सोमवार, 12 मई 2014

सोना नहीं, चांदी नहीं हीरा तो मिला! उन्नाव का डोंडिया खेड़ा गाँव

अक्टूबर २०१३ संत शोभन सरकार के उस सपने का साक्षी है जिस सपने ने सरकार की नीँदें  उड़ा दीं। एक हज़ार टन सोने की चाह में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की बीस सदस्यीय टीम उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के डोंडिया खेड़ा गाँव में लगी रही। डेढ़ सौ साल से वीरान पड़े किले के नीचे एक हज़ार टन सोने की संभावना से सरकारी महकमे, मीडिया एवं लगभग दस हज़ार लोगों की भीड़ ने डोंडिया खेड़ा एवं उसके इतिहास को पूरे विश्व में चर्चा में ला दिया।

Unnao Treasure Hunt
 महीने भर चली खुदाई में .एस.आई के हाथ कुछ भी नहीं लगा। यूँ तो संतों के आदेशों एवं निर्दोशों पर अनेकोँ राजा-महाराजा निर्माण कार्य कराते रहे हैँ किन्तु लोकतांत्रिक भारत की संभवत: यह पहली ही घटना है जबकी किसी सन्त के सपने को सरकार ने इतनी तवज्जो दी हो। कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। आर्थिक संकट से गुज़र रही भारत सरकार ने एक हज़ार टन सोने में एक बड़ा समाधान खोजते हुए डोंडिया कला में ख़ुदाई का निर्णय ले लिया। इस खुदाई में कुछ मिला हो अथवा ना मिला हो एक ऐसे इतिहास को प्रकाश में ज़रूर ला दिया जिसकी कीमत सन्त के ख़ज़ाने की कीमत से कहीं ज़्यादा है। इस खुदाई से पहले राजा राव राम बख़्श सिंह की शहादत के बारे में कौन जानता था? कौन जानता था डोंडिया खेड़ा का किला?

इस खुदाई के घटनाक्रम मे मीडिया ने १८५७ के क्रांतिकारी राजा राव बख़्श सिंह के बलिदान और उससे जुड़े इतिहास को जमकर याद किया। इतिहासकार बताते हैं कि राजा राव राम बख़्श सिंह ने जून १८५७ की क्रांति में डिलेश्वर मंदिर में छिपे बाराह अंग्रेजोँ को ज़िंदा जला दिया था। इनमें जनरल डीलाफोंस भी मौजूद थे। बदले में अंग्रेज़ों ने राजा राव को फ़ाँसी की सज़ा सुनाई। कहते हैं चंद्रिका देवी के भक्त राजा राव राम बख़्श सिंह को तीन बार फाँसी पर चढ़ाया।  तब कहीं उन्होने अपने प्राण त्यागे थे। ऐसे लौहपुरुष बहादुर देशभक्त की चर्चा क्रांतिकारी इतिहास की किसी पुस्तक मे दर्ज नही है। हालांकि हाल के वर्षों में भूले बिसरे क्रांतिकारियों के इतिहास पर पर्याप्त लिखा गया है किन्तु राजा राव बख़्श सिंह की शहादत की सुध किसी ने नही ली है। भला हो संत शोभन सरकार का जिन्होने खजाने की चाह में लुप्त प्राय: इतिहास को उजागर करवा दिया।

उन्नाव के डोंडियाखेड़ा गाँव का इतिहास अत्यंत प्राचीन है जिसका ज़िक्र पुराणों में है। छठवीं शताब्दी में चीनी यात्री व्हेनसांग भी यहाँ से गुज़रा था, उन्नाव के इतिहास में यह उल्लेख है। स्थानीय मान्यता के अनुसार गौरी-गजनवी के हमलों के समय पूरे अवध प्रान्त की जागीरें और स्थानीय साहुकार भी अपने ख़जाने गंगा के किनारे स्थित इस सबसे सुरक्षित माने जाने वाले किले में रखते थे। गांव-गांव में इसकी मालदार हैसियत की काफी चर्चा है। मगध और दिल्ली के बीच बचा यह क्षेत्र व्यापारिक मार्ग था जिस कारण यहाँ दुर्ग का निर्माण करवाया गया।



कन्नौज के इतिहास से पता चलता है कि कभी यह भर राजाओं के अधीन था। तेहरवीं शताब्दी में यह क्षेत्र अर्गल राजाओं के अधिसत्ता में गया था सन १३२० के आसपास इस क्षेत्र में बैस राजपूतों का उदय हुआ। राजा अभय सिंह एक प्रभावशाली बैस राजा साबित हुआ। राजा अभय सिंह एवं उनके उत्तराधिकारियों ने इस क्षेत्र को पूर्णरूपेण भर राजाओं से मुक्त करा दिया।

लगभग १५वीं शताब्दी में राजा मर्दन सिंह का नाम आता है, जिन्होने मुगलों से बचने के लिये किले का नवनिर्माण करवाया। जहाँगीर के शासनकाल मे यहाँ का किला कोषगार के रुप में प्रयुक्त होने लगा। इसके पश्चात सोलहवीं शताब्दी में राजा त्रिलोकचन्द हुए जिन्होने पूरे बैसवारा क्षेत्र पर अपना क़ब्ज़ा कर लिया था। इस समय इस क्षेत्र को संग्रामपुर कहा जाता था। १७वीं शताब्दी में राजा राव बख़्श सिंह हुए जो बहुत प्रभावशाली थे। इस सम्पूर्ण क्षेत्र में इस राजा को अत्यन्त सम्मान से देखा जाता है। डोंडियाखेड़ा के किले के पास बने एक पार्क में बैस राजा राजा राव बख़्श सिंह की अश्वरोही प्रतिमा लगी हुई है। रही बात इस राजा की मालदार हैसियत की तो विलियम हॉवर्ड रस्सेल की किताब 'माय इंडियन डायरी', अमृतलाल नागर की किताब 'ग़दर के फूल' और 'कानपुर का इतिहास खण्ड एक' में लिखा गया है कि राजा राव बख़्श सिंह महाजनी करते थे। कलकत्ता-कानपुर के व्यापारी ही नहीं नाना साहब पेशवा भी अपना सोना उसके पास रखते थे।

ऐसे समृद्ध इतिहास की धरोहर डोंडियाखेड़ा गांव और १८६७ का वीर क्रांतिकारी राजा राव बख़्श सिंह की शहादत सन्त शोभन सरकार के सपने से सामने आई है। यूँ तो संत शोभन सरकार फतेहपुर के आदमपुर गांव में ढ़ाई हज़ार टन सोने की बात को पुन: तूल दे रहे हैं पर सरकार उन्हें तवज्जो नही दे रही है। उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया है। किन्तु यदि सपनों के सपने देखने से कोई इतिहास सामने आता है तो ऐसे सपने रोज़ देखे जाने चाहिये। ऐसा लगता है कि कहीं शोभन सरकार उपेक्षित पड़े किले, हवेलियां, महल, पुरा सम्पदा और भूले-बिसरे क्रांतिकारियों का इतिहास संजोने और संवारने की ओर तो सरकार को इशारा नही कर रहे हैं, क्योंकि ये राष्ट्र की वे सम्पदाएं हैं जिनकी कीमत एक हज़ार टन अथवा ढ़ाई हज़ार टन सोने से कहीं ज़्यादा है। ये सम्पदाएँ देश के माणिक और मोती हैँ। इस खुदाई से सोना या चांदी भले ही ना मिला हो किन्तु राजा राव बख़्श सिंह रूपी हीरा अवश्य मिला है।

लेखक: शैलेन्द्र सिंह भदौरिया, ग्वालियर