
आचार्य श्री विद्यासागर जी की काव्य-प्रतिभा का यह चमत्कार है कि उन्होंने माटी जैसी निरीह, पद-दलित एवम् व्यथित वस्तु को महाकाव्य का विषय बनाकर उसकी मूक वेदना और मुक्ति की आकांक्षा को वाणी दी है। कुम्भकार शिल्पी ने मिट्टी की ध्रुव और भव्य सत्ता को पहचानकर, कूट-छानकर, वर्णशंकर कंकर को हटाकर उसे निर्मल मृदुता का वर्ण लाभ दिया। फिर चाक पर चढ़ाकर, आवां में तपाकर, उसे ऐसी मंजिल तक पहुंचाया है। जहाँ वह पूजा का मंगल-घट बनकर जीवन की सार्थकता प्राप्त करती है। कर्मबध्द आत्मा की विशुध्दी की ओर बढ़ती मंजिलों की मुक्ति-यात्रा का रूपक है -यह महाकाव्य।
इस अनुपम कृति का एक और नया संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया है।
[महाकाव्य के फ्लेप पर छपी कुछ पंक्तियाँ]
0 comments :
एक टिप्पणी भेजें
Your Comments