मंगलवार, 17 जून 2014

गुलमर्ग

22 अप्रेल, 2014 -अल्ल्सुबह, हमारा परिवार श्रीनगर से गुलमर्ग के लिये निकला। टेंगमार्ग, जहाँ से गुलमर्ग के लिये 11.00 किलोमीटर पहाड़ पर चढ़ाई आरम्भ होती है। रुककर हल्का नाश्ता और चाय ली। बर्फीली-शीत से बचने के लिये फर-कोट, केप और गमबूट लिये। रंग-बिरंगे परिधानों में सब एक से बढ़कर एक दिख रहे थे, विशेषकर, पिंक-ड्रेस में पौत्र शौर्य एकदम एस्किमो दिख रहा था।
बर्फ पर चलने-घूमने का रोमांच हमारी हृदयगति बढ़ा रहा था, साथ ही एक सुनिश्चित उंचाई पर जाने का भय और, तापमान लगभग 6 डिग्री सेन्टीग्रेड। खैर, हिम्मत जुटाकर हम आगे बढे। बर्फ से ढके पहाड़ और उनपर झाँकते शंकुनुमा-विशाल देवदार के पेड़! मानो, मेहमानों की अगवानी में सुन्दर फूलों के गुलदस्ते लिये कतारबध्द खड़े हों। लगा, हम किसी काल्पनिक दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं।
हिमालयीन पर्वत-श्रृंखलाओं में से एक पीर-पंजाल पर 2653 मीटर की ऊंचाई पर स्थित विश्व का सबसे ऊँचा गोल्फ-कोर्स, गुलमर्ग-गोंडोला और एक सुन्दर स्कीइंग स्पॉट। चारों तरफ, जहाँ भी नज़र जाती, बर्फ ही बर्फ दिखाई देती। जहाँ हमारी टेक्सी रुकी, वहाँ 6 फुट बर्फ, कुल मिलाकर एक कटोरे की शक्ल में गुलमर्ग। सी.एन.एन. की एक रिपोर्ट में इस जगह को भारत में शीतकालीन खेलों की हृदय-स्थली कहा है। उस दिन गुलमर्ग पहुँचने वाली हमारी पहली टेक्सी थी, जिसमें सात देशी सैलानियों को देखकर वहाँ के जन-जीवन में यंत्रवत गति आ गई।
जैसे ही हमने बर्फ पर पैर रखा, हमें लगा मानो हमने चाँद पर पहला कदम रखा है। नील आर्म स्ट्राँग की भाँति हमें भ्रम हुआ कि कहीं हमारा पैर नीचे तो नहीं धँस जायेगा। यह भी कल्पना हुई कि नीचे बर्फ पिघलकर पानी
हो गया और ऊपर जहाँ, जिस जमीन पर खड़े हैं वह खिसक तो नहीं जावेगी। परन्तु, ऐसा नहीं हुआ। स्वच्छ, श्वेत, शॉफ्ट और स्पंजी बर्फीले धरातल को छूते ही परिजन ख़ुशी से नाचने लगे। हमारे मुँह से भी निकला "वाह"! मीना (पत्नी) और बच्चों के चेहरों पर आयी बड़ी सी मुस्कान ने हमारी ख़ुशी को दुगना कर दिया। निःसंदेह, यह भारत में अब तक देखे खूबसूरत स्थानों में सर्वश्रेष्ठ है।
सामान्यतः मई के प्रथम सप्ताह से गुलमर्ग में बहार आती है। हम कुछ पहिले आ गये। गुलमर्ग का मुख्य आकर्षण गोंडोला में सुधार/रखरखाव चल रहा था अतः हमलोग रोपवे से ऊँचाई पर जाकर और नयी ऊंचाइयों को नापने से वंचित रह गये। परन्तु हमारी कल्पनाओं के घोड़े थामने से भी न रुके। एक ऊँचाई पर जाकर नागा पर्वत (7000 मीटर) गिलगिट की चोटियों को निहारने का काल्पनिक सुख लिया। मन- रूपी गरुण तो अपने पंख पसारकर और ऊँची उड़ान भर आया एवं वहाँ खड़े-खड़े माउॅट- एवरेस्ट की परिकल्पना कर डाली। ऐसा लगा कि हम गोंडोला की अधिकतम ऊँचाई से कुशल प्रशिक्षक के साथ स्कीईंग करते तेजी से नीचे उतर रहे हैं- जोर-जोर से चीखते हुये, अपने डर को दूर भगाते हुए, मार्ग की सभी भव-बाधाओं को पार करते हुए।
"गोल्फ मैदान की बर्फ पर पैदल न चलकर स्लेज से दौड़ा जावे "-यह तय होने पर सात स्लेजों पर सवार हमारा परिवार-दल आगे बढ़ा। शौर्य अभी तक अपनी माँ से चिपका था, परन्तु बाद में बर्फ पर अठखेलियों का सही आनंद इस जूनियर सदस्य ही ने लिया। ऋषि और वर्षा ने अपने स्लेज आपस में जोड़ रखे थे, एक स्लेज वाहक उन दोनों को एक साथ खींच रहा था। हम सबसे पीछे थे। एक तरह से अपने दल को हंकारते हुए, उनका उत्साह-वर्धन करते हुए। हँसी,ठिलठिलाहट , चीख, सीटियों की आवाज, कभी गिरना, ऊपर से नीचे जाना, अपने स्लेज-वाहक को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना-यही आनन्द था बिना पहियों की, बिना ब्रेक की गाड़ी पर चलने का! दौड़ने का !!
स्लेज खींचने वाले बड़े मेहनती और बाक्पटु थे। उस विस्तारित मैदान में कुछ प्राकृतिक, कुछ काल्पनिक वियु-पॉइन्ट बता रहे थे। बीच-बीच में वे फिल्मों, फ़िल्मी नायक-नायिकाओं और उन पर फिल्माये दृश्यों/गीतों की बातें कर हमारा कौतुहल बढ़ा रहे थे। उनकी जानकारी में अभी तक वहां 22 फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है, जिनमें हाइवे, ये जवानी है दीवानी, जब तक है जान, स्टूडेंट ऑफ़ द इयर, सात खून माफ, रॉक स्टार, मिशन-कश्मीर और लम्हा प्रसिध्द हैं। एक वरिष्ठ वाहक बता रहा कि
वह यहाँ तीन पीढ़ियों की शूटिंग देख चुका है। 1962 में शम्मीकपूर आये थे, कश्मीर की कली की शूटिंग के लिए, 1974 में ऋषिकपूर और डिम्पल बॉबी के लिए आये और अभी 25 जनवरी को रणवीर कपूर, दीपिका पदुकोण अपनी फिल्म यूनिट  के साथ आये थे (-) 10 डिग्री तापमान में उन्होंने यहाँ शूटिंग की।
मौसम आज भी बेहद ठण्डा रहा, तब भी स्लेजवाहक पसीने से लथ-पथ हो रहे थे। बर्फ पर नंगे पैर दौड़ना और सवारी खींचना दोनों मेहनत के काम हैं। बॉबी हट (कहते हैं यहाँ बॉबी फिल्म की शूटिंग हुई थी) पर आकर हमारी आगे-पीछे दौड़तीं स्लेज एक लाइन में रुक गयीं। स्लेज खींचने वाले भी ओत लेने (सुस्ताने) लगे। हम सभी ने भी अपने हाथ-पैर सीधे किये और बर्फ से खेलने लगे। शुरुआत में लगा बर्फ ठण्डी होगी,सख्त होगी। परन्तु हाथ में लेते ही एक विशेष गर्माहट महसूस की। वह रुई जैसी मुलायम थी, उसे उठाकर एक दूसरे को मारना ऐसा लगता था जैसे बृज में फूलों की होली खेल रहें हों।
स्लेज दल नायक बार-बार आग्रह कर रहा था -"अपने-अपने पर्स, मोबाईल और अन्य कीमती चीजें सम्भाल कर रखें। यहाँ के लोग चोर या पॉकेटमार नहीं हैं, बर्फ चोर है।" लगा एक सच्चाई और ईमानदारी है, उसके कथन में। बर्फ में एक बार कोई वस्तु गुम जावे, फिर उसे ढूँढना नहीं होता।
सूर्य सिर पर आ गया था। गुनगुनी धूप रही इसलिए ठण्ड से थोड़ी राहत रही। टूरिस्टों की हलचल बढ़ गयी थी। हमारी स्लेज गाड़ियाँ फिर दौड़ने लगीं। साथ-साथ चलते-दौड़ते स्कीईंग के यंत्र/उपकरण लिए, बार-बार अनुरोध करते, ट्रेन्ड प्रशिक्षक का प्रमाण-पत्र दिखलाते, कुछ ही देर में बर्फ पर स्कीईंग से दौड़ाने का वायदा करते। बीच मे एक नाला आ गया, जिसमें लबालब पानी बह रहा था। वह वहाँ की बर्फ का द्रव में अवस्था-परिवर्तन था। नाले पर बने अस्थायी पुल को पारकर हम खुले मैदान में आ गए।
यहाँ एक चौपाटी जैसा माहौल था। मेगी ,चिप्स, बिस्किट,चाय आदि की दुकानें सजीं थीं। स्कीइंग वाले तो वाकायदा स्टॉल लगाये हुए थे। हमने वहाँ चाय पी। बच्चों ने गर्मा -गर्म मेगी खाई। स्लेजवाहकों के साथ उनके कुछ लोग जुट गए। उनमें से एक ढपली बजाने लगा। जब तक है जान फिल्म का गीत 'जिया रे' की स्वर-लहरियाँ वहाँ गूंजने लगी। एक स्लेज-मैन नाच रहा था। हमने शौर्य को छोडा, तो वह उस गीत-संगीत पर अपनी कमर मटकाने लगा। अच्छा खासा मनोरंजन, बिल्कुल शूटिंग का सा माहौल बन गया।
हम सभी ने मुलायम बर्फ समेट कर एक बन्दर (मंकी) की आकृति बनाई, उसे सजाया, सँवारा और नाम दिया मन्ना (पौत्र शौर्य मंकी को मन्ना कहता है) उसके साथ फोटो खिंचवाए। बर्फ पर अपने नाम लिखे-सन्देश छोड़े यह जानते हुए कि बर्फ एक मायाबी स्वरुप है, छलावा है। कुछ देर बाद अपनी अवस्था परिवर्तन कर लेगा।अबीर (सबसे छोटा बेटा) बर्फ पर लेट-लेट कर पीठ से मार्डन-आर्ट बना रहा था, लगा उसने इस कला का पूर्वाभ्यास किया है।
स्कीईंग किसी को नहीं आती रही। हाँ! थोड़ी बहुत स्केटिंग सभी को आती थी। प्रशिक्षण लेकर या प्रशिक्षक के साथ स्कीईंग कठिन भी नहीं थी। हम लोगों ने उपकरण लिए, हल्के-फुल्के टिप्स लिए और दो-दो हाथ अजमाने लगे। चले, दौड़े, गिरे, चोट खाई, सहलाया और फिर उठकर चल दिए। यही तो जीवन का क्रम है। स्कीईंग न सही, परन्तु उसके लिए किया गया ईमानदार प्रयास ही हमारे लिए पर्याप्त था। ठीक वैसे, जैसे तैरने के लिए पानी में उतारना।
गुलमर्ग की गुलबादियों को चंद घण्टों में घूमना सम्भव नहीं, परन्तु हम अपने  हिसाब से चल रहे थे। स्लेज वाहक भी जल्दी में दिखे। सैलानियों की क्रमशः बढ़ती संख्या पर उनकी आँखें जमी हुईं थी। वे इस जुगत में रहे कि जल्दी से जल्दी हमसे फारिग हों। लौटते समय हमारा सलेजमेन बता रहा था
मई-जून में यहाँ मैदान में  सुन्दर हरियाली होती है। ऊपर के हिस्से में गुलमर्ग-गोंडोला के बगल में लीची के बगीचे होते हैं। सामने मैदान में पोनी-राइडिंग होती है। हाँ! ऊपर पहाड़ पर बर्फ होती है, जहाँ एडवेंचरस-स्पोर्ट्स होते हैं। विषयांतर होने पर वह बोला फिल्म वाले बड़ा धोका देते हैं। अभी-अभी आई फिल्म 'ये जवानी है दीवानी' के ट्रेकिंग-ट्रिप्स यहाँ गुलमर्ग में फिल्माए गए, जिन्हें मनाली का बताया जा रहा है। ऐसा और फिल्मों में भी होता है। हम लोग तो उनके स्वागत में पलक-पाँवड़े बिछाते हैं और वे हमारे साथ चिटिंग करते हैं।
स्लेज-वाहक ने यह भी बताया गुलमर्ग में कोई घर नहीं बनाता। पाकिस्तानी नियंत्रण रेखा (एल ओ सी) यहाँ प्रभाव डालती है। यहाँ की आबादी 500-600 ही है। होटल में रुकने वाले और होटल में काम करने वाले, बस! उसने यह भी बतलाया कि यह वास्तव में 'गौरी -मार्ग' है, माता गौरी (पार्वती) अपने पति भगवान शिव से मिलने इसी रास्ते से आती-जाती थीं। यूसुफ शाह चक ने इसका नाम बदलकर गुलमर्ग यानि फूलों का मैदान रख दिया।
वापिस आने पर स्लेज-वाहक ने हमसे पूछा -'गुलमर्ग कैसा लगा?' हमने कहा -'वाह! स्वर्णिम!! अलौकिक!!!' उसने अत्यन्त भावुक लहजे में कहा -'आप सैलानी हमारे लिये भगवान का प्रतिरूप हैं। आप आते हैं तो हमें और हमारे बच्चों को खाना मिलता है। आप प्रसन्न होंगे तो वापिस जाकर अपने चार दोस्तों को कहेंगे कि गुलमर्ग सुरक्षित है, तो चार लोग और आयेंगे। बीच में जब आतंकबादियों के कारण टूरिस्टों ने यहाँ आना बंद कर दिया था, तब कई दिनों हमारे घर में चूल्हा नहीं जला।' हमने उसे आश्वत किया कि हम वापिस लौट कर अपने मित्रों/परिचितों को अवश्य बतलायेंगे, ब्लॉग लिखेंगे। भारत का स्वर्ग ,कश्मीर ,पर्यटन के लिये पूर्णरूपेण सुरक्षित है।
एक छोटी सी जगह में लगभग 40 छोटे-बड़े होटल, तीन से पाँच सितारा तक। टेक्सी-ड्राइवर ने होटल हाईलैंड भी दिखाया, जहाँ फिल्म बॉबी की कुल शूटिंग हुई, विशेषकर वह गाना 'अंदर से कोई बाहर न जा सके'। लगभग 4.0 बजे हम टेंग मार्ग पहुंचे, किराये के फर-कोट और जूते वापिस किये। सभी को जोरों की भूख लगी थी। वहाँ के एक रेस्टॉरेन्ट में गर्म-गर्म आलू पराठे खाये। जो गुलमर्ग के गुमनाम उपन्यास में कृष्ण चन्दर द्वारा वर्णित पराठों जैसे स्वादिष्ट थे, वैसे ही चटखारे वाले, अंगुलियाँ चाटने वाले। एक-एक कप कहवा पिया और रास्ते में सेव के बाग देखते हुये हमने कश्मीर के बॉलीवुड को अलविदा कहा।