न जा सके'। लगभग 4.0 बजे हम टेंग मार्ग पहुंचे, किराये के फर-कोट और जूते वापिस किये। सभी को जोरों की भूख लगी थी। वहाँ के एक रेस्टॉरेन्ट में गर्म-गर्म आलू पराठे खाये। जो गुलमर्ग के गुमनाम उपन्यास में कृष्ण चन्दर द्वारा वर्णित पराठों जैसे स्वादिष्ट थे, वैसे ही चटखारे वाले, अंगुलियाँ चाटने वाले। एक-एक कप कहवा पिया और रास्ते में सेव के बाग देखते हुये हमने कश्मीर के बॉलीवुड को अलविदा कहा।

रविवार, 1 जून 2014

ऑन दा वे टू श्रीनगर

वैसा ही हुआ, जैसा हम पिछली रात सोच कर सोये थे। सभी देर से उठे। अगली यात्रा के लिए टेक्सी पड़ताल की, तो कोई भी ट्रेवल एजेंसी हमारे सीमित समय में श्रीनगर घुमाने को राजी नहीं हो रही थी। उनका कहना था -"श्रीनगर जाना है तो छह दिन चाहिये, तीन दिनों में पटनीटॉप, शिवखोड़ी होकर जम्मू के साइट सीन्स देख लीजिये। क्यों व्यर्थ पैसा बर्बाद करते हैं?" उनकी बात में दम था। परन्तु, हमारी अपनी मज़बूरी रही। समय वास्तव में कम था। हाँ! हमने जब अपना पक्ष रखा कि किसी एक शहर को सलीखे से घूमने के लिए दस दिन भी कम हैं, उसे एक दिन में भी देखा जा सकता है; तो वे हमसे सहमत हो गए। और एक नई इनोवा गाड़ी शुभम-ट्रेवल्स के माध्यम से प्राप्त हुई। हमारा टेक्सी-ड्राइवर राजू बहुत मिलनसार था। रास्ते में वह एक प्रशिक्षित गाइड की भाँति जम्मू-कश्मीर का इतिहास, भूगोल, संस्कार-संस्कृति, राजनैतिक एवं सामाजिक स्थिति अपने अंदाज में बयां करता रहा। बीच-बीच में जब हम चुप हो जाते या हल्के-हल्के झोंके लेने लगते तो वह 'भगत के वश में हैं भगवान' सी.डी.चालू कर देता। वह धाराप्रवाह हिंदी बोलता था, मोबाईल पर डोंगरी में बात करता था, बाद में पता चला कि वह मुसलमान था।
घुमावदार रास्ता बर्फ, वहाँ का कस्बाई जन-जीवन, दूर पहाड़ पर चांदी सी चमकती बर्फ हमें आकर्षित कर रही थी। मौसम सुहाना था। हम दा एक कल्पनालोक में प्रवेश कर रहे थे। महाभारत के मिथ से जुड़ते हुए सौरभ ने कहा -पाण्डवों ने वानप्रस्थ में इसी मार्ग से स्वर्गारोहण किया होगा? सच में, यदि स्वर्ग की कल्पना निराधार नहीं है, तो स्वर्ग का रास्ता इन्हीं नैसर्गिक वादियों से गुजरता होगा।
रास्ते में पटनीटॉप रुके। वैष्णव देवी से 40 किलोमीटर की दूरी पर, ऊधमपुरजिले में एक पिकनिक स्पॉट। निचली हिमालयन पर्वत मालाओं में समुद्र सतह से 2014 मीटर ऊपर। चिनाब नदी के किनारे-किनारे, वादियों का सौन्दर्य, माउंट-स्केप,पाइन-फारेस्ट, हरियाली, सुखद वातावरण। 20 अप्रैल की दोपहर, परंतु तापमान 15-16 डिग्री। हमारे टेक्सी-ड्राईवर ने बताया कि हम कभी भी आयें, इससे ज्यादा टेम्परेचर यहाँ नहीं रहता।
पटनीटॉप का वास्तविक नाम 'पाटन दा तालाब' था,जिसका अर्थ 'राजकुमारी का तालाब' रहा। ब्रिटिश राजस्व-दस्तावेजों में अपभ्रंशित होकर पटनीटॉप हो गया। एक जगह पतनितोप भी लिखा देखा। सैलानियों के लिये स्वर्ग इस स्थल को 'मिनी-कश्मीर' भी कहा जाता है। छोटी सी जगह में बहुत सारे टूरिस्ट हॉटल, सभी लबा लब। अभी ज्यादातर बंगाली परिवार, कुछ हनीमून कपल्स भी। नाथा टॉप में अच्छी खासी भीड़ रही। वहाँ के हरे-भरे खुले वातावरण में शौर्य (पौत्र) को तो मानो पर लग गए, उसने लॉन में खूब लोट लगाई, बहुत देर दौड़ा। हमने वहाँ पानीपुरी खाई, फोटो खिचवाई और सुकून के कुछ पल बिताये। यह स्थान मिलिटरी नियंत्रण से मुक्त है, अतः लगता है, यहाँ प्रकृति एवं प्रकृति-प्रेमी खुलकर साँस लेते है।
पटनीटॉप को पांव-पांव घूमते हुये हमने 600 वर्ष पूर्व निर्मित लकड़ी का बना नाग मंदिर (कोबरा मंदिर) देखा। वहाँ आयीं प्राकृतिक आपदाओं के बाद भी यथावत। इस मंदिर के गर्भगृह में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। यहाँ स्थानीय दस्तकारी और कशीदाकारी बेजोड़ है। कई विक्रय केन्द्र रहे जो पर्यटकों को ललचा रहे थे। एक कम उम्र का बाक-पटु बालक हमें 'बुलबुल का बच्चा' दिखाने के बहाने ले गया, परन्तु वहाँ कश्मीरी कम्बल बिक रहे थे। पूत के गुण पालने में देखकर हम हतप्रभ रह गए। वैसे यदि हमें मोल-भाव करना आता तो शाल और सलवार-शूट्स अच्छे और खरीदने योग्य रहे।
लौटते में, ड्राईवर ने बताया कि नवम्बर-दिसम्बर में यहाँ बर्फ पड़ती है। तब, स्थानीय आवागमन हेतु चैन टायर की गाड़ियाँ चलती हैं। वैसे शीघ्र ही राज्य-सरकार यहां रोपवे लगाने जा रही है, ट्रैकिंग, पैराग्लाइडिंग तथा मौंटेअरिंग के लिए आने वाले सैलानियों के लिए यह एक अच्छी ख़बर है।
पटनीटॉप छोड़ते ही वातावरण ठण्डा होने लगा। शीत लहर चलने लगी, लगा बर्फ गिरेगी। सभी खुश; बच्चों के मन-मयूर नाचने लगे। कुहासे के माहौल में लरजते पहाड़ी झरने कुछ अधिक शीतलता दे रहे थे। परन्तु दूसरी तरफ खाई से लहराते देवदार के वृक्ष गलबहियाँ डालने के लिए आतुर दिख रहे थे।
मानो, हमसे कुछ कहना चाहते हों-आपबीती भी, जगबीती भी। सच है, उनके पास बहुत है कहने-सुनाने के लिए। उन्होंने ही देखा है कल्हण की राजतरंगिणी का प्रवाह, उन्होंने ही तो सुनी है कवि कालिदास के मेघदूत की अनुगूँज। अशोक मौर्य से लेकर उमर अब्दुल्ला तक की सियासी गतिविधियों के समय साक्षी हैं ये देवदारु (देवताओं के लिए पेड़) वन। शिव-पुराण के आधार पर कहें तो, ये देवदार वन-भगवान शिव की बाट जोहते सिद्ध-साधु है, न जाने किस वेश या स्वरूप में प्रभु निकल जावें इसलिए हर आने-जाने वाले को वे नतमस्तक होते है। वैसे यदि देवदार के दो सीधे तने खड़े पेड़ों के मध्य अपलक दृष्टि जमायी जावें, तो वहां एक नई सृष्ट्रि जन्म लेती दिखाई देती है। चिंतन के नये आयाम खोलती हुई, हर बार नयी रोशन, हर बार नयी सोच, हर बार नया बिचार; लगता, देवदार के दो पेड़ नर और नारायण के अवतार हैं। उनके बीच एकाकार होती दुनियाँ, प्रकृति का पुरुष से मिलाप, जीवात्मा का परमात्मा में प्रवेश, जीवन का क्रम यूँ ही चलता है।
हमने अपने सिर को हौले से झटका, और बाहर के नज़ारे देखने लगा। पहाड़ की ढलान पर बने इक्के-दुक्के घर सुन्दर लग रहे थे। उनकी बाह्य दीवारें चटक रंगों से पुती थीं, जोउन में रह रहे लोगों की जीवट-वृत्ति की परिचायक थी। बर्फवारी -आक्रान्त क्षेत्र में घरों पर टीन की चादरें स्लोप में बिछी दिखीं, गिरी हुई बर्फ जल्दी से जल्दी बह जावे या नीचे खींची जा सके, यही सुविधा सोचकर यहाँ पक्की फ्लैट स्लेब नहीं ढालते। पटनीटॉप से
लगभग 50 किलोमीटर दूर रामबन आया, वहाँ के प्रसिध्द राजमा-चाँवल अनार की चटनी के साथ खाए। खाना खाते समय यहाँ से बगलिहार बांध का 370 मीटर का स्पिलवे स्पष्ट दिखाई दे रहा था। एन.एच.पी.सी. व्दारा निर्मित इस रन ऑफ़ द रिवर प्रोजेक्ट में 900 मेगावॉट विद्युत उत्पादन हो रहा है।
चिनाब नदी पर बना यह प्रोजेक्ट अंतर्राष्ट्रीय विवादों के कारण खूब चर्चित रहा। वैसे, इस राज्य में ऊर्जा-उत्पादन की असीम संभावनाएं हैं बशर्ते पाकिस्तानी पंचाट आड़े न आये।
टेक्सी ड्राईवर ने बातों-बातों में यह भी बतलाया कि एन.एच.ए.आई. चिनानी-नाजश्री टनल (लगभग 9.1 किलोमीटर) बनाकर जम्मू से श्रीनगर की दूरी 50 किलोमीटर कम कर रही है। इससे दो फायदे होंगे: एक, एलिवेशन में करीब 1.2 किलोमीटर कम होगा। दूसरा श्रीनगर की दूरी 5 घण्टों में तय हो सकेगी।
रास्ते में मीना (पत्नी) ने कान में दर्द की शिकायत की। पुत्रवधु (डॉ.) वर्षा ने बताया कि यह हाइट-फोबिया है। एक ऊचांई पर आकर ऑक्सीजन की कमी होने लगती है, जिससे कान में झनझनाहट, कान सुन्न पड़ना या कान तड़कने लगते हैं। हवाई यात्रा के समय भी ऐसा अनुभव होता है।

हमने टेक्सी रुकवाई। हम अपनी सड़क यात्रा की अधिकतम ऊँचाई पर थे। रोड किनारे एक टपरा था, जहाँ करीम मियां की भट्टी धूं-धूं कर जल रही थी और बाजु में कुछ कदम दूर एक खूबसूरत पहाड़ी झरना था। उसके ठंडे पानी के छींटे मारते ही नींद, सुस्ती, थकान सभी गायब, परन्तु ठण्ड से झुरझुरी दौड़ने लगी। सभी ने गर्म कपडे पहिने, गर्म चाय पी, और करीम मियाँ के बनाये पुए भट्टी में सेंक-सेंक कर खाए। सहज बातचीत ने कब आत्मीय सम्बन्ध स्थापित कर डाले? पता ही नहीं चला। 'चाय की दुकान' और 'एक प्याली चाय' की दुनिया ऐसी ही होती है। भट्टी की आंच ने ठुठरती हड्डियों को राहत दी। करीम मियाँ ने बताया कि ठण्ड में बर्फ सड़क पर उतर आती है, तब कई-कई दोनों तक आवागमन अवरुध्द रहता है। जम्मू-श्रीनगर मार्ग पर यातायात टप्प होना यानि कश्मीर की लय बिगड़ना है। अभी कल ही लैंड-स्लाइड के कारण घंटों ट्रैफिक जाम रहा। वास्तव में, बार्डर रोड के इंजीनियर बधाई के पात्र हैं, जो विषम परिस्थितियों में भी प्रकृति के विरुद्ध निर्माण करते हैं जन-जीवन की गति बनाये रखते हैं। करीम मियाँ ने बताया कि सामने ढलान पर उसका छोटा सा घर है। मौसम कैसा भी रहे, चाय की दुकान रोज खुलती है। चलते-चलते उन्होंने एक सलाह दी: आगे चाँवल नहीं खाना, मोटा चाँवल मिलता है, सभी को सूट नहीं करता, ब्रेड फुल्के चलेंगे। एक बड़े-बुजर्ग की बिना मांगे मिली सीख हमने गाँठ बांध ली।
राजू से बतियाते हुए हम ऐतिहासिक जवाहर सुरंग तक आ पहुंचे। 3 किलोमीटर लम्बी, जम्मू और कश्मीर के मध्य राष्ट्रीय राजमार्ग 1-ए पर यह इकलौती यात्रा-विकल्प है। प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू व्दारा लोकार्पित यह सुरंग मार्ग सुबह 5.00 बजे से रात्रि के 11.00 बजे तक खुला रहता है। इस पर बार्डर सिक्युरिटी फोर्स की सतत निगरानी रहती है। देश की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा में सीमा सुरक्षा बलों के साथ तैनात शक्तिमान ट्रकों को देखकर मन प्रसन्न हो गया। एक निजता, या यूँ कहें निजी संतुष्टि का अनुभव किया, क्योंकि ये ट्रक हमारे जबलपुर स्थित व्हीकल फैक्ट्री में बनते हैं।
रात्रि के 11.00 बजे हम होटल अलसमद पहुचें। मुस्लिम कल्चर और इंटीरियर से सुसज्जित, इसके कमरे आरामदायक तथा हवादार थे। श्रीनगर कभी आतंकवादियों और घुसपैठियों के कारण देशी-विदेशी सैलानियों के लिए असुरक्षित तथा बंद रहा, अब स्थिति सामान्य है। फिर भी, रात का समय, नया स्थान, नया वातावरण, हम कुछ तनावग्रस्त रहे। परन्तु होटल के रूम अटेण्डेंट अनवर का तकियाकलाम -'टेन्शन नहीं लेने का' हमें तनावमुक्त कर गया। रात में बहुत सुकून से नींद आई।

मंगलवार, 27 मई 2014

माँ वैष्णव देवी (अर्धकुंवारी से आगे का सफ़र)

अर्धकुंवारी से भवन तक पहुँचने के लिए हम लोगों ने नया वैकल्पिक रास्ता चुना। यह पुराने रास्ते की अपेक्षा आसान एवं आधा किलोमीटर कम था। यहाँ से निशक्त जनों, विकलांगों एवं सीनियर सिटीजन्स के लिए ऑटो रिक्शा चलते हैं। काउंटर से तीन सौ रुपये में आने-जाने का पास मिलता है, बीमारी का सर्टिफिकेट या षष्ठि-पूर्ति का प्रमाण पत्र दिखाने पर। इस रास्ते पर पहाड़ी से लुढ़कते पत्थरों का डर रहा। अस्थायी सुरक्षा बतौर चिन्हित स्थलों पर टीन के शेड्स लगाये गए हैं, परन्तु देर सबेर पहाड़ी तरफ कंक्रीट की दीवार बना स्थायी समाधान आवश्यक होगा।


रास्ते में दिल्ली के रघुनन्दन शर्मा (रिटायर्ड सेल्स टैक्स ऑफिसर) मिले, उम्र ७३ वर्ष, लेकिन कमर झुकी नहीं थी। लकड़ी तो सहारे के लिए ले रखी थी, परन्तु तनकर चलते थे। वे यात्रियों को बाहिरी रैलिंग के पास बैठने एवं उसे पकड़कर चलने के लिए मना कर रहे थे। आज की ही ताजा घटना उन्होंने सुनाई- दो-तीन लोग बच्चों सहित रैलिंग के पास बैठे थे, अचानक बंदरों ने उनपर धावा बोल दिया। वह तो शर्मा जी और अन्य लोगों ने अपनी लाठी से बंदरों को धमकाया-डराया, तब उनकी जान बची। शर्मा जी का एक तर्क और रहा- पहाड़ी से लुढ़कते पत्थर रैलिंग तरफ़ ही सीधी मार करते हैं। चर्चा में शर्मा जी ने यह भी बतलाया कि अर्धकुंवारी में उन्हें जलगांव की दो महिलाएं मिली थी, जिनका पर्स और पैसा गुम गया। शर्मा जी ने उन्हें एक सौ रुपया दिया और कुछ लोगों से पैसा दिलवाया; कम से कम वे अपने घर तो पहुँच सकेंगी। शर्मा जी से क्षमा मांग कर हम अपने परिजनों के साथ हो लिए।


भवन की स्वच्छ, निर्मल सौंदर्यमयी प्रथम छवि दिखते ही हम सभी का जी बाग़ बाग़ हो गया। हम सभी मारे ख़ुशी के नाचने लगे। बस! कुछ दूर और, मील के कुछ पत्थर पार करते ही मंज़िल तय। घुमावदार रास्ते के प्रत्येक सौ मीटर पर लगे चैनेज स्टोन को देखकर लगता, मानो हमारा कोई हितैषी-रिश्तेदार वहाँ खड़ा मुस्करा रहा है। हमारे आने पर प्रोत्साहित करता हुआ, हमारे आगे बढ़ते ही हमें 'बैक-सपोर्ट' दे रहा है।
यात्रा के प्रारंभ में हम सशंकित रहे। मैहर में माँ शारदा मंदिर की सीढ़ियां और मंडला के काला पहाड़ की सीधी चढ़ाई में असफलता के पूर्व अनुभव हमारे साथ थे। सच! यह माँ वैष्णव देवी की कृपा थी, हमें शक्ति मिली, हमने एक कठिन यात्रा को पूरा किया और शाम होते-होते मंदिर परिसर में प्रवेश पाया। दर्शनों हेतु लाइन में लगकर ऐसा लगा, मानो एक स्वप्न देख रहे हों। कभी कल्पना की थी, माता रानी के दर्शनों की, कब? कैसे? यह नहीं सोचा था। आनन-फानन बनी योजना और तत्काल रिज़र्वेशन की सुविधाओं का लाभ उठाते हुए हम आखिर, दरबार तक पहुँच ही गए। सपना जो सच होने जा रहा था। यात्रा के सारे कष्ट, शरीर की सारी थकान कुछ देर के लिए भूल गए। मन ने बाह्य कष्टों पर विचार करना छोड़ दिया। अन्तर्मन में सिर्फ और सिर्फ माँ की वही छवि उभरने लगी जो सामने क्लोज सर्किट टी.व्ही. पर दिखाई दे रही थी। वातावरण कुछ ठंडा हो गया था। हम सभी जर्सी, स्वेटर इत्यादि पहिनकर लाइन में अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे।
कतार में रहे सहयात्रियों से बतियाते, उनके दुःख-दर्द, उनकी सुखद अनुभूतियों को शेयर करते हुए हम आगे बढ़ते गए। हमारे साथ जो परिवार था, वह माता के दरबार में पहले भी आ चुका था। उन्होंने बताया कि मातारानी इस भवन में नीचे बनी गुफ़ा में है। हम सीढ़ी चढ़ते हुए ऊपर जाएंगे और फिर गुफ़ा के लिए नीचे उतरेंगे। माँ के दर्शन चौबीसों घंटे होते हैं, बस सुबह शाम आरती के समय विराम रहता है। मुख्य गुफ़ा में प्रवेश वर्जित है। वह रास्ता नवरात्रियों में खोला जाता है। नवरात्रियों की भीड़ और धक्का-मुक्की को याद कर, उन्होंने बतलाया कि वहाँ उपस्थित सुरक्षाकर्मी एवं व्यवस्था-प्रभारी मूर्ति के सामने रुकने नहीं देते। कई बार तो हम प्रकटित प्रतिरूपों के ठीक से दर्शन नहीं कर पाते और पीछे से धक्का या घुड़की आ जाती है और हम बाहर आ जाते हैं। इतना कष्ट सहकर हम जहाँ दर्शनों की लालसा लेकर आते हैं, वहां क्लोज सर्किट टी.व्ही. से ही संतुष्ट होना पड़ता है। हम लोग सोच रहे थे कि यदि आज भी ऐसा हुआ तो हमारा आगमन/प्रयास व्यर्थ होगा। खैर, मन ही मन जयकारा लगाते हुए जब हम गुफा द्वार पर आये तो एकल कतार बद्ध हो गए। गुफ़ा के अंदर के शांत, शीतल एवं सुगंधित वातावरण से मन में विश्वास जग रहा था कि माता रानी के ठीक-ठीक दर्शन हो जावेंगे।
और...वह स्वर्णिम क्षण आया जब हम प्रमुख प्रतिमाओं के सामने हाथ जोड़े खड़े थे। वहाँ तैनात सुरक्षाकर्मी की दबंग आवाज़ सुनाई दी-"अपने बाएं तरफ दृष्टि डालें जो खड़ी मूर्तियों के दर्शन आप कर रहे हैं उनके ठीक नीचे माता की स्वयंभू झांकियाँ हैं"।



हम अवाक थे, हतप्रभ थे, चमत्कार सा देख रहे थे। ऐसा लगा- हमारे आगे-पीछे कोई नहीं है। माँ का दिव्य दरबार है, उनकी मनोरम झांकियाँ हैं और हम अपलक उन्हें निहार रहे हैं। न कोई भीड़-भाड़ न कोई धक्का-मुक्की, न कोई पुलिस या घुड़की। माता के दर्शन की लालसा पूर्ण होते ही नेत्र स्वयमेव बंद हो गए, मानो उन दृश्यावलियों को सदा-सदा के लिए कैद करना चाहते हों। वहां उपस्थित पंडितजी ने हमारी तन्द्रा भग्न की-"थोड़े आगे आइये जजमान। हम आपको तिलक लगा दें"। हमने उसी स्थिति में अपना मस्तक आगे झुका दिया। भाल पर सिन्दूरी तिलक अंकित कर पंडितजी ने हौले से आगे बढ़ने का संकेत किया। हम इसे अपना सौभाग्य माने या मातारानी की कृपा। सच है उनकी मर्ज़ी के बिना तो यह सब संभव नहीं था। अन्य परिजनों के साथ जब अलीशा और शौर्य का क्रम आया तो पंडितजी ने शौर्य को मातारानी के चरणों में लिटाने की अनुमति दे दी। वर्षा को मातारानी के आशीष के रूप में चुनरी प्राप्त हुई। हम सभी प्रसन्न एक-दूसरे को इस यात्रा का श्रेय देने लगे परन्तु हमारे हिसाब से इस यात्रा का पुण्य 'शौर्य' को मिला, क्योंकि उसके साथ हम सभी को यह दर्शन लाभ मिला। एक बार पुन: माँ के श्री चरणों में नमन किया और गुफ़ा से बाहर आये।


काउंटर से प्रसाद लिया। अमानती सामग्री (मोबाइल, कैमरा, पर्स, चमड़े की सामग्री जूते इत्यादि) मुक्त कराये।

शारीरिक थकान अब हावी होने लगी थी। हमलोग जहाँ बैठे थे लगा वहीं बैठे-बैठे नींद आ जाएगी। परन्तु वह स्थल मुख्य प्रवेश द्वार से लगा था, उसे तो अन्य दर्शनार्थियों के लिए खाली करना था। भूख भी लग रही थी। मंदिर परिसर के बाहर थोड़ा बहुत खाना खाया, बिना लहसुन प्याज़ का-प्रसाद था। आत्मा तृप्त हुई, मन संतुष्ट हुआ। परन्तु शरीर शिथिल हो गया। खाने के बाद तो अपनी काया खुद को भारी लगने लगी। वापिस भी उतारना रहा। सुनते आये थे कि चढ़ाई की अपेक्षा उतरने में कष्ट होता है, अधिक ऊर्जा लगती है। स्वाभाविक है हमें अपने गुरुत्व केंद्र के विरुद्ध कार्य करना पड़ता है, कष्ट तो होगा ही। रात्रि के ग्यारह बज रहे थे। वहां का तापमान ठिठुरन भरा था। हमारे पास सीमित गरम कपडे रहे। यात्री निवास में जगह नहीं मिली। मंदिर से कम्बल लेकर रात काटी जा सकती थी, परन्तु फिर दूसरे दिन का कार्यक्रम बिगड़ जाता। सभी ने विचार कर वापिसी विकल्प घोड़े चुने। बाबा भैरवनाथ को प्रणाम कर मातारानी की निर्मल झाँकियाँ अपने अंतर्मन में सहेजे हम वापिस लौट पड़े।
घोड़े पर चढ़ने और चलने खासकर एक ऊंचाई से नीचे में डर लगा। एक दूसरे को ढाँढस बंधाते, प्रोत्साहित करते हम चल रहे थे। नेतृत्व सौरभ ने संभाला। अलीशा और शौर्य का साईस बहुत अच्छा था, वह बीच-बीच में शौर्य को अपनी गोद में ले लेता था। अबीर का घोड़ा और साईस अपेक्षाकृत सुस्त रहे, उसे बीच में लेकर चलना पड़ा। वर्षा का घोड़ा मालिक अक्सर घोडा छोड़कर मोबाइल पर बात करता रहता था और उसे लगातार वर्षा की डाँट खानी पड़ी। मीना का घोड़ा हमने लगभग साथ रखा था, क्योंकि हम जानते थे कि वह बहुत डरती है। हमारा घोड़ा मालिक बहुत अनुभवी रहा। लगातार हम लोगों से बात करता रहा और "टिकी-टिकी-टिकी" कर घोड़े को संकेत देता रहा। जहाँ सीधा उतार होता, वह आगे आ जाता और लगाम पकड़कर घोड़ा उतारता था। बाकी समय या तो हमारे साथ चलता या पीछे घोड़े की पूँछ पकड़कर। घोड़े पर बैठने और लम्बी यात्रा के प्रारंभिक सूत्र उसने हमे दिए-घोड़े पर बैठकर कमर सीधी रखना, लगाम पकड़ने के लिए उसने मना किया था।पकड़ने के लिए घोड़े पर कसी जीन से एक हत्था था। उसने यह भी हिदायत दी थी कि हम सीधे सामने या ऊपर का नज़ारा देखते चलें, नीचे न देखें। ऊंचाई  उतरने का यह फंडा हमें तो आता था, परन्तु दल के बाकी अश्वरोही इससे अनभिज्ञ थे। चौदह कि.मी. घोड़े की पीठ पर बैठकर यात्रा कल्पना से परे थी। ऊपर से रास्ते में घटती बढ़ती प्रकाश व्यवस्था। पैरों और जांघों में असहनीय पीड़ा हो रही थी परन्तु थकान और रात्रि के कारण पैदल मार्ग या सीढ़ियों से उतरने का रिस्क हमारा परिवार नहीं ले पाया। बड़े कष्ट की कल्पना ने छोटे कष्टों का डर समाप्त कर दिया।
साईस से हमने घोड़ों के इतने अभ्यस्त होने का राज़ पूछा तो उसने बतलाया कि यही उनकी आजीविका है। रोज़ वे और उनके घोड़े ऐसे ही यात्रियों को ऊपर नीचे ढ़ोते हैं। लगभग दो चक्कर प्रतिदिन हो जाते हैं। "कभी घोड़े फिसलते नहीं"? प्रश्न के उत्तर में उसने कहा-"कभी नहीं हुआ"।
और हम मातारानी से दुआ माँग रहे थे कि आज भी ऐसा न हो। क्योंकि हमने आज ही अपनी इस दुर्गम यात्रा में सबसे सुरक्षित सवारी पालकी को मय कहारों के गिरते और क्षतिग्रस्त होते देखा था।
हम सभी सकुशल लौट आये, मातारानी को बार-बार प्रणाम किया, जिनकी कृपा से यह यात्रा सम्पन्न हुई।

मंगलवार, 20 मई 2014

माचिस की ज़रूरत यहाँ नहीं पड़ती, यहाँ आदमी आदमी से जलता है।

व्यथा 
माचिस की ज़रूरत यहाँ नहीं पड़ती,
यहाँ आदमी आदमी से जलता है… 
दुनिया के बड़े से बड़े साइंटिस्ट ये ढूँढ रहे है कि मंगल गृह पर जीवन है या नहीं  
पर आदमी ये नहीं ढूँढ रहा कि जीवन में मंगल है या नहीं... 
ज़िन्दगी में ना जाने कौनसी बात "आख़री" होगी,
ना जाने कौनसी रात "आख़री" होगी…  
मिलते, जुलते, बातें करते रहो यार एक दूसरे से,
ना जाने कौनसी "मुलाक़ात" आख़री होगी… 
अगर ज़िन्दगी में कुछ पाना हो तो 
तरीके बदलो, इरादे नहीं… 
ग़ालिब ने खूब कहा है… 
ऐ चाँद तू किस मजहब का है 
ईद भी तेरी और करवाचौथ भी तेरा।
 

चित्रकार: रजनी पवार, इंदौर
जीवन 

रविवार, 18 मई 2014

माँ वैष्णव देवी (अर्धकुंवारी तक का सफ़र)

अमृतसर से कटरा वाया जम्मू लक्ज़री बस से ओवरनाइट यात्रा कुछ थका देने वाली रही। विकल्प यदि ट्रैन चुनी होती तो जम्मू तक तो आराम रहता। हाँ, जम्मू से कटरा तो बस ही मिलती। वैसे जम्मू से कटरा तक एक रेल लाइन का कार्य प्रगति पर है और शीघ्र ही तीर्थयात्री सीधे कटरा तक रेल द्वारा पहुँच सकेंगे। ऐसी सुविधा मुहैय्या कराने के लिये रेल विभाग साधुवाद का पात्र है।
कटरा में होटल हिल व्यू पहले से बुक करवा रखा था, वहाँ की पिक-अप वेन आई और हमें हमारे लगेज के साथ ले गई। होटल पहुँच कर नहाया, तैयार हुए और माँ वैष्णव देवी के मन्दिर प्रवेश हेतु फोटो आई.डी. बनवाया। यह निःशुल्क प्रवेश पत्र छह घंटो तक मान्य होता है। मंदिर तक पहुँचने के लिये लगभग १५-१६ कि.मी. की चढ़ाई रही, पदयात्रियों के लिये सीढ़ियों के अलावा घुमावदार रास्ता था, घोड़े, पालकी और हेलीकाप्टर अन्य विकल्प थे।
हम लोगों ने पैदल माँ के दरबार तक पहुँचने का संकल्प किया, यह जानते हुए कि मुझे और मीना दोनों को पैदल चलने में तकलीफ होती है और नन्हा सहयात्री शौर्य, उसे तो गोद में एप्रन में ले जाना पडेगा।
रास्ते में दस-दस रुपयों की लाठियां मिल रही थी। जब हमने उसे खरीदना चाहा तो मीना ने मना कर दिया, 'हम दोनों एक दूसरे की लाठी (सहारा) बन कर मातारानी के दरबार तक पहुँच जाएंगे'। उसके आत्मविश्वास को सम्मान देते हुए हमलोगों ने एक जयकारा लगाया और आगे बढ़ गये।

भीड़-भाड़, रास्ते में घोड़ों-टट्टुओं की आवाजाही, उनकी लीद से उत्पन्न दुर्गंध, प्रसाद एवं अन्य सामग्री बेचने वालों के दलालों का ढ़ीठ आग्रह, घोड़ों-टट्टुओं और पिट्ठुओं को लेने अनुरोध; प्रथमदृष्टया माहौल अप्रियकर रहा। शनै:-शनै: हम सभी अभ्यस्त हो गये। रास्ते-रास्ते चाय, स्वल्पाहार, ठंडे पेय पदार्थ, प्रसाद, देवी श्रृंगार सामग्री, ड्रायफ्रूट्स की दुकानें। वहीँ जगह जगह बने मसाज सेंटर भी आकर्षण के केन्द्र रहे। मुख्य मंदिर में प्रसाद वहीं से मिलता है अत: हमलोग मातारानी के लिये चुनरी एवं श्रृंगार सामग्री ले लिये। वैष्णव देवी संस्थान द्वारा जगह जगह शेड्स, शौचालय एवं शीतल जल की व्यवस्था थी। हम रुकते-रुकते माँ का गुणगान करते बीच-बीच में पौत्र शौर्य के लिए गोदी बदलते हुए ऊपर की ओर बढ़ रहे थे। दल की कमज़ोर कड़ी तो हम तीन थे- मैं, मीना और मासूम शौर्य। जहाँ हम थोड़े से भी थककर सुस्त होते, काफिला रुक जाता। हमलोग बैठ जाते, शौर्य एप्रन से निकल कर खुले में खेलने लगता और बाकी सदस्य चुट-पुट खाने या सॉफ्ट ड्रिंक्स का बहाना खोज लेते।
यात्रा की चढ़ाई हमें मालूम थी, हमारे पैरों के सामर्थ्य की हमें जानकारी रही। परिवार साथ था अत: बिना किसी चिंता के पाँव-पाँव आगे बढ़ते गए। सच है 

मंज़िल भले दूर हो,
रास्ता हो कठिन। 
कन्धा मिलाकर साथ चले, 
तो कुछ नहीं मुश्किल॥
 
दर्शन कर लौटते श्रद्धालुओं के चेहरे पर ख़ुशी और परितोष हमारा उत्साह वर्धन करती थी। उन्हें देखकर हमलोग माता का जयकारा लगा देते, वे भी माता रानी की जय बोलते हुए आगे बढ़ जाते। लौटने वाले हम लोगों को नहीं जानते थे और न हम उन्हें- परन्तु जब हम उन्हें देखकर मुस्कराते तो उनके चेहरे की ख़ुशी दुगनी हो जाती। वे ऐसा व्यवहार करते मानो हम उनके सगे-सम्बन्धी हों। मुल्ला नसरुद्दीन की यह नसीहत जीवन में कितना काम आती है।  
अर्धकुंवारी पहुँचने के पूर्व ही हमारा दम टूटने लगा। तब वर्षा ने सहजता से एक बात कही- "हमारे आगे बढ़ाये दो कदम माता रानी तक पहुँचने की दूरी कम कर रहे हैं"। हम सभी में एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ और माता रानी की जय बोलकर हम आगे कदम बढ़ाने लगे। रास्ते में एक आदमी मिला। उसने हम से पूछा- 'बैक सपोर्ट चाहिए?'। हमारी समझ में नहीं आया कि वह किस 'स्पोर्ट' की बात कर रहा है। विस्तार से पूछने पर उसने पीछे से एक हाथ हमारी कमर पर और एक हाथ पीठ पर लगाया और लगभग धकाते हुए चलने लगा। समझ में आया कि वह पीछे से हमे सपोर्ट देगा, जिससे हमें आगे बढ़ने में कठिनाई नहीं होगी। हम सभी हंसी-ठिठौली के माहौल में आए। सौरभ ने कहा- "कमर का पट्टा बांधकर आना था"। अलीशा बोली- "हमारे राजस्थान में कमर में फेंटा बांधकर चलते हैं"। 'कमर कसना' एक प्रचलित मुहावरा भी है। बात बदलते-बदलते पॉलिटिकल सपोर्ट लीडरशिप तक पहुँच गयी। माहौल को हल्का फुल्का रखने के लिए हम सभी एक दूसरे को बैक सपोर्ट देने लगे और सीखा कि कमर और पीठ सीधा रखकर ऊपर चढ़ने में कम तकलीफ़ होती है।
धीरे-धीरे रुकते रुकाते हम अर्धकुंवारी पहुँच गए। वहाँ पहुँचने पर हमे पता चला कि वहाँ की कैंटीन पहले ही दो घण्टों के लिए बंद हो चुकी थी। वहाँ न बैठने की व्यवस्था थी न खाने की। अंतत: रास्ते में मिल रहे वेफर्स और बिस्कुट से ही काम चलाया।
मंज़िल अभी दूर थी सफ़र अभी भी बाकी था। 

इस कड़ी के अन्य लेख क्रमानुसार इस प्रकार हैं 
५. माँ वैष्णव देवी (अर्धकुंवारी तक का सफ़र)        



सोमवार, 12 मई 2014

सोना नहीं, चांदी नहीं हीरा तो मिला! उन्नाव का डोंडिया खेड़ा गाँव

अक्टूबर २०१३ संत शोभन सरकार के उस सपने का साक्षी है जिस सपने ने सरकार की नीँदें  उड़ा दीं। एक हज़ार टन सोने की चाह में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की बीस सदस्यीय टीम उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के डोंडिया खेड़ा गाँव में लगी रही। डेढ़ सौ साल से वीरान पड़े किले के नीचे एक हज़ार टन सोने की संभावना से सरकारी महकमे, मीडिया एवं लगभग दस हज़ार लोगों की भीड़ ने डोंडिया खेड़ा एवं उसके इतिहास को पूरे विश्व में चर्चा में ला दिया।

Unnao Treasure Hunt
 महीने भर चली खुदाई में .एस.आई के हाथ कुछ भी नहीं लगा। यूँ तो संतों के आदेशों एवं निर्दोशों पर अनेकोँ राजा-महाराजा निर्माण कार्य कराते रहे हैँ किन्तु लोकतांत्रिक भारत की संभवत: यह पहली ही घटना है जबकी किसी सन्त के सपने को सरकार ने इतनी तवज्जो दी हो। कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। आर्थिक संकट से गुज़र रही भारत सरकार ने एक हज़ार टन सोने में एक बड़ा समाधान खोजते हुए डोंडिया कला में ख़ुदाई का निर्णय ले लिया। इस खुदाई में कुछ मिला हो अथवा ना मिला हो एक ऐसे इतिहास को प्रकाश में ज़रूर ला दिया जिसकी कीमत सन्त के ख़ज़ाने की कीमत से कहीं ज़्यादा है। इस खुदाई से पहले राजा राव राम बख़्श सिंह की शहादत के बारे में कौन जानता था? कौन जानता था डोंडिया खेड़ा का किला?

इस खुदाई के घटनाक्रम मे मीडिया ने १८५७ के क्रांतिकारी राजा राव बख़्श सिंह के बलिदान और उससे जुड़े इतिहास को जमकर याद किया। इतिहासकार बताते हैं कि राजा राव राम बख़्श सिंह ने जून १८५७ की क्रांति में डिलेश्वर मंदिर में छिपे बाराह अंग्रेजोँ को ज़िंदा जला दिया था। इनमें जनरल डीलाफोंस भी मौजूद थे। बदले में अंग्रेज़ों ने राजा राव को फ़ाँसी की सज़ा सुनाई। कहते हैं चंद्रिका देवी के भक्त राजा राव राम बख़्श सिंह को तीन बार फाँसी पर चढ़ाया।  तब कहीं उन्होने अपने प्राण त्यागे थे। ऐसे लौहपुरुष बहादुर देशभक्त की चर्चा क्रांतिकारी इतिहास की किसी पुस्तक मे दर्ज नही है। हालांकि हाल के वर्षों में भूले बिसरे क्रांतिकारियों के इतिहास पर पर्याप्त लिखा गया है किन्तु राजा राव बख़्श सिंह की शहादत की सुध किसी ने नही ली है। भला हो संत शोभन सरकार का जिन्होने खजाने की चाह में लुप्त प्राय: इतिहास को उजागर करवा दिया।

उन्नाव के डोंडियाखेड़ा गाँव का इतिहास अत्यंत प्राचीन है जिसका ज़िक्र पुराणों में है। छठवीं शताब्दी में चीनी यात्री व्हेनसांग भी यहाँ से गुज़रा था, उन्नाव के इतिहास में यह उल्लेख है। स्थानीय मान्यता के अनुसार गौरी-गजनवी के हमलों के समय पूरे अवध प्रान्त की जागीरें और स्थानीय साहुकार भी अपने ख़जाने गंगा के किनारे स्थित इस सबसे सुरक्षित माने जाने वाले किले में रखते थे। गांव-गांव में इसकी मालदार हैसियत की काफी चर्चा है। मगध और दिल्ली के बीच बचा यह क्षेत्र व्यापारिक मार्ग था जिस कारण यहाँ दुर्ग का निर्माण करवाया गया।



कन्नौज के इतिहास से पता चलता है कि कभी यह भर राजाओं के अधीन था। तेहरवीं शताब्दी में यह क्षेत्र अर्गल राजाओं के अधिसत्ता में गया था सन १३२० के आसपास इस क्षेत्र में बैस राजपूतों का उदय हुआ। राजा अभय सिंह एक प्रभावशाली बैस राजा साबित हुआ। राजा अभय सिंह एवं उनके उत्तराधिकारियों ने इस क्षेत्र को पूर्णरूपेण भर राजाओं से मुक्त करा दिया।

लगभग १५वीं शताब्दी में राजा मर्दन सिंह का नाम आता है, जिन्होने मुगलों से बचने के लिये किले का नवनिर्माण करवाया। जहाँगीर के शासनकाल मे यहाँ का किला कोषगार के रुप में प्रयुक्त होने लगा। इसके पश्चात सोलहवीं शताब्दी में राजा त्रिलोकचन्द हुए जिन्होने पूरे बैसवारा क्षेत्र पर अपना क़ब्ज़ा कर लिया था। इस समय इस क्षेत्र को संग्रामपुर कहा जाता था। १७वीं शताब्दी में राजा राव बख़्श सिंह हुए जो बहुत प्रभावशाली थे। इस सम्पूर्ण क्षेत्र में इस राजा को अत्यन्त सम्मान से देखा जाता है। डोंडियाखेड़ा के किले के पास बने एक पार्क में बैस राजा राजा राव बख़्श सिंह की अश्वरोही प्रतिमा लगी हुई है। रही बात इस राजा की मालदार हैसियत की तो विलियम हॉवर्ड रस्सेल की किताब 'माय इंडियन डायरी', अमृतलाल नागर की किताब 'ग़दर के फूल' और 'कानपुर का इतिहास खण्ड एक' में लिखा गया है कि राजा राव बख़्श सिंह महाजनी करते थे। कलकत्ता-कानपुर के व्यापारी ही नहीं नाना साहब पेशवा भी अपना सोना उसके पास रखते थे।

ऐसे समृद्ध इतिहास की धरोहर डोंडियाखेड़ा गांव और १८६७ का वीर क्रांतिकारी राजा राव बख़्श सिंह की शहादत सन्त शोभन सरकार के सपने से सामने आई है। यूँ तो संत शोभन सरकार फतेहपुर के आदमपुर गांव में ढ़ाई हज़ार टन सोने की बात को पुन: तूल दे रहे हैं पर सरकार उन्हें तवज्जो नही दे रही है। उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया है। किन्तु यदि सपनों के सपने देखने से कोई इतिहास सामने आता है तो ऐसे सपने रोज़ देखे जाने चाहिये। ऐसा लगता है कि कहीं शोभन सरकार उपेक्षित पड़े किले, हवेलियां, महल, पुरा सम्पदा और भूले-बिसरे क्रांतिकारियों का इतिहास संजोने और संवारने की ओर तो सरकार को इशारा नही कर रहे हैं, क्योंकि ये राष्ट्र की वे सम्पदाएं हैं जिनकी कीमत एक हज़ार टन अथवा ढ़ाई हज़ार टन सोने से कहीं ज़्यादा है। ये सम्पदाएँ देश के माणिक और मोती हैँ। इस खुदाई से सोना या चांदी भले ही ना मिला हो किन्तु राजा राव बख़्श सिंह रूपी हीरा अवश्य मिला है।

लेखक: शैलेन्द्र सिंह भदौरिया, ग्वालियर