मंगलवार, 27 मई 2014

माँ वैष्णव देवी (अर्धकुंवारी से आगे का सफ़र)

अर्धकुंवारी से भवन तक पहुँचने के लिए हम लोगों ने नया वैकल्पिक रास्ता चुना। यह पुराने रास्ते की अपेक्षा आसान एवं आधा किलोमीटर कम था। यहाँ से निशक्त जनों, विकलांगों एवं सीनियर सिटीजन्स के लिए ऑटो रिक्शा चलते हैं। काउंटर से तीन सौ रुपये में आने-जाने का पास मिलता है, बीमारी का सर्टिफिकेट या षष्ठि-पूर्ति का प्रमाण पत्र दिखाने पर। इस रास्ते पर पहाड़ी से लुढ़कते पत्थरों का डर रहा। अस्थायी सुरक्षा बतौर चिन्हित स्थलों पर टीन के शेड्स लगाये गए हैं, परन्तु देर सबेर पहाड़ी तरफ कंक्रीट की दीवार बना स्थायी समाधान आवश्यक होगा।


रास्ते में दिल्ली के रघुनन्दन शर्मा (रिटायर्ड सेल्स टैक्स ऑफिसर) मिले, उम्र ७३ वर्ष, लेकिन कमर झुकी नहीं थी। लकड़ी तो सहारे के लिए ले रखी थी, परन्तु तनकर चलते थे। वे यात्रियों को बाहिरी रैलिंग के पास बैठने एवं उसे पकड़कर चलने के लिए मना कर रहे थे। आज की ही ताजा घटना उन्होंने सुनाई- दो-तीन लोग बच्चों सहित रैलिंग के पास बैठे थे, अचानक बंदरों ने उनपर धावा बोल दिया। वह तो शर्मा जी और अन्य लोगों ने अपनी लाठी से बंदरों को धमकाया-डराया, तब उनकी जान बची। शर्मा जी का एक तर्क और रहा- पहाड़ी से लुढ़कते पत्थर रैलिंग तरफ़ ही सीधी मार करते हैं। चर्चा में शर्मा जी ने यह भी बतलाया कि अर्धकुंवारी में उन्हें जलगांव की दो महिलाएं मिली थी, जिनका पर्स और पैसा गुम गया। शर्मा जी ने उन्हें एक सौ रुपया दिया और कुछ लोगों से पैसा दिलवाया; कम से कम वे अपने घर तो पहुँच सकेंगी। शर्मा जी से क्षमा मांग कर हम अपने परिजनों के साथ हो लिए।


भवन की स्वच्छ, निर्मल सौंदर्यमयी प्रथम छवि दिखते ही हम सभी का जी बाग़ बाग़ हो गया। हम सभी मारे ख़ुशी के नाचने लगे। बस! कुछ दूर और, मील के कुछ पत्थर पार करते ही मंज़िल तय। घुमावदार रास्ते के प्रत्येक सौ मीटर पर लगे चैनेज स्टोन को देखकर लगता, मानो हमारा कोई हितैषी-रिश्तेदार वहाँ खड़ा मुस्करा रहा है। हमारे आने पर प्रोत्साहित करता हुआ, हमारे आगे बढ़ते ही हमें 'बैक-सपोर्ट' दे रहा है।
यात्रा के प्रारंभ में हम सशंकित रहे। मैहर में माँ शारदा मंदिर की सीढ़ियां और मंडला के काला पहाड़ की सीधी चढ़ाई में असफलता के पूर्व अनुभव हमारे साथ थे। सच! यह माँ वैष्णव देवी की कृपा थी, हमें शक्ति मिली, हमने एक कठिन यात्रा को पूरा किया और शाम होते-होते मंदिर परिसर में प्रवेश पाया। दर्शनों हेतु लाइन में लगकर ऐसा लगा, मानो एक स्वप्न देख रहे हों। कभी कल्पना की थी, माता रानी के दर्शनों की, कब? कैसे? यह नहीं सोचा था। आनन-फानन बनी योजना और तत्काल रिज़र्वेशन की सुविधाओं का लाभ उठाते हुए हम आखिर, दरबार तक पहुँच ही गए। सपना जो सच होने जा रहा था। यात्रा के सारे कष्ट, शरीर की सारी थकान कुछ देर के लिए भूल गए। मन ने बाह्य कष्टों पर विचार करना छोड़ दिया। अन्तर्मन में सिर्फ और सिर्फ माँ की वही छवि उभरने लगी जो सामने क्लोज सर्किट टी.व्ही. पर दिखाई दे रही थी। वातावरण कुछ ठंडा हो गया था। हम सभी जर्सी, स्वेटर इत्यादि पहिनकर लाइन में अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे।
कतार में रहे सहयात्रियों से बतियाते, उनके दुःख-दर्द, उनकी सुखद अनुभूतियों को शेयर करते हुए हम आगे बढ़ते गए। हमारे साथ जो परिवार था, वह माता के दरबार में पहले भी आ चुका था। उन्होंने बताया कि मातारानी इस भवन में नीचे बनी गुफ़ा में है। हम सीढ़ी चढ़ते हुए ऊपर जाएंगे और फिर गुफ़ा के लिए नीचे उतरेंगे। माँ के दर्शन चौबीसों घंटे होते हैं, बस सुबह शाम आरती के समय विराम रहता है। मुख्य गुफ़ा में प्रवेश वर्जित है। वह रास्ता नवरात्रियों में खोला जाता है। नवरात्रियों की भीड़ और धक्का-मुक्की को याद कर, उन्होंने बतलाया कि वहाँ उपस्थित सुरक्षाकर्मी एवं व्यवस्था-प्रभारी मूर्ति के सामने रुकने नहीं देते। कई बार तो हम प्रकटित प्रतिरूपों के ठीक से दर्शन नहीं कर पाते और पीछे से धक्का या घुड़की आ जाती है और हम बाहर आ जाते हैं। इतना कष्ट सहकर हम जहाँ दर्शनों की लालसा लेकर आते हैं, वहां क्लोज सर्किट टी.व्ही. से ही संतुष्ट होना पड़ता है। हम लोग सोच रहे थे कि यदि आज भी ऐसा हुआ तो हमारा आगमन/प्रयास व्यर्थ होगा। खैर, मन ही मन जयकारा लगाते हुए जब हम गुफा द्वार पर आये तो एकल कतार बद्ध हो गए। गुफ़ा के अंदर के शांत, शीतल एवं सुगंधित वातावरण से मन में विश्वास जग रहा था कि माता रानी के ठीक-ठीक दर्शन हो जावेंगे।
और...वह स्वर्णिम क्षण आया जब हम प्रमुख प्रतिमाओं के सामने हाथ जोड़े खड़े थे। वहाँ तैनात सुरक्षाकर्मी की दबंग आवाज़ सुनाई दी-"अपने बाएं तरफ दृष्टि डालें जो खड़ी मूर्तियों के दर्शन आप कर रहे हैं उनके ठीक नीचे माता की स्वयंभू झांकियाँ हैं"।



हम अवाक थे, हतप्रभ थे, चमत्कार सा देख रहे थे। ऐसा लगा- हमारे आगे-पीछे कोई नहीं है। माँ का दिव्य दरबार है, उनकी मनोरम झांकियाँ हैं और हम अपलक उन्हें निहार रहे हैं। न कोई भीड़-भाड़ न कोई धक्का-मुक्की, न कोई पुलिस या घुड़की। माता के दर्शन की लालसा पूर्ण होते ही नेत्र स्वयमेव बंद हो गए, मानो उन दृश्यावलियों को सदा-सदा के लिए कैद करना चाहते हों। वहां उपस्थित पंडितजी ने हमारी तन्द्रा भग्न की-"थोड़े आगे आइये जजमान। हम आपको तिलक लगा दें"। हमने उसी स्थिति में अपना मस्तक आगे झुका दिया। भाल पर सिन्दूरी तिलक अंकित कर पंडितजी ने हौले से आगे बढ़ने का संकेत किया। हम इसे अपना सौभाग्य माने या मातारानी की कृपा। सच है उनकी मर्ज़ी के बिना तो यह सब संभव नहीं था। अन्य परिजनों के साथ जब अलीशा और शौर्य का क्रम आया तो पंडितजी ने शौर्य को मातारानी के चरणों में लिटाने की अनुमति दे दी। वर्षा को मातारानी के आशीष के रूप में चुनरी प्राप्त हुई। हम सभी प्रसन्न एक-दूसरे को इस यात्रा का श्रेय देने लगे परन्तु हमारे हिसाब से इस यात्रा का पुण्य 'शौर्य' को मिला, क्योंकि उसके साथ हम सभी को यह दर्शन लाभ मिला। एक बार पुन: माँ के श्री चरणों में नमन किया और गुफ़ा से बाहर आये।


काउंटर से प्रसाद लिया। अमानती सामग्री (मोबाइल, कैमरा, पर्स, चमड़े की सामग्री जूते इत्यादि) मुक्त कराये।

शारीरिक थकान अब हावी होने लगी थी। हमलोग जहाँ बैठे थे लगा वहीं बैठे-बैठे नींद आ जाएगी। परन्तु वह स्थल मुख्य प्रवेश द्वार से लगा था, उसे तो अन्य दर्शनार्थियों के लिए खाली करना था। भूख भी लग रही थी। मंदिर परिसर के बाहर थोड़ा बहुत खाना खाया, बिना लहसुन प्याज़ का-प्रसाद था। आत्मा तृप्त हुई, मन संतुष्ट हुआ। परन्तु शरीर शिथिल हो गया। खाने के बाद तो अपनी काया खुद को भारी लगने लगी। वापिस भी उतारना रहा। सुनते आये थे कि चढ़ाई की अपेक्षा उतरने में कष्ट होता है, अधिक ऊर्जा लगती है। स्वाभाविक है हमें अपने गुरुत्व केंद्र के विरुद्ध कार्य करना पड़ता है, कष्ट तो होगा ही। रात्रि के ग्यारह बज रहे थे। वहां का तापमान ठिठुरन भरा था। हमारे पास सीमित गरम कपडे रहे। यात्री निवास में जगह नहीं मिली। मंदिर से कम्बल लेकर रात काटी जा सकती थी, परन्तु फिर दूसरे दिन का कार्यक्रम बिगड़ जाता। सभी ने विचार कर वापिसी विकल्प घोड़े चुने। बाबा भैरवनाथ को प्रणाम कर मातारानी की निर्मल झाँकियाँ अपने अंतर्मन में सहेजे हम वापिस लौट पड़े।
घोड़े पर चढ़ने और चलने खासकर एक ऊंचाई से नीचे में डर लगा। एक दूसरे को ढाँढस बंधाते, प्रोत्साहित करते हम चल रहे थे। नेतृत्व सौरभ ने संभाला। अलीशा और शौर्य का साईस बहुत अच्छा था, वह बीच-बीच में शौर्य को अपनी गोद में ले लेता था। अबीर का घोड़ा और साईस अपेक्षाकृत सुस्त रहे, उसे बीच में लेकर चलना पड़ा। वर्षा का घोड़ा मालिक अक्सर घोडा छोड़कर मोबाइल पर बात करता रहता था और उसे लगातार वर्षा की डाँट खानी पड़ी। मीना का घोड़ा हमने लगभग साथ रखा था, क्योंकि हम जानते थे कि वह बहुत डरती है। हमारा घोड़ा मालिक बहुत अनुभवी रहा। लगातार हम लोगों से बात करता रहा और "टिकी-टिकी-टिकी" कर घोड़े को संकेत देता रहा। जहाँ सीधा उतार होता, वह आगे आ जाता और लगाम पकड़कर घोड़ा उतारता था। बाकी समय या तो हमारे साथ चलता या पीछे घोड़े की पूँछ पकड़कर। घोड़े पर बैठने और लम्बी यात्रा के प्रारंभिक सूत्र उसने हमे दिए-घोड़े पर बैठकर कमर सीधी रखना, लगाम पकड़ने के लिए उसने मना किया था।पकड़ने के लिए घोड़े पर कसी जीन से एक हत्था था। उसने यह भी हिदायत दी थी कि हम सीधे सामने या ऊपर का नज़ारा देखते चलें, नीचे न देखें। ऊंचाई  उतरने का यह फंडा हमें तो आता था, परन्तु दल के बाकी अश्वरोही इससे अनभिज्ञ थे। चौदह कि.मी. घोड़े की पीठ पर बैठकर यात्रा कल्पना से परे थी। ऊपर से रास्ते में घटती बढ़ती प्रकाश व्यवस्था। पैरों और जांघों में असहनीय पीड़ा हो रही थी परन्तु थकान और रात्रि के कारण पैदल मार्ग या सीढ़ियों से उतरने का रिस्क हमारा परिवार नहीं ले पाया। बड़े कष्ट की कल्पना ने छोटे कष्टों का डर समाप्त कर दिया।
साईस से हमने घोड़ों के इतने अभ्यस्त होने का राज़ पूछा तो उसने बतलाया कि यही उनकी आजीविका है। रोज़ वे और उनके घोड़े ऐसे ही यात्रियों को ऊपर नीचे ढ़ोते हैं। लगभग दो चक्कर प्रतिदिन हो जाते हैं। "कभी घोड़े फिसलते नहीं"? प्रश्न के उत्तर में उसने कहा-"कभी नहीं हुआ"।
और हम मातारानी से दुआ माँग रहे थे कि आज भी ऐसा न हो। क्योंकि हमने आज ही अपनी इस दुर्गम यात्रा में सबसे सुरक्षित सवारी पालकी को मय कहारों के गिरते और क्षतिग्रस्त होते देखा था।
हम सभी सकुशल लौट आये, मातारानी को बार-बार प्रणाम किया, जिनकी कृपा से यह यात्रा सम्पन्न हुई।