अनुश्रुत विक्रमादित्य ईसवी पूर्व 102 से ईसवी 15 तक उज्जैन
(भारत) के राजा रहे। वे ज्ञान, वीरता और उदारशीलता की व्यक्तित्व-त्रयी थे। देवभाषा (संस्कृत) हो या भारतीय अन्य भाषाएँ, दादी-नानी के
किस्से-कहानियां हों या किस्सागोई की अबूझ-पहेलियाँ, चारण-भाटों की बखानी
बिरादावालियाँ हों या वाक्यानाविशों की गढ़ी इबारतें, कालपात्र हों या
कीर्ति-स्तम्भ-सम्राट विक्रमादित्य की भूरी-भूरी प्रशंसा करते नहीं अघाते।
सूबेदार भगवानदीन सिंह सोमवंशी के अनुसार— मालवा का
प्रसिध्द राजा गंधर्वसेन था.इसके तीन पुत्रों में शंख अल्पायु में ही मर गया, भरथरी योगी हो गया और
विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा। कथा–सरित्सागर के अनुसार
वे, परमार वंश के राजा महेंद्रदित्य के पुत्र थे।
विक्रम का वंश-परिचय
वंश—सूर्य वंश
शाखा—परमार
गौत्र-वसिष्ठ
प्रवर-वसिष्ठ, अत्रि, सांकृति
वेद-यजुर्वेद
सूत्र-पारस्कर गृह्यसूत्र
कुलदेवी-कालिका
वृक्ष-पीपल
प्रमुख गद्दी-उज्जैन
सम्राट विक्रमादित्य युद्ध-कला एवम शस्त्र-संचालन में
निष्णात थे। उनका सम्पूर्ण संघर्षों से
भरे अध्यवसायी जीवन विदेशी आक्रान्ताओं, विशेषकर शकों के प्रतिरोध में व्यतीत हुआ। अंततः ईसा पूर्व 56 में उन्होंने शकों को परास्त किया, शकों
पर विजय के कारण वे ‘शकारि’ कहलाये। और इस तरह ‘विक्रम-युग’
अथवा ‘विक्रम-सम्वत’ की शुरुआत हुई। आज भी भारत और नेपाल
की विस्तृत हिन्दू परम्परा में यह पंचांग व्यापक रूप से प्रयुक्त होता है। विक्रमादित्य के शौर्य का वर्णन करते हुए समकालीन अबुलगाजी
लिखता है— जहाँ परमार विक्रम का दल आक्रमण करता था वहाँ शत्रुओं की लाशों के
ढेर लग जाते थे और शत्रुदल मैदान छोड़कर भाग जाते।
चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य की राजधानी उज्जैन थी। पुराणों एवम अन्य इतिहास ग्रंथों से पता चलता है कि अरब और
मिश्र भी विक्रमादित्य के अधीन थे। विक्रमादित्य की अरब-विजय
का वर्णन कवि जरहम किनतोई की पुस्तक सायर-उल-ओकुल में है। तुर्की की
इस्ताम्बुल शहर की प्रसिध्द लाइब्रेरी मकतब-ए-सुल्तानिया में यह ऐतिहासिक ग्रन्थ
है, उसमें राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख है। जिसमें कहा गया है–
वे लोग भाग्यशाली है जो उस समय जन्मे और राजा
विक्रम केराज्य में जीवन व्यतीत किया। वह बहुत दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था,जो हरेक व्यक्ति के बारे में
सोचता था। उसने अपने पवित्र धर्म को
हमारे बीच में फैलाया। अपने देश के सूर्य से भी
तेज विव्दानों को इस देश में भेजा ताकि शिक्षा का उजाला फ़ैल सके। इन विव्दानों और ज्ञाताओं ने हमें भगवान की उपस्थिति
और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। ये विक्रमादित्य
के निर्देश पर यहाँ आये।
यह शिलालेख हजरत मुहम्मद के जन्म के 165 वर्ष पहले का है।
विक्रमादित्य का प्रशस्ति-गान करती दो पुस्तकें आम प्रचलन में हैं-
1.बेताल पच्चीसी (बेताल पञ्चविंशति) इसमें पच्चीस कहानियाँ हैं। जब विक्रमादित्य विजित बेताल को कंधे पर लाद कर ले जाने लगे
तो बेताल उन्हें एक समस्यामूलक कहानी सुनाता है। शर्त रहती है कि
उसका समाधान जानते हुए भी यदि राजा नहीं बताएँगे तो उनके सिर के टुकडे-टुकडे हो
जायेंगे और यदि राजा बोला तो बेताल मुक्त हो कर पेड़ पर लटक जावेगा। राजा ज्ञानवान थे, बुध्दिमान थे, वे समस्या का सटीक समाधान
जानते थे। कहानियों का सिलसिला यूँ
ही, चलता रहता है।
2.सिंहासन बत्तीसी (सिंहासन द्वात्रिंशिका) परवर्ती राजा भोज परमार
को 32 पुतलियों से जड़ा स्वर्ण-सिंहासन प्राप्त हुआ। जब वे उस पर
बैठने लगे तो उनमे से एक-एक कर पुतलियों ने साकार होकर सम्राट विक्रमादित्य
की न्यायप्रियता, प्रजावत्सलता,वीरता से भरी कहानियाँ सुनाई और शर्त रखी कि यदि वे
(राजा भोज) पूर्वज विक्रमादित्य के समकक्ष हैं, तभी उस सिंहासन की उत्तराधिकारी
होगें! एम.आई.राजस्वी की पुस्तक राजा विक्रमादित्य के अनुसार, विक्रमादित्य को यह
सिंहासन देवराज इंद्र ने दिया, जिसमें स्वर्ग की 32 शापित अप्सराएँ पुतलियाँ बनकर
स्थित थीं, जिन्होंने अत्यंत निकट से देखी थी विक्रमादित्य की न्यायप्रियता।
सम्राट विक्रमादित्य का सम्बन्ध बड़ी ही आसानी से ऐसी घटना
या स्मारक से जोड़ दिया जाता है, जिसका ऐतिहासिक विवरण अज्ञात है। जैसे कि, एक बार एक तांत्रिक अष्ट सिध्दियों को प्राप्त
करने के लिए सर्वगुण संपन्न विक्रमादित्य की बलि देना चाहता था। वह तो भला हो बेताल का, जिसने विक्रमादित्य की
न्यायप्रियता से उसे सत्य रहस्य बता दिया। बेताल का यह
स्वार्थ रहा कि तांत्रिक के मरते ही वह भी मुक्त हो जायेगा। राजा विक्रमादित्य
ने युक्ति से काम लिया और तांत्रिक का सिर काटकर यज्ञाग्नि के हवाले कर दिया- और
राजा को अष्ट-सिध्दियां प्राप्त हो गयीं।
विक्रमादित्य स्वयं गुणी थे और विव्दानों, कवियों, कलाकारों
के आश्रयदाता थे। उनके दरबार में नौ
प्रसिध्द विव्दान- धन्वन्तरी, क्षपनक, अमरसिंह, शंकु, खटकरपारा, कालिदास,
बेतालभट्ट वररूचि और वाराहमिहिर थे, जो नवरत्न कहलाते थे। राजा इन्हीं की सलाह
से राज्य का संचालन करते थे। भविष्य-पुराण में आया है—
धन्वन्तरिः क्षपनकोमरसिंह शंकू बेतालभट्ट
घटकर्पर कालिदासः.
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते सम्भायां रत्नानि वै
वररुचिर्नव विक्रमस्य।
धन्वन्तरी औषधिविज्ञान के ज्ञाता रहे,कवि कालिदास राजा के
मंत्री रहे और वराह्महिर ज्योतिषविज्ञानी। उज्जैन तत्कालीन
ग्रीनविच थी, जहाँ से मध्यान्ह की गणना की जाती थी। सम्राट वैष्णव थे पर
शैव एवम शाक्त मतों को भी भरपूर समर्थन मिला। तब, संस्कृत
सामान्य बोल-चाल की भाषा रही।
विक्रमादित्य के समय में प्रजा देहिक, देविक और भौतिक
कष्टों से मुक्त थी। चीनी यात्री फाहियान लिखता
है– देश की जलवायु सम और एकरूप है। जनसँख्या अधिक है और लोग
सुखी हैं। राजधानी उज्जैन की शोभा का
वर्णन करते हुए कवि कालिदास ने लिखा है —यह नगर स्वर्ण का एक कांतिमय खंड था, जिसका
उपभोग करने के लिए उत्कृष्ट आचरण वाले देवता अपने अवशिष्ट पुण्यों के प्रताप के
कारण स्वर्ग त्याग कर पृथ्वी पर उतर आये थे।
इतिहास में ऐसे अन्य राजाओं और सम्राटों की चर्चा आती है, जिन्हें
विक्रमादित्य का विरुद (टाइटल) लगा या लगाया गया, जिनमें उल्लेखनीय हैं गुप्त
सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य और हेमचन्द्र विक्रमादित्य (जो हेमू के नाम से
प्रसिध्द है)। परन्तु जिन विक्रमादित्य का
हम गुणगान कर रहे हैं, वे भारत-भारती (मैथली शरण गुप्त) के अनुसार-
विक्रम कि जिनका आज
भी संवत यहाँ पर चल रहा,
ध्रुव-धर्म के ऐसे
नृपों का उस समय भी बल रहा।
नर रूप रत्नों से
सजी थी वीर विक्रम की सभा,
अब भी जगत में जागती
है जगमयी जिनकी प्रभा।
जाकर सुनो उज्जैन
मानो, आज भी यह कह रही,
मैं मिट गई पर कीर्ति
मेरी तब मिटेगी जब मही।