रविवार, 31 मई 2015

मूक माटी

धर्म-दर्शन एवम् अध्यात्म के सार को आज की भाषा एवम् मुक्त छन्द की मनोरम काव्य-शैली में निबध्द कर कविता-रचना को नया आयाम देने वाली एक अनुपम कृति
आचार्य श्री विद्यासागर जी की काव्य-प्रतिभा का यह चमत्कार है कि उन्होंने माटी जैसी निरीह, पद-दलित एवम् व्यथित वस्तु को महाकाव्य का विषय बनाकर उसकी मूक वेदना और मुक्ति की आकांक्षा को वाणी दी है। कुम्भकार शिल्पी ने मिट्टी की ध्रुव और भव्य सत्ता को पहचानकर, कूट-छानकर, वर्णशंकर कंकर को हटाकर उसे निर्मल मृदुता का वर्ण लाभ दिया। फिर चाक पर चढ़ाकर, आवां में तपाकर, उसे ऐसी मंजिल तक पहुंचाया है। जहाँ वह पूजा का मंगल-घट बनकर जीवन की सार्थकता प्राप्त करती है। कर्मबध्द आत्मा की विशुध्दी की ओर बढ़ती मंजिलों की मुक्ति-यात्रा का रूपक है -यह महाकाव्य
अलंकारों की छटा, कथा-कहानी सी रोचकता, निर्जीव माने-जाने वाले पात्रों के सजीव एवम् चुटीले वार्तालापों की नाटकीयता तथा शब्दों की परतों को बेधकर अध्यात्म के अर्थ की प्रतिष्ठापना यह सब कुछ सहज ही समा गया है इस कृति में, जहाँ हमें स्वयं और मानव के भविष्य को समझने की नयी दृष्टि मिलती है और पढ़े-सुने को गुनने की नयी सूझ

इस अनुपम कृति का एक और नया संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया है

[महाकाव्य के फ्लेप पर छपी कुछ पंक्तियाँ]

मंगलवार, 12 मई 2015

झुके न तुम प्रताप प्यारे

शीतल भाट ने दिल्ली दरबार में मुग़ल बादशाह अकबर को मुजरा करते समय सिर पर बंधी पगड़ी हाथ में ले ली। पूछे जाने पर उसने उत्तर दिया- “यह पगड़ी मुझे उन महाराणा प्रताप ने दी थी, जिनका सिर भगवान एकलिंग के सिवाय किसी और को कभी नहीं झुका। अतः मैंने भी इस पगड़ी का मान रखा।” शहंशाह अकबर, शीतल की निर्भीकता से प्रसन्न हुआ, परन्तु उसके दिल में एक टीस अवश्य उठी—
सूर्य झुका, झुक गये कलाधर,
झुके गगन के तारे।
अखिल विश्व के शीश झुके,
पर झुके न तुम प्रताप प्यारे।

[राजस्थान के महाराणा और राजाओं का जीवन-चरित्र-मुंशी देवीप्रसाद एवम् हरिकृष्ण प्रेमी की कविता “तुम्ही?” पर आधारित।]

धरम रहसी, रहसी धरा

एक युध्द में कुंवर अमरसिंह मुग़ल सेनापति मिर्जाखां को पराजित कर उसकी स्त्रियों को पकड़कर अपने पड़ाव ले आये तो महाराणा ने कुँवर को फटकार लगाई और मुग़ल स्त्रियों को ससम्मान वापिस भिजवा दिया। इस घटना से अब्दुल रहीम खानखाना, जो बादशाह अकबर के नजदीकी रिश्तेदार थे, अत्याधिक प्रभावित हुए। उन्होंने महाराणा को लिख भेजा-
धरम रहसी, रहसी धरा,
खप जासी खुरसान
अमर बिसम्बर उपरे,
राख न हच्चो राण

(अर्थात-तुम्हारा धर्म यथावत रहेगा और पृथ्वी भी रहेगी, परन्तु यवनों का नाश हो जायेगा। हे राणा! उस अविनाशी विश्वंभर पर विश्वास रखो)
[‘अकबरनामा’ अबुल्फज़ल और जयशंकर प्रसाद की कविता ‘महाराणा का महत्त्व’ पर आधारित।]


पटको मुन्छां पाण

बादशाह अकबर ने अपने दरबारी पृथ्वीराज राठौड़ से कहा- “पता चला है, कि कीका (महाराणा प्रताप) मुझे पातशाह मानने लगा है।” पृथ्वीराज राठौड़ एक अच्छे कवि थे और महाराणा प्रताप के सच्चे प्रशंसक। उन्हें बादशाह की बात का रत्ती भर विश्वास नहीं हुआ और सच्चाई जानने के लिए महाराणा को एक पत्र भेजा, जिसमें लिखा था कि यदि महाराणा प्रताप अपने मुँह से अकबर को बादशाह कहने लगे तो कहना चाहिए कि सूर्य पश्चिम से ऊगने लगा। हे एकलिंग के दीवान! मुझे बतायें कि- “पटकूं मुन्छां पाण, कै पटकूं निज तन करद।”
प्रत्त्युत्तर में महाराणा ने लिखा-
खुसी हूँत पीथल कमध, पटको मुन्छां पाण,
पछतण है जैतो पतौ, कलमां सिर कैवाण
(अर्थात-वीर पृथ्वीराज! तुम प्रसन्न होकर मूंछों पर ताव दो, जब तक प्रताप के हाथ में तलवार है, कलमा पढने वालों के सिर पर तनी रहेगी।)

और, इतिहास गवाह है कि महाराणा ने मृत्युपर्यंत दिल्ली-दरबार की आधीनता नहीं स्वीकारी।
[‘पातल और पीतल’ एवम् ‘महाराणा प्रताप’-सम्पादक डा. बृजेश सिंह पर आधारित।]

महाराणा है अनन्य मातृभूमि के पुजारी
चतुरस्त्र फ़ैल उठा उनका प्रताप है।
बप्पा श्री खुमाण औ हमीर वीर कुम्भा-सा
सांगा की परम्परा का लिया कर चाप है।
विकट प्रचण्ड वरिवंड है अखण्ड बना
भारतीय भूमि काहरा समग्र ताप है
चंडी हृदयस्थ हुई रक्त अभिषेक किये
वीरों में सुरत्नमौलि रणाश्री प्रताप है।
[राष्ट्रकवि डॉ बृजेश सिंह के महाकाव्य ‘आहुति’ से]

आग  बरसती हो पर जिसको,
आगे बढ़ने की लय थी।
शस्त्र-हीन घिर जाने पर भी
जिसकी जय आशा-मय थी।
रोम –रोम जिसका वैरी था,
जो सहता था दुःख पर दुःख।
काँटों के सिंहासन पर भी
शत सविता सा जिसका सुख।
भाई ने भी छोड़ दिया—
पर रखा देश का पानी है।
पाठक! पढ़ लों उसी वीर की
हमने लिखी कहानी हैं।
[हल्दीघाटी महाकाव्य से]


सुविचार
आओ लगायें घर-आँगन में
अच्छा-सा एक आम का पेड़।
खट्टा-खट्टा मीठा-मीठा
अच्छा-सा एक आम का पेड़।