रामसेतु को कोई मिथकीय कल्पना मानता है, तो कोई पुरा आख्यान। हिन्दू पुराण परम्परा के अनुसार आज से लगभग साढ़े सत्रह लाख वर्ष पूर्व भगवान् राम और उनकी वानर सेना ने इसी मार्ग से पैदल समुद्र पार कर लंका पर विजय प्राप्त की थी। कर्मकाण्डियों का विश्वास है कि सेतु-तीर्थ पर स्नान अन्तःकरण को शुध्द करता है, तथा मोक्ष प्रदान करता है, परन्तु मेरे लिए तो यह सेतु अभियन्त्रण की उत्कृष्ट संरचना है, एक ‘वण्डरफुल रियालिटी! अद्भुत्!! यथार्थ!!
रामसेतु की प्रारम्भिक संकल्पना - भारत के दक्षिणी-पूर्वी तट पर स्थित रामेश्वरम् और श्रीलंका के तलाई-मन्नार के मध्य रामसेतु/राघव-सेतु, समुद्री सतह से न्यूनतम 3 फुट एवं अधिकतम 30 फीट नीचे स्थित है। अमेरिकी अन्तरिक्ष अनुसंधान एजेन्सी नासा के उपग्रह जेमिनी-द्वितीय ने सन् 1966 में इस लुप्त सेतु की प्रथम तस्वीरें पृथ्वी पर भेजी थी। नासा इस सेतु के पौराणिक या ऐतिहासिक महत्व से अनभिज्ञ था। अतः उसने इसका नाम ‘एडम्स-ब्रिज’ या ‘आदम-पुल’ रखा। इसरो (भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन) ने 26 अक्टूबर 2003 को इसके चित्रों को सार्वजनिक किया।
रामसेतु |
पुराण कहते है कि त्रेता-युग में जब भगवती सीता को राक्षसराज रावण हरण कर लंका ले गया, तब समुद्री-मार्ग (एक सौ योजन) पार करने के लिए भगवान् राम और वानर सेना के समक्ष तीन विकल्प रहे -
समुद्र पर सेतु का निर्माण कैसे हो? इसका समाधान भी स्वयं समुद्र ने दिया- ‘‘भगवान्! आपकी सेना में नल नाम वानर मौजूद है, वह बड़े-बड़े शिल्पियों में श्रेष्ठ है। महाबली एवं गुणील नल साक्षात् विश्वकर्मा (आदि – अभियन्ता) का पुत्र है। वह अपने हास से कुछ भी काठ, तृण अथवा पत्थर मेरे ऊपर फेंकेगा, वह सब में पानी के ऊपर धारण करूंगा। वही आपके लिए सेतु हो जायेगा, उसी के द्वारा आप रावणपालित लंका में सेना सहित जाइये’’ - अभियन्ता नल को मिले इसी श्रेय के कारण कुछ तमिलग्रन्थों में इस सेतु की चर्चा ‘नल-सेतु’ के नाम से भी मिलती है।
1. समुद्र को तैरकर पार करना यह आत्मघाती तरीका था, क्योंकि समुद्री-मार्ग पर लंका की सतत एवं
मायावी चैकसी नियत थी।
2. समुद्र को नौकाओं या जलयान से पार करना किन्तु इती संख्या में नौकाओं की तत्काल
व्यवस्था सम्भव नहीं थी।
3. समुद्र - मार्ग पर पुल का निर्माण प्रभु श्रीराम ने किष्किन्धा के राजा
सुग्रीव एवं विभीषण (जिन्हें लका का भावी उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था) से
विचार-विमर्श किया और उनके सुझाव पर समुद्र का आह्वाहन किया। स्कन्दपुराण एवं
पद्मपुराण के अनुसार समुद्र ने अपने ऊपर सेतु-निर्माण का विकल्प सुझाया था।
समुद्र पर सेतु का निर्माण कैसे हो? इसका समाधान भी स्वयं समुद्र ने दिया- ‘‘भगवान्! आपकी सेना में नल नाम वानर मौजूद है, वह बड़े-बड़े शिल्पियों में श्रेष्ठ है। महाबली एवं गुणील नल साक्षात् विश्वकर्मा (आदि – अभियन्ता) का पुत्र है। वह अपने हास से कुछ भी काठ, तृण अथवा पत्थर मेरे ऊपर फेंकेगा, वह सब में पानी के ऊपर धारण करूंगा। वही आपके लिए सेतु हो जायेगा, उसी के द्वारा आप रावणपालित लंका में सेना सहित जाइये’’ - अभियन्ता नल को मिले इसी श्रेय के कारण कुछ तमिलग्रन्थों में इस सेतु की चर्चा ‘नल-सेतु’ के नाम से भी मिलती है।
सेतु-निर्माण
1. प्रारंभिक सर्वेक्षण - जब भियंता नल को सेतु-निर्माण का दायित्व सौंपा गया, तो उन्होंने इसे चुनौती के रूप में स्वीकारा। उन्होंने समुद्र-विज्ञान विशेषज्ञ नील को अपना सहयोगी चुना। सेतु-निर्माण के लिए वैकल्पिक स्थलों की खोज की गयी। इस कार्य में उन्हें अनुभवी पवनपुत्र हनुमान जी का भरपूर सहयोग मिला, वे समुद्री-मार्ग से लंका होकर लौटे थे- उन्हें इस मार्ग में आनेवाली कठिनाइयों-असुविधाओं का ज्ञान था। धनुष्कोटि से तलाई-मन्नार के मध्य समुद्र की लम्बाई एक सौ योजन (लगभग 30 किलोमीटर) थी। यहाँ समुद्र बहुत छिछला था। जगह-जगह द्वीप (पहाड़ के शिखर) उभरे थे। सर्वसम्मति से इसी संरेखण (अप्लाइनमेन्ट) पर सेतु-निर्माण की अन्तिम स्वकृति हुई।
2. निर्माण सामग्री - एक सौ योजन लम्बे व एक योजन चैड़े सेतु के निर्माण के लिए सामग्री जुटाना एक कठिन कार्य रहा, वह भी निकटवर्ती क्षेत्रों से, क्योंकि दूरस्थ्ज्ञ स्थलों से निर्माण-सामग्री लाना श्रम एवं समय का अपव्यय था। राम दल के सबसे वयोवृध्द सदस्य जाम्बवन्त को रामेश्वरम् एवं पम्बन में स्थित अनुपयोगी पर्वतों की जानकारी थी, जहाँ चूने व बालू की अनगढ़ चट्टानें थी। कुछ जंगल भी थे, जिन्हें समतल कर भविष्य की आबादी को कृषि कार्य हेतु भूमि, उपलब्ध कराना प्रस्तावित था। यही सामग्री सेतु-निर्माण के लिए निकटतम दूरी पर उपलब्ध रही।
रामनाथपुरम् डिस्ट्रिक्ट गजेटियर 1972 सुरपष्ट लिखता है, ‘यह सेतु बालू और पत्थरों से बना है, विशेषतः चूने के पत्थर (लाइमस्टेन) से।’ नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ़ ओशियन टेक्नोलॉजी द्वारा इस सेतु के कुछ स्थलों पर की गयी बोरिंग बतलाती है कि सेतु के 6 मीटर के हिस्से में समुद्री रेतु, कोरल्स (मूंगा) केलकेरियस सैण्ड स्टेान और निर्माण की सामग्री जैसे पत्थर मिले। जियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इण्डिया के पूर्व निदेशक डा. बद्रीनारायण का मत है कि रामसेतु में जो पत्थर मिले हैं, वे समुद्री नहीं है। इन्हें किसी प्रयोजन से यहाँ पर डाला गया होग, इन्हें कहीं बाहर से लागया गया होगा।
3. सेतुमूल की स्थापना - सेतु-निर्माण का कार्य निर्विध्न सम्पन्न हो, अतः शुभ मुहूर्त में प्रभु श्रीराम ने गणेश पूजा की और अपने आराध्य महादेव जी को स्मरण किया। तत्पश्चात् भूमि और समुद्र-पूजन कर नौक प्रस्तर (शिलाखण्ड) स्थापित किये। देवीपुर के पास स्थित वे पत्थर आज भी पूजे जाते हैं, वे ही सेतु के मूल कहलाते हैं। समुद्र को जिस स्थान पर सबसे पहले बाँधा गया, वह स्थल देवीपत्तनम् (पूर्वी किनारा) एवं सेतु का पश्चिम किनारा दर्भशयनम् तीर्थ कहलाता है।
4. सेतु निर्माण प्रविधि - पानी के अन्दर निर्माण विशिष्ट विद्या है, जिसकी तकनीकी सामान्य से पृथक् होती है, विशेषकर समुद्री पानी के अन्दर। समुद्री पानी की सान्द्रता पीने योग्य पानी से अधिक होती है। समुद्री पानी में कोई वस्तु आसानी से डूबती नहीं, यदि उसका आयतन अधिक हो। विशाल पेड़, प्रस्तर (शिलाखण्ड), तृण, काष्ठ इत्यादि ऐसी निर्माण-सामग्री रही, जिसका उपयोग सेतु-निर्माण में किया गया।
दूसरी विशेष तकनीक, जो निर्माण में लायी गयी, यह थी - अधुलनशील ठोस सामग्री का पानी पर धम्म से क्षेपण (dumped) । लगातार ऐसा करने से तह बननी प्रारम्भ हो जाती है। यदि पानी में बहाव भी होता है, तो सामग्री अपना स्वाभाविक ढाल ग्रहण कर आकार ले लेती है। चूँकि समुद्र पर सेतु निर्माण एक अस्थायी संरचना थी, अतः किसी प्रकार के स्थायी आधार का प्रावधान आवश्यक नहीं समझ गया होगा, बल्कि समुद्र के बीच में उभरे शैल-शिखरों, द्वीपों (आईलैण्ड्स) को सेतु के आधार पर स्तम्भ की भाँति उपयोग किया गया।
5. निर्माण-कार्य - सेतु-निर्माण में रामदल के सभी सदस्यों का सहयोग रहा। पर्वत, शाखायुक्त वृक्ष, शिलाखण्ड, काष्ठसमूह और तृण, जिसे जो मिला, लेकर दौड़ा चला आया। किम्वदन्ती है कि जिन पत्थरों पर निर्माण प्रभारी नल अपने हाथों से श्री राम लिख देते थे, वे पानी पर तैरने लगते थे। खैर, जो भी हो गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में निर्माण कार्य के संबंध में लिखा है -
सैल बिसाल आनि कपि देहीं।
कन्दुक इव नल नील ते लेहीं।।
एक सौ योजन के सेतु का निर्माण पाँच दिन में हुआ, जिसकी प्रगति रामकथा रस-वाहिनी (सत्य साईं बाबा) में यों दी गयी है।
दिन
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योजन
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प्रथम दिन
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14 योजन
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द्वितीय दिन
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20 योजन
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तृतीय दिन
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21 योजन
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चतुर्थ दिन
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22 योजन
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पंचम दिन
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23 योजन
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कुल
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100 योजन
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‘स्कन्द पुराण’ के अनुसार चैत्र शुक्ल दशमी से लेकर त्रयोदशी तक सेतु-निर्माण हुआ। कहते हैं कि रामदल में 18 पद्म वानर भालू रहे, जिन्होंने बिना विश्राम किये सेतु निर्माण किया। इस कार्य में सहयोग देने के लिए विभिन्न देवताओं ने भी अन्य-अन्य रूप धारण कर सहयोग किया। जलचरों (समुद्री जीव जन्तुओं) का इस सेतु निर्माण में विशेष योगदान रहा, क्यांकि उन्होंने निर्माण-क्षेत्र से विस्थापन की पीड़ा को सहज स्वीकार किया।
इस निर्माण-कार्य से समुद्र की परम्परागत जीव एवं वनस्पति सम्पदा को कोई क्षति नहीं हुई, बल्कि पुल-निर्माण से समुद्री जीवों को आश्रय मिला। आज लगभग 3600 तरह के समुद्री-वनस्पति और 450 तरह के दुर्लभ समुद्री-जीव इस सेतु के आसपास प्राप्त होते है। राम सेतु के कारण ही इस क्षेत्र में टाइटेनियम (रन्जातु) एवं थोरियम (हसातु) के विशाल भाण्डार सुरक्षित है।
लंका विजय सेतु-निर्माण की सफलता - अजेय दुर्ग लंका की समुद्री सीमा पर सेतु-निर्माण होने से राक्षसराज रावण एवं उसके अनुयायिायों के हौसले पस्त हो गये, जबकि रामदल का उत्साह द्विगुणित। अन्ततः युध्द में प्रभु राम की विजय हुई। विभीषण का विधिवत् राज्याभिषैक किया गया। जब प्रभु राम, भगवती सीता को लेकर अयोध्या प्रस्थान करने लगे, तब लंकाधिपति विभीषण ने उनसे अनुरोध किया - ‘‘भगवान्! इस सेतु के मार्ग से सभी बलाभिमानी राजा आकर मेरी लंकापुरी को पीड़ित करेंगे, अतः आप धनुष की कोटि से इसे तोड़ दें।’’ भक्तवत्सल श्रीराम ने वैसा ही किया।
‘पद्म पुराण’ में उल्लेख है कि अयोध्या में रामराज्य-स्थापना के बाद प्रभु राम अपने भ्राता भरत के साथ मैत्री-यात्रा पर लंकापुरी गये थे। वहाँ से विदाई के समय विभीषण के अनुरोध पर वह सेतु तोड़ा गया। जो भी हो कालान्तर में वह पुल जलमग्न हो गया। रामनाथपुरम् डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, 1972 में लिखा है कि ‘‘कुरंगुपडई (वानर सेना) द्वारा निर्मित यह सेतु 1480 ई. तक भारत और श्रीलंका का भूस्थलीय सम्पर्क मार्ग बना रहा। इसके बाद समुद्र में आये एक भीषण चक्रवात ने इसमें दरारें डाल दीं और पुल के पहलू (आयाम) बदल डाले। सेतु के ऊपर पानी बहने लगा।’’
वैज्ञानिक वर्तमान में वातावरण के बढ़ते तापक्रम से परेशान हैं। सेतु का जलाक्रान्त होना समुद्र जल स्तर सें वृद्धि है, जो औसत तापमान के बढ़ने से सीधी-सीधी प्रभावित है।
सेतु समुद्रम् योजना
18वीं सदी के अन्त में एक अंग्रेज भूगोलशास्त्री ने इस क्षेत्र का दौरा कर सुझाव दिया था कि रामसेतु वाले समुद्री हिस्से का उपयोग कर समुद्री रास्ते को छोटा किया जा सकता है, परन्तु उसे व्यवहार्य नहीं पाया गया। हाल के दशकोकं में यह बात फिर सामने आयी। अरब सागर से बंगाल की खाड़ी की ओर जानेवाले जहाजों को श्रीलंका का चक्कर लगाना पड़ता है और जानेवाले जहाजों को श्रीलंका का चक्कर लगाना पड़ता है। पाल्क जलडमरूमध्य व मन्नार की खाड़ी के बीच सीधा रास्ता बनाने के लिए धनुषकोटि के पास रामसेतु को लगभग 12 मीटर ड्रेजिंग-तलकर्षण (ऊपरी सतह को छाँटकर गहराई बढ़ाना) करना प्रस्तावित है। यह समुद्री नहर लगभग 300 मीटर लम्बाई में बनना है तथा सेतु का लगभग 167 मीटर हिस्सा नहर क्षेत्र से प्रभावित होगा। इस सम्पूर्ण परियोजना की लागत 2427 करोड़ रूपये आँकी गयी है। इस योजना के लाभ के सरकारी दावे निम्नानुसार है -
1.
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अधिक हानि की सम्भावना नहीं है।
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2.
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नहर के रास्ते में मूँगे की चट्टानों की सम्भावना नगण्य है।
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3.
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खुदाई से मन्नार जीव-मण्डल जैसे परिवेश-तन्त्र
औश्र तटीय जनसंख्या को खतरा नहीं है।
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4.
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मछुआरों के लिए अधिक अवसर उपलब्ध होंगे।
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5.
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तटरक्षण बल के छोटे जहाजों को आसानी से आवागमन
की सुविधा मिलेगी, जिससे पूर्वी एवं पश्चिमी तटों पर तस्करी और
आतंकवाद पर अच्छा नियंत्रण हो सकेगा।
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6.
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बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के मध्य भारतीय
जल-क्षेत्र में सीधा मार्ग उपलब्ध हो सकेगा।
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7.
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नये रास्ते में जहाजों को 36 घण्टों और 450 कि.मी. की बचत होगी। प्रारम्भ में इससे प्रतिदिन 9 जहाजों को रास्ता दिया जायेगा। इस प्रकार एक
वर्ष में लगभग 3285 जहाज इस रास्ते से निकलेंगे, आगामी वर्षो में यह क्षमता दुगुनी हो जावेगी।
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8.
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इससे 2100 हजार
करोड़ वार्षिक आय होगी।
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लेकिन इस परियोजना में निम्न तथ्यों को अनदेखा किया जा रहा है।
1.
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मूँगे के चट्टानों की खुदाई होगी ही, खुदाई से पानी का गँदलापन हानिकर होगा।
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2.
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सेतु तूफानों और सुनामी जैसे आपदाओं के विरुद्ध यह प्राकृतिक रक्षक है।
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3.
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सेतु तूफानों और सुनामी जैसे आपदाओं के विरुद्ध यह प्राकृतिक रक्षक है।
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4.
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यदि उत्तर श्रीलंका में तमिल चीतों की सुरक्षा
खतरे में पड़ी, तो वे जहाजों को निशाना बना सकते है।
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5.
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नहर के मार्ग में, सँकरे होने के कारण कोई भी दुर्घटना रास्ते को
लम्बे समय तक अवरूद्ध करेगी।
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6.
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रिसनेवाले तेल और प्रदूषणकारी तत्वों से
संवेदनशील पर्यावरण को खतरा।
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7.
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समुद्री हवा और वर्षा पर असर पड़ेगा।
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8.
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जन भावनाएँ आहत होंगी। रामसेतु धार्मिक एवं
आध्यात्मिक आस्था का बिन्दु है, उसे क्षति पहुँचाने से स्वाभाविक
जनाक्रोश की सम्भावना रहेगी।
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9.
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बड़े जहाज इस रास्ते से फिर भी नही निकल पायेंगे
केवल छोटे और मध्यम जहाजों को सुविधा मिल सकेगी।
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अतः सरकार को इसके विकल्पों पर ध्यान देना चाहिए। वैसे धनुष्कोटि के पास मण्डपम् नामक ग्राम के आसपास अनुपजाऊ बालू के टीलों को हटाकर उस स्थान से समुद्री नहर तैयार की जाये। जहाजों के लिए यह रास्ता छोटा होग, आसान होगा और मितव्ययी भी। एक बात और रामसेतु हमारी धार्मिक आस्था और विश्वास का सेतु भी है। अतः इतनी पुरानी संरचना को तोड़ने के बजाय सुरक्षित और संरक्षित करने के प्रयास होना चाहिए थे।
कितना अच्छा होगा, यदि इस पुराकथित प्रस्तर पुल को केन्द्र सरकार व प्रदेश सरकार पर्यटन के विशेष पैकेज तैयार कर विश्व धरोहर के रूप में मान्यता दिलाने का प्रयास करे। इसके लिए भारत की करोड़ों हिन्दू मताबलम्बी जनता भावनात्मक सहयोग करेगी और उनका आभार भी मानेगी। इस महान् अभियान्त्रिक आश्चर्य को सारी दुनिया खुली आँखों से देख सके, इस पुल पर स्थित चैबीस तीर्थो (‘स्कन्द पुराण’ के अनुसार) पर स्नान और पूजन-अर्चन कर इहलौकिक एवं पारलौकिक जीवन सफल कर सके, उसके लिए सरकार को रसायन अभियन्त्रण तकनीक के विशेषज्ञों की सहयाता लेनी चाहिए, जो शायद इस सेतु को समुद्र सतह से ऊपर ला सकें।