रविवार, 29 जून 2014

श्रीनगर-काश! उनके अच्छे दिन जल्दी आ जाते।

श्रीनगर, भारत के शीर्षस्थ सीमांत-प्रदेश जम्मू और कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी है। श्रीनगर (श्री+नगर) का शाब्दिक अर्थ-वैभव की नगरी है। वहाँ का नेचर (प्रकृति) और नेचुरल ब्यूटी (दमकते चेहरे) देखते ही बनते हैं। लगता है, कुदरत ने उन्हें फुर्सत से गढ़ा है। किंवदन्ती यह भी है कि एक समय वहाँ के बहुसंख्यक लोग (कश्मीरी पंडित) ईश्वर को अपना लाभांश देते थे और उतनी स्वर्ण-मुद्राएँ वहाँ स्थित झील (डल झील का आरम्भिक हिस्सा गोल्डन-लेक कहलाता है) में डाल देते थे। यह अलग बात है कि आज वे अपने ही घरों से बेघर हैं? वैसे, मोदी सरकार कश्मीरी-पंडितों के पुनर्स्थापन के लिए कृत-संकल्पित है। काश! उनके अच्छे दिन जल्दी आ जाते।
इतिहासकार मानते हैं कि श्रीनगर, मौर्य संम्राट अशोक द्वारा बसाया गया। अन्य पर्वतीय शहरों की तुलना में यह शहर कुछ अलग लगता है। यहाँ के घर और बाजार पहाड़ी ढलानों पर नहीं बसे। एक विस्तृत घाटी के मध्य होने के कारण यह मैदानी शहरों जैसा है। किन्तु पृष्ठभूमि में दिखाई पड़ते बर्फाच्छादित पर्वत-शिखर यह अहसास कराते हैं कि हम वास्तव में समुद्रतल से 1730 मीटर ऊँची सैरगाह में हैं।
श्रीनगर को याद करें तो याद आते हैं वहाँ के सूखे मेवे, स्वादिष्ट फल, सुगन्धित केशर, सुपाच्य पेय कहवा, सुन्दर परम्परागत हस्तशिल्प, खूबसूरत डल झील और मुग़ल स्थापत्य शैली के बाग-बगीचे। "सिटी ऑफ़ गार्डन्स" के नाम से मशहूर इस शहर में छोटे-बड़े 700 बगीचे हैं।
कश्मीर का ट्यूलिप-गार्डन पूरे साल में मात्र पच्चीस दिन खुलता है। पूर्व प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की स्मृति संजोये यह बॉटनिकल गार्डन 90 एकड़ क्षेत्र में विकसित है। 23 अप्रैल दोपहर को जब हम वहाँ थे, तब लगभग 70 किस्मों के ट्यूलिप खिले थे। अलग-अलग रंग के, अलग-अलग ढंग के, अलग-अलग कतारों में। दूर तक, जहाँ भी निगाह दौड़ती, एक से बढ़कर एक गुल खिले दिखते। 'नन्दन -कानन' जैसी दिव्यता देखकर हम दंग रह गए। लगा, श्रीनगर आना सार्थक हुआ। पाँव-पाँव घूमते हुये हम थक गये, परन्तु बगीचे का कोई  ओऱ-छोर नहीं पकड़ पाये। भूख भी लग रही थी। पुए खाकर कहवा पिया, परम्परागत परिधानों में फोटो खिंचवाए और उस सपनों के संसार से बाहर आ गये।
यहाँ एक गड़बड़ हो गई। कश्मीर के शाही बगीचे (मुग़ल बादशाहों के ख्बाब गाह) हमने ट्यूलिप गार्डन के बाद देखे। एक औपचारिकता सी निभाते हुये। फिर भी, 'चश्म-ए-शाही' में सोतों से निकलते शीतल स्वादिष्ट जल का स्वाद और 'शालीमार' में चिनार वृक्षों के बैक-ग्राउंड में लिए फोटोग्राफ्स हमारी निजी धरोहर  हैं।
कश्मीर यात्रा का अंतिम और अहम पड़ाव था -डल झील। श्रीनगर के मुकुट पर जड़ा बेशकीमती नगीना। जब हमने सुन्दर, सजी-धजी पैडल टेक्सी बोट (शिकारा) किराये पर लेकर झील में प्रवेश किया, तब भगवान भाष्कर अस्ताचल की ऒर थे। आकाश का नारंगी रंग समूची झील को अपने रंग में रंग रहा था। यहाँ की शान्त, स्तब्ध झील में नौकायन, भेड़ाघाट (जबलपुर) में किये नौका-बिहार से पृथक अनुभव रहा। यहाँ थ्रिल या रोमांच नहीं था बल्कि चुलबुलापन था, मौज-मस्ती थी। हम सभी बौराये से झील का अनुपम सौन्दर्य निहार रहे थे। नन्हा शौर्य अत्याधिक प्रसन्न रहा, उसे बहुत सारा मम (पानी) दिख रहा था। दादी की गोदी में किनारे बैठा वह, छप-छप कर रहा था। झील में तैरती कुमुदनी पकड़-फ़ेंक रहा था।
डल झील में दो बातें बहुत अच्छी लगीं। एक- वहाँ तैरते आवास, हाउसबोट। श्रीनगर आयें और वहाँ के हाउसबोट में रात्रि-विश्राम न किया, तो क्या किया? हाउसबोट युवा जोड़ों की पहली पसंद होती है, या यूँ कहें-ज्यादातर हनीमून-पैकेज  में हाउसबोट नाइट-स्टे पहले से जुड़ा होता है। यहाँ के हाउसबोट, केरल की तुलना में स्टेशनरी हैं, स्थिर हैं। किनारे से मेहमान की फेरी के लिये इनके अपने शिकारे होते हैं-निःशुल्क।
हमारे नाविक ने बताया कि डल झील में हाउसबोट का चलन डोंगरा राजाओं और अंग्रेजों के मध्य विवाद से हुआ। डोंगरा राजाओं द्वारा कश्मीर में स्थायी सम्पत्ति खरीदने और घर बनाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुये अँग्रेजों ने झील में बड़ी नाव पर लक्जरी केबिन बनाकर रहना आरम्भ कर दिया।
1962 की चर्चित फिल्म 'कश्मीर की कली' में सर्वप्रथम डल झील, हॉउसबोट और शिकारा-राइड को भारतीय दर्शकों ने पसन्द किया। यही कारण रहा कि बाद के फिल्म-निर्माताओं ने इनकी पॉपुलरिटी को जमकर भुनाया। जंगली, जानवर, कभी-कभी, जब-जब फूल खिले, रॉकस्टार, मिशन-ए-कश्मीर, लम्हा, दिल से, ये जवानी है दीवानी, जैसी सुपरहिट फिल्मों के कई रोमांटिक दृश्य और गीत डल झील के हाउसबोटों में फिल्माये गये हैं। हाउसबोट कीपर बड़ी शान से प्रचार-प्रसार करते हैं कि फलाँ-फलाँ फिल्म की शूटिंग इस हौजरे में हुई। 'मिशन-ए-कश्मीर' तथा 'गुल-गुलशन-गुलफाम' (टी व्ही सीरियल) नामक दो हाउसबोट हमने भी देखे।
डल झील का दूसरा मुख्य आकर्षण-वहाँ के तैरते बाजार थे। दुकानें भी शिकारे पर लगी थी और शिकारे पर सवार होकर विभिन्न वस्तुएँ खरीदीं जा रहीं थीं। शिकारे बार-बार हमारे नजदीक आ रहे अपने प्रोडक्टों का प्रदर्शन कर रहे थे, हमें ललचा रहे थे, हम मोल-भाव करें, कुछ खरीदें। चाय-चटपटे से लेकर कीमती केशर और जवहराती-जेवर तक सभी विक्रय हेतु उपलब्ध थे। 'या-हू' की मुद्रा में युवा एवं कश्मीरी वेशभूषा में छुई-मुई सी युवतियां झील में, शिकारे पर बिताये उन अविस्मरणीय पलों को कैमरों में कैद करा रहे थे। शिकारे पर झील में अतराता पोस्ट-ऑफिस भी हमारे आकर्षण का केन्द्र रहा। काश्मीर के कारीगरों, दस्तकारों, लघु व कुटीर उद्योग संचालकों, कृषकों को उनके उत्पादों का घर-बैठे उचित मूल्य मिले, बिना बिचौलियों की मदद के, यह सोचकर डल झील में तैरते बाजार की कल्पना की गई। यहाँ सैलानी/शौकिया लोग झील में घूमने का आनन्द लेते हुये रोजमर्रा की खरीददारी करते हैं, यानि आम के आम, गुठलियों के दाम। सोना झील से नागिन झील तक घूमने में अँधेरा गहराने लगा। हाउसबोटों पर जगमगाती रंग-बिरंगी विद्युत लड़ियों के प्रतिबिम्ब से झील का सौन्दर्य दुगुना हो गया था।
हम घाट की ओऱ आ रहे थे। हमारा नाव-चालक हमें बता रहा था कि ठण्ड में झील जम जाती है, एक सपाट मैदान, एक स्टेडियम की तरह। और, तब यहाँ के जुझारू लोग और उनके परिजन देवदार की लकड़ियों पर नक्काशी कर सुन्दर कलाकृतियाँ बनाते हैं। रेशमी कपड़ों पर बेलबूटे काढते हैं, एक अंगूठी से पार हो सकने वाला पश्मीना शॉल बुनते हैं। भारत-पाक सीमा पर आये दिन होती गोलाबारी और आतंक के साये में जीवन यापन करते लोगों की सर्जनात्मक-सामर्थ्य को  साधुवाद!

शिकारे से उतरते ही ख्याल आया कि यदि जम्मू के ट्रैवल-एजेंट की सलाह मान हम वहीं से वापिस लौट गये होते तो.......तो, ऐसी परानुभूतियाँ कैसे होतीं? तो, खुली ऑखों में स्वर्ग का अनावृत सौन्दर्य कैसे बसता? लेकिन, अभी दिल भरा नहीं। घूमने को बहुत बाकी रहा। मन ही मन संकल्प लिया कि बाबा अमरनाथ के दर्शनों को यहीं से जाना पड़ता है। यदि, उनकी कृपा रही, बुलाबा आया तो एक बार फिर इस शहर की श्री-सम्पदा देखने की चाह रहेगी, विशेषकर सोनमर्ग और पहलगांव।
हम कल जबलपुर लौटेगें, कुछ दिन यात्रा के खट्टे-मीठे अनुभव शेयर करेंगे, फिर अपने राग में लग जायेंगे, लेकिन इन वादियों में गूंजतीं सूफी-सदाये बहुत देर तक और दूर तक, हमें सुनाई देंगी-
                                                     गर फ़िरदौस, रहें जमीं अस्तो 
                            हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो। 

मंगलवार, 17 जून 2014

गुलमर्ग

22 अप्रेल, 2014 -अल्ल्सुबह, हमारा परिवार श्रीनगर से गुलमर्ग के लिये निकला। टेंगमार्ग, जहाँ से गुलमर्ग के लिये 11.00 किलोमीटर पहाड़ पर चढ़ाई आरम्भ होती है। रुककर हल्का नाश्ता और चाय ली। बर्फीली-शीत से बचने के लिये फर-कोट, केप और गमबूट लिये। रंग-बिरंगे परिधानों में सब एक से बढ़कर एक दिख रहे थे, विशेषकर, पिंक-ड्रेस में पौत्र शौर्य एकदम एस्किमो दिख रहा था।
बर्फ पर चलने-घूमने का रोमांच हमारी हृदयगति बढ़ा रहा था, साथ ही एक सुनिश्चित उंचाई पर जाने का भय और, तापमान लगभग 6 डिग्री सेन्टीग्रेड। खैर, हिम्मत जुटाकर हम आगे बढे। बर्फ से ढके पहाड़ और उनपर झाँकते शंकुनुमा-विशाल देवदार के पेड़! मानो, मेहमानों की अगवानी में सुन्दर फूलों के गुलदस्ते लिये कतारबध्द खड़े हों। लगा, हम किसी काल्पनिक दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं।
हिमालयीन पर्वत-श्रृंखलाओं में से एक पीर-पंजाल पर 2653 मीटर की ऊंचाई पर स्थित विश्व का सबसे ऊँचा गोल्फ-कोर्स, गुलमर्ग-गोंडोला और एक सुन्दर स्कीइंग स्पॉट। चारों तरफ, जहाँ भी नज़र जाती, बर्फ ही बर्फ दिखाई देती। जहाँ हमारी टेक्सी रुकी, वहाँ 6 फुट बर्फ, कुल मिलाकर एक कटोरे की शक्ल में गुलमर्ग। सी.एन.एन. की एक रिपोर्ट में इस जगह को भारत में शीतकालीन खेलों की हृदय-स्थली कहा है। उस दिन गुलमर्ग पहुँचने वाली हमारी पहली टेक्सी थी, जिसमें सात देशी सैलानियों को देखकर वहाँ के जन-जीवन में यंत्रवत गति आ गई।
जैसे ही हमने बर्फ पर पैर रखा, हमें लगा मानो हमने चाँद पर पहला कदम रखा है। नील आर्म स्ट्राँग की भाँति हमें भ्रम हुआ कि कहीं हमारा पैर नीचे तो नहीं धँस जायेगा। यह भी कल्पना हुई कि नीचे बर्फ पिघलकर पानी
हो गया और ऊपर जहाँ, जिस जमीन पर खड़े हैं वह खिसक तो नहीं जावेगी। परन्तु, ऐसा नहीं हुआ। स्वच्छ, श्वेत, शॉफ्ट और स्पंजी बर्फीले धरातल को छूते ही परिजन ख़ुशी से नाचने लगे। हमारे मुँह से भी निकला "वाह"! मीना (पत्नी) और बच्चों के चेहरों पर आयी बड़ी सी मुस्कान ने हमारी ख़ुशी को दुगना कर दिया। निःसंदेह, यह भारत में अब तक देखे खूबसूरत स्थानों में सर्वश्रेष्ठ है।
सामान्यतः मई के प्रथम सप्ताह से गुलमर्ग में बहार आती है। हम कुछ पहिले आ गये। गुलमर्ग का मुख्य आकर्षण गोंडोला में सुधार/रखरखाव चल रहा था अतः हमलोग रोपवे से ऊँचाई पर जाकर और नयी ऊंचाइयों को नापने से वंचित रह गये। परन्तु हमारी कल्पनाओं के घोड़े थामने से भी न रुके। एक ऊँचाई पर जाकर नागा पर्वत (7000 मीटर) गिलगिट की चोटियों को निहारने का काल्पनिक सुख लिया। मन- रूपी गरुण तो अपने पंख पसारकर और ऊँची उड़ान भर आया एवं वहाँ खड़े-खड़े माउॅट- एवरेस्ट की परिकल्पना कर डाली। ऐसा लगा कि हम गोंडोला की अधिकतम ऊँचाई से कुशल प्रशिक्षक के साथ स्कीईंग करते तेजी से नीचे उतर रहे हैं- जोर-जोर से चीखते हुये, अपने डर को दूर भगाते हुए, मार्ग की सभी भव-बाधाओं को पार करते हुए।
"गोल्फ मैदान की बर्फ पर पैदल न चलकर स्लेज से दौड़ा जावे "-यह तय होने पर सात स्लेजों पर सवार हमारा परिवार-दल आगे बढ़ा। शौर्य अभी तक अपनी माँ से चिपका था, परन्तु बाद में बर्फ पर अठखेलियों का सही आनंद इस जूनियर सदस्य ही ने लिया। ऋषि और वर्षा ने अपने स्लेज आपस में जोड़ रखे थे, एक स्लेज वाहक उन दोनों को एक साथ खींच रहा था। हम सबसे पीछे थे। एक तरह से अपने दल को हंकारते हुए, उनका उत्साह-वर्धन करते हुए। हँसी,ठिलठिलाहट , चीख, सीटियों की आवाज, कभी गिरना, ऊपर से नीचे जाना, अपने स्लेज-वाहक को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना-यही आनन्द था बिना पहियों की, बिना ब्रेक की गाड़ी पर चलने का! दौड़ने का !!
स्लेज खींचने वाले बड़े मेहनती और बाक्पटु थे। उस विस्तारित मैदान में कुछ प्राकृतिक, कुछ काल्पनिक वियु-पॉइन्ट बता रहे थे। बीच-बीच में वे फिल्मों, फ़िल्मी नायक-नायिकाओं और उन पर फिल्माये दृश्यों/गीतों की बातें कर हमारा कौतुहल बढ़ा रहे थे। उनकी जानकारी में अभी तक वहां 22 फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है, जिनमें हाइवे, ये जवानी है दीवानी, जब तक है जान, स्टूडेंट ऑफ़ द इयर, सात खून माफ, रॉक स्टार, मिशन-कश्मीर और लम्हा प्रसिध्द हैं। एक वरिष्ठ वाहक बता रहा कि
वह यहाँ तीन पीढ़ियों की शूटिंग देख चुका है। 1962 में शम्मीकपूर आये थे, कश्मीर की कली की शूटिंग के लिए, 1974 में ऋषिकपूर और डिम्पल बॉबी के लिए आये और अभी 25 जनवरी को रणवीर कपूर, दीपिका पदुकोण अपनी फिल्म यूनिट  के साथ आये थे (-) 10 डिग्री तापमान में उन्होंने यहाँ शूटिंग की।
मौसम आज भी बेहद ठण्डा रहा, तब भी स्लेजवाहक पसीने से लथ-पथ हो रहे थे। बर्फ पर नंगे पैर दौड़ना और सवारी खींचना दोनों मेहनत के काम हैं। बॉबी हट (कहते हैं यहाँ बॉबी फिल्म की शूटिंग हुई थी) पर आकर हमारी आगे-पीछे दौड़तीं स्लेज एक लाइन में रुक गयीं। स्लेज खींचने वाले भी ओत लेने (सुस्ताने) लगे। हम सभी ने भी अपने हाथ-पैर सीधे किये और बर्फ से खेलने लगे। शुरुआत में लगा बर्फ ठण्डी होगी,सख्त होगी। परन्तु हाथ में लेते ही एक विशेष गर्माहट महसूस की। वह रुई जैसी मुलायम थी, उसे उठाकर एक दूसरे को मारना ऐसा लगता था जैसे बृज में फूलों की होली खेल रहें हों।
स्लेज दल नायक बार-बार आग्रह कर रहा था -"अपने-अपने पर्स, मोबाईल और अन्य कीमती चीजें सम्भाल कर रखें। यहाँ के लोग चोर या पॉकेटमार नहीं हैं, बर्फ चोर है।" लगा एक सच्चाई और ईमानदारी है, उसके कथन में। बर्फ में एक बार कोई वस्तु गुम जावे, फिर उसे ढूँढना नहीं होता।
सूर्य सिर पर आ गया था। गुनगुनी धूप रही इसलिए ठण्ड से थोड़ी राहत रही। टूरिस्टों की हलचल बढ़ गयी थी। हमारी स्लेज गाड़ियाँ फिर दौड़ने लगीं। साथ-साथ चलते-दौड़ते स्कीईंग के यंत्र/उपकरण लिए, बार-बार अनुरोध करते, ट्रेन्ड प्रशिक्षक का प्रमाण-पत्र दिखलाते, कुछ ही देर में बर्फ पर स्कीईंग से दौड़ाने का वायदा करते। बीच मे एक नाला आ गया, जिसमें लबालब पानी बह रहा था। वह वहाँ की बर्फ का द्रव में अवस्था-परिवर्तन था। नाले पर बने अस्थायी पुल को पारकर हम खुले मैदान में आ गए।
यहाँ एक चौपाटी जैसा माहौल था। मेगी ,चिप्स, बिस्किट,चाय आदि की दुकानें सजीं थीं। स्कीइंग वाले तो वाकायदा स्टॉल लगाये हुए थे। हमने वहाँ चाय पी। बच्चों ने गर्मा -गर्म मेगी खाई। स्लेजवाहकों के साथ उनके कुछ लोग जुट गए। उनमें से एक ढपली बजाने लगा। जब तक है जान फिल्म का गीत 'जिया रे' की स्वर-लहरियाँ वहाँ गूंजने लगी। एक स्लेज-मैन नाच रहा था। हमने शौर्य को छोडा, तो वह उस गीत-संगीत पर अपनी कमर मटकाने लगा। अच्छा खासा मनोरंजन, बिल्कुल शूटिंग का सा माहौल बन गया।
हम सभी ने मुलायम बर्फ समेट कर एक बन्दर (मंकी) की आकृति बनाई, उसे सजाया, सँवारा और नाम दिया मन्ना (पौत्र शौर्य मंकी को मन्ना कहता है) उसके साथ फोटो खिंचवाए। बर्फ पर अपने नाम लिखे-सन्देश छोड़े यह जानते हुए कि बर्फ एक मायाबी स्वरुप है, छलावा है। कुछ देर बाद अपनी अवस्था परिवर्तन कर लेगा।अबीर (सबसे छोटा बेटा) बर्फ पर लेट-लेट कर पीठ से मार्डन-आर्ट बना रहा था, लगा उसने इस कला का पूर्वाभ्यास किया है।
स्कीईंग किसी को नहीं आती रही। हाँ! थोड़ी बहुत स्केटिंग सभी को आती थी। प्रशिक्षण लेकर या प्रशिक्षक के साथ स्कीईंग कठिन भी नहीं थी। हम लोगों ने उपकरण लिए, हल्के-फुल्के टिप्स लिए और दो-दो हाथ अजमाने लगे। चले, दौड़े, गिरे, चोट खाई, सहलाया और फिर उठकर चल दिए। यही तो जीवन का क्रम है। स्कीईंग न सही, परन्तु उसके लिए किया गया ईमानदार प्रयास ही हमारे लिए पर्याप्त था। ठीक वैसे, जैसे तैरने के लिए पानी में उतारना।
गुलमर्ग की गुलबादियों को चंद घण्टों में घूमना सम्भव नहीं, परन्तु हम अपने  हिसाब से चल रहे थे। स्लेज वाहक भी जल्दी में दिखे। सैलानियों की क्रमशः बढ़ती संख्या पर उनकी आँखें जमी हुईं थी। वे इस जुगत में रहे कि जल्दी से जल्दी हमसे फारिग हों। लौटते समय हमारा सलेजमेन बता रहा था
मई-जून में यहाँ मैदान में  सुन्दर हरियाली होती है। ऊपर के हिस्से में गुलमर्ग-गोंडोला के बगल में लीची के बगीचे होते हैं। सामने मैदान में पोनी-राइडिंग होती है। हाँ! ऊपर पहाड़ पर बर्फ होती है, जहाँ एडवेंचरस-स्पोर्ट्स होते हैं। विषयांतर होने पर वह बोला फिल्म वाले बड़ा धोका देते हैं। अभी-अभी आई फिल्म 'ये जवानी है दीवानी' के ट्रेकिंग-ट्रिप्स यहाँ गुलमर्ग में फिल्माए गए, जिन्हें मनाली का बताया जा रहा है। ऐसा और फिल्मों में भी होता है। हम लोग तो उनके स्वागत में पलक-पाँवड़े बिछाते हैं और वे हमारे साथ चिटिंग करते हैं।
स्लेज-वाहक ने यह भी बताया गुलमर्ग में कोई घर नहीं बनाता। पाकिस्तानी नियंत्रण रेखा (एल ओ सी) यहाँ प्रभाव डालती है। यहाँ की आबादी 500-600 ही है। होटल में रुकने वाले और होटल में काम करने वाले, बस! उसने यह भी बतलाया कि यह वास्तव में 'गौरी -मार्ग' है, माता गौरी (पार्वती) अपने पति भगवान शिव से मिलने इसी रास्ते से आती-जाती थीं। यूसुफ शाह चक ने इसका नाम बदलकर गुलमर्ग यानि फूलों का मैदान रख दिया।
वापिस आने पर स्लेज-वाहक ने हमसे पूछा -'गुलमर्ग कैसा लगा?' हमने कहा -'वाह! स्वर्णिम!! अलौकिक!!!' उसने अत्यन्त भावुक लहजे में कहा -'आप सैलानी हमारे लिये भगवान का प्रतिरूप हैं। आप आते हैं तो हमें और हमारे बच्चों को खाना मिलता है। आप प्रसन्न होंगे तो वापिस जाकर अपने चार दोस्तों को कहेंगे कि गुलमर्ग सुरक्षित है, तो चार लोग और आयेंगे। बीच में जब आतंकबादियों के कारण टूरिस्टों ने यहाँ आना बंद कर दिया था, तब कई दिनों हमारे घर में चूल्हा नहीं जला।' हमने उसे आश्वत किया कि हम वापिस लौट कर अपने मित्रों/परिचितों को अवश्य बतलायेंगे, ब्लॉग लिखेंगे। भारत का स्वर्ग ,कश्मीर ,पर्यटन के लिये पूर्णरूपेण सुरक्षित है।
एक छोटी सी जगह में लगभग 40 छोटे-बड़े होटल, तीन से पाँच सितारा तक। टेक्सी-ड्राइवर ने होटल हाईलैंड भी दिखाया, जहाँ फिल्म बॉबी की कुल शूटिंग हुई, विशेषकर वह गाना 'अंदर से कोई बाहर न जा सके'। लगभग 4.0 बजे हम टेंग मार्ग पहुंचे, किराये के फर-कोट और जूते वापिस किये। सभी को जोरों की भूख लगी थी। वहाँ के एक रेस्टॉरेन्ट में गर्म-गर्म आलू पराठे खाये। जो गुलमर्ग के गुमनाम उपन्यास में कृष्ण चन्दर द्वारा वर्णित पराठों जैसे स्वादिष्ट थे, वैसे ही चटखारे वाले, अंगुलियाँ चाटने वाले। एक-एक कप कहवा पिया और रास्ते में सेव के बाग देखते हुये हमने कश्मीर के बॉलीवुड को अलविदा कहा।

रविवार, 1 जून 2014

ऑन दा वे टू श्रीनगर

वैसा ही हुआ, जैसा हम पिछली रात सोच कर सोये थे। सभी देर से उठे। अगली यात्रा के लिए टेक्सी पड़ताल की, तो कोई भी ट्रेवल एजेंसी हमारे सीमित समय में श्रीनगर घुमाने को राजी नहीं हो रही थी। उनका कहना था -"श्रीनगर जाना है तो छह दिन चाहिये, तीन दिनों में पटनीटॉप, शिवखोड़ी होकर जम्मू के साइट सीन्स देख लीजिये। क्यों व्यर्थ पैसा बर्बाद करते हैं?" उनकी बात में दम था। परन्तु, हमारी अपनी मज़बूरी रही। समय वास्तव में कम था। हाँ! हमने जब अपना पक्ष रखा कि किसी एक शहर को सलीखे से घूमने के लिए दस दिन भी कम हैं, उसे एक दिन में भी देखा जा सकता है; तो वे हमसे सहमत हो गए। और एक नई इनोवा गाड़ी शुभम-ट्रेवल्स के माध्यम से प्राप्त हुई। हमारा टेक्सी-ड्राइवर राजू बहुत मिलनसार था। रास्ते में वह एक प्रशिक्षित गाइड की भाँति जम्मू-कश्मीर का इतिहास, भूगोल, संस्कार-संस्कृति, राजनैतिक एवं सामाजिक स्थिति अपने अंदाज में बयां करता रहा। बीच-बीच में जब हम चुप हो जाते या हल्के-हल्के झोंके लेने लगते तो वह 'भगत के वश में हैं भगवान' सी.डी.चालू कर देता। वह धाराप्रवाह हिंदी बोलता था, मोबाईल पर डोंगरी में बात करता था, बाद में पता चला कि वह मुसलमान था।
घुमावदार रास्ता बर्फ, वहाँ का कस्बाई जन-जीवन, दूर पहाड़ पर चांदी सी चमकती बर्फ हमें आकर्षित कर रही थी। मौसम सुहाना था। हम दा एक कल्पनालोक में प्रवेश कर रहे थे। महाभारत के मिथ से जुड़ते हुए सौरभ ने कहा -पाण्डवों ने वानप्रस्थ में इसी मार्ग से स्वर्गारोहण किया होगा? सच में, यदि स्वर्ग की कल्पना निराधार नहीं है, तो स्वर्ग का रास्ता इन्हीं नैसर्गिक वादियों से गुजरता होगा।
रास्ते में पटनीटॉप रुके। वैष्णव देवी से 40 किलोमीटर की दूरी पर, ऊधमपुरजिले में एक पिकनिक स्पॉट। निचली हिमालयन पर्वत मालाओं में समुद्र सतह से 2014 मीटर ऊपर। चिनाब नदी के किनारे-किनारे, वादियों का सौन्दर्य, माउंट-स्केप,पाइन-फारेस्ट, हरियाली, सुखद वातावरण। 20 अप्रैल की दोपहर, परंतु तापमान 15-16 डिग्री। हमारे टेक्सी-ड्राईवर ने बताया कि हम कभी भी आयें, इससे ज्यादा टेम्परेचर यहाँ नहीं रहता।
पटनीटॉप का वास्तविक नाम 'पाटन दा तालाब' था,जिसका अर्थ 'राजकुमारी का तालाब' रहा। ब्रिटिश राजस्व-दस्तावेजों में अपभ्रंशित होकर पटनीटॉप हो गया। एक जगह पतनितोप भी लिखा देखा। सैलानियों के लिये स्वर्ग इस स्थल को 'मिनी-कश्मीर' भी कहा जाता है। छोटी सी जगह में बहुत सारे टूरिस्ट हॉटल, सभी लबा लब। अभी ज्यादातर बंगाली परिवार, कुछ हनीमून कपल्स भी। नाथा टॉप में अच्छी खासी भीड़ रही। वहाँ के हरे-भरे खुले वातावरण में शौर्य (पौत्र) को तो मानो पर लग गए, उसने लॉन में खूब लोट लगाई, बहुत देर दौड़ा। हमने वहाँ पानीपुरी खाई, फोटो खिचवाई और सुकून के कुछ पल बिताये। यह स्थान मिलिटरी नियंत्रण से मुक्त है, अतः लगता है, यहाँ प्रकृति एवं प्रकृति-प्रेमी खुलकर साँस लेते है।
पटनीटॉप को पांव-पांव घूमते हुये हमने 600 वर्ष पूर्व निर्मित लकड़ी का बना नाग मंदिर (कोबरा मंदिर) देखा। वहाँ आयीं प्राकृतिक आपदाओं के बाद भी यथावत। इस मंदिर के गर्भगृह में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। यहाँ स्थानीय दस्तकारी और कशीदाकारी बेजोड़ है। कई विक्रय केन्द्र रहे जो पर्यटकों को ललचा रहे थे। एक कम उम्र का बाक-पटु बालक हमें 'बुलबुल का बच्चा' दिखाने के बहाने ले गया, परन्तु वहाँ कश्मीरी कम्बल बिक रहे थे। पूत के गुण पालने में देखकर हम हतप्रभ रह गए। वैसे यदि हमें मोल-भाव करना आता तो शाल और सलवार-शूट्स अच्छे और खरीदने योग्य रहे।
लौटते में, ड्राईवर ने बताया कि नवम्बर-दिसम्बर में यहाँ बर्फ पड़ती है। तब, स्थानीय आवागमन हेतु चैन टायर की गाड़ियाँ चलती हैं। वैसे शीघ्र ही राज्य-सरकार यहां रोपवे लगाने जा रही है, ट्रैकिंग, पैराग्लाइडिंग तथा मौंटेअरिंग के लिए आने वाले सैलानियों के लिए यह एक अच्छी ख़बर है।
पटनीटॉप छोड़ते ही वातावरण ठण्डा होने लगा। शीत लहर चलने लगी, लगा बर्फ गिरेगी। सभी खुश; बच्चों के मन-मयूर नाचने लगे। कुहासे के माहौल में लरजते पहाड़ी झरने कुछ अधिक शीतलता दे रहे थे। परन्तु दूसरी तरफ खाई से लहराते देवदार के वृक्ष गलबहियाँ डालने के लिए आतुर दिख रहे थे।
मानो, हमसे कुछ कहना चाहते हों-आपबीती भी, जगबीती भी। सच है, उनके पास बहुत है कहने-सुनाने के लिए। उन्होंने ही देखा है कल्हण की राजतरंगिणी का प्रवाह, उन्होंने ही तो सुनी है कवि कालिदास के मेघदूत की अनुगूँज। अशोक मौर्य से लेकर उमर अब्दुल्ला तक की सियासी गतिविधियों के समय साक्षी हैं ये देवदारु (देवताओं के लिए पेड़) वन। शिव-पुराण के आधार पर कहें तो, ये देवदार वन-भगवान शिव की बाट जोहते सिद्ध-साधु है, न जाने किस वेश या स्वरूप में प्रभु निकल जावें इसलिए हर आने-जाने वाले को वे नतमस्तक होते है। वैसे यदि देवदार के दो सीधे तने खड़े पेड़ों के मध्य अपलक दृष्टि जमायी जावें, तो वहां एक नई सृष्ट्रि जन्म लेती दिखाई देती है। चिंतन के नये आयाम खोलती हुई, हर बार नयी रोशन, हर बार नयी सोच, हर बार नया बिचार; लगता, देवदार के दो पेड़ नर और नारायण के अवतार हैं। उनके बीच एकाकार होती दुनियाँ, प्रकृति का पुरुष से मिलाप, जीवात्मा का परमात्मा में प्रवेश, जीवन का क्रम यूँ ही चलता है।
हमने अपने सिर को हौले से झटका, और बाहर के नज़ारे देखने लगा। पहाड़ की ढलान पर बने इक्के-दुक्के घर सुन्दर लग रहे थे। उनकी बाह्य दीवारें चटक रंगों से पुती थीं, जोउन में रह रहे लोगों की जीवट-वृत्ति की परिचायक थी। बर्फवारी -आक्रान्त क्षेत्र में घरों पर टीन की चादरें स्लोप में बिछी दिखीं, गिरी हुई बर्फ जल्दी से जल्दी बह जावे या नीचे खींची जा सके, यही सुविधा सोचकर यहाँ पक्की फ्लैट स्लेब नहीं ढालते। पटनीटॉप से
लगभग 50 किलोमीटर दूर रामबन आया, वहाँ के प्रसिध्द राजमा-चाँवल अनार की चटनी के साथ खाए। खाना खाते समय यहाँ से बगलिहार बांध का 370 मीटर का स्पिलवे स्पष्ट दिखाई दे रहा था। एन.एच.पी.सी. व्दारा निर्मित इस रन ऑफ़ द रिवर प्रोजेक्ट में 900 मेगावॉट विद्युत उत्पादन हो रहा है।
चिनाब नदी पर बना यह प्रोजेक्ट अंतर्राष्ट्रीय विवादों के कारण खूब चर्चित रहा। वैसे, इस राज्य में ऊर्जा-उत्पादन की असीम संभावनाएं हैं बशर्ते पाकिस्तानी पंचाट आड़े न आये।
टेक्सी ड्राईवर ने बातों-बातों में यह भी बतलाया कि एन.एच.ए.आई. चिनानी-नाजश्री टनल (लगभग 9.1 किलोमीटर) बनाकर जम्मू से श्रीनगर की दूरी 50 किलोमीटर कम कर रही है। इससे दो फायदे होंगे: एक, एलिवेशन में करीब 1.2 किलोमीटर कम होगा। दूसरा श्रीनगर की दूरी 5 घण्टों में तय हो सकेगी।
रास्ते में मीना (पत्नी) ने कान में दर्द की शिकायत की। पुत्रवधु (डॉ.) वर्षा ने बताया कि यह हाइट-फोबिया है। एक ऊचांई पर आकर ऑक्सीजन की कमी होने लगती है, जिससे कान में झनझनाहट, कान सुन्न पड़ना या कान तड़कने लगते हैं। हवाई यात्रा के समय भी ऐसा अनुभव होता है।

हमने टेक्सी रुकवाई। हम अपनी सड़क यात्रा की अधिकतम ऊँचाई पर थे। रोड किनारे एक टपरा था, जहाँ करीम मियां की भट्टी धूं-धूं कर जल रही थी और बाजु में कुछ कदम दूर एक खूबसूरत पहाड़ी झरना था। उसके ठंडे पानी के छींटे मारते ही नींद, सुस्ती, थकान सभी गायब, परन्तु ठण्ड से झुरझुरी दौड़ने लगी। सभी ने गर्म कपडे पहिने, गर्म चाय पी, और करीम मियाँ के बनाये पुए भट्टी में सेंक-सेंक कर खाए। सहज बातचीत ने कब आत्मीय सम्बन्ध स्थापित कर डाले? पता ही नहीं चला। 'चाय की दुकान' और 'एक प्याली चाय' की दुनिया ऐसी ही होती है। भट्टी की आंच ने ठुठरती हड्डियों को राहत दी। करीम मियाँ ने बताया कि ठण्ड में बर्फ सड़क पर उतर आती है, तब कई-कई दोनों तक आवागमन अवरुध्द रहता है। जम्मू-श्रीनगर मार्ग पर यातायात टप्प होना यानि कश्मीर की लय बिगड़ना है। अभी कल ही लैंड-स्लाइड के कारण घंटों ट्रैफिक जाम रहा। वास्तव में, बार्डर रोड के इंजीनियर बधाई के पात्र हैं, जो विषम परिस्थितियों में भी प्रकृति के विरुद्ध निर्माण करते हैं जन-जीवन की गति बनाये रखते हैं। करीम मियाँ ने बताया कि सामने ढलान पर उसका छोटा सा घर है। मौसम कैसा भी रहे, चाय की दुकान रोज खुलती है। चलते-चलते उन्होंने एक सलाह दी: आगे चाँवल नहीं खाना, मोटा चाँवल मिलता है, सभी को सूट नहीं करता, ब्रेड फुल्के चलेंगे। एक बड़े-बुजर्ग की बिना मांगे मिली सीख हमने गाँठ बांध ली।
राजू से बतियाते हुए हम ऐतिहासिक जवाहर सुरंग तक आ पहुंचे। 3 किलोमीटर लम्बी, जम्मू और कश्मीर के मध्य राष्ट्रीय राजमार्ग 1-ए पर यह इकलौती यात्रा-विकल्प है। प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू व्दारा लोकार्पित यह सुरंग मार्ग सुबह 5.00 बजे से रात्रि के 11.00 बजे तक खुला रहता है। इस पर बार्डर सिक्युरिटी फोर्स की सतत निगरानी रहती है। देश की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा में सीमा सुरक्षा बलों के साथ तैनात शक्तिमान ट्रकों को देखकर मन प्रसन्न हो गया। एक निजता, या यूँ कहें निजी संतुष्टि का अनुभव किया, क्योंकि ये ट्रक हमारे जबलपुर स्थित व्हीकल फैक्ट्री में बनते हैं।
रात्रि के 11.00 बजे हम होटल अलसमद पहुचें। मुस्लिम कल्चर और इंटीरियर से सुसज्जित, इसके कमरे आरामदायक तथा हवादार थे। श्रीनगर कभी आतंकवादियों और घुसपैठियों के कारण देशी-विदेशी सैलानियों के लिए असुरक्षित तथा बंद रहा, अब स्थिति सामान्य है। फिर भी, रात का समय, नया स्थान, नया वातावरण, हम कुछ तनावग्रस्त रहे। परन्तु होटल के रूम अटेण्डेंट अनवर का तकियाकलाम -'टेन्शन नहीं लेने का' हमें तनावमुक्त कर गया। रात में बहुत सुकून से नींद आई।