डॉक्टर अव्यक्त अग्रवाल, जबलपुर के नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, आयुर्विज्ञान संस्थान में, शिशु रोग विशेषज्ञ हैं। फुर्सत के क्षणों में वे इन्टरनेट पर कहानियाँ लिखते हैं, जहाँ उनके ढेरों मित्र और प्रशंसक हैं। वेव (WWW) की आभासी दुनिया से दबंग शुरुआत के बाद अव्यक्त जी की 28 कहानियों को ‘सही के हीरो’ शीर्षक से पुस्तकाकार पाने में प्रतीक्षा करना पड़ी। खैर, देर से सही, लेकिन दुरुस्त मिली। विशेष खुशी तो तब हुई जब उस पर ‘नेशनल बेस्ट सेलर’ का ठप्पा दिखा। वाह!
सूचनाओं के भ्रमजाल और शिल्प की चमक-दमक से दूर इन कहानियों को पढ़कर लगा कि ये सर्जक की प्राकृतिक स्वतः-स्फूर्त या स्वयंभू अंतःशक्ति तो है हीं, इनमें साधक का रचनात्मक संकल्प, खुद को निचोडने की जिद और जगत को अपने अनुसार ढालने का पागलपन दिखाई देता है। एक अवयस्क टूरिस्ट-गाइड से लेकर सफल शिशु-रोग-चिकित्सक बनने तक के संघर्षमयी सफर की अनुभूतियों की रागात्मक ऊर्जा को रोपकर, जो वट-वृक्ष खड़ा है, वह है ‘सही के हीरो’।
संग्रह की पहली कहानी ‘‘लाइफ गार्ड’ एक अविस्मरणीय प्रेम कहानी है। जिसका परिवेश, मानव-बिम्ब, मूल्य-दृष्टि, रुप-विधान और भाषिक-संस्कार सभी उत्कृष्ट हैं। प्रकृति का चित्रण हो, नायक का शरीर-सौष्ठव या नायिका का षोडश-सौन्दर्य वर्णन हो, कहानी के संवाद हों या प्रभाव अन्विति-एक से बढ़कर एक। जैसे, कहानी की नायिका मारिया के यौवन और आकर्षण का चित्रण कुछ इस प्रकार है -
‘मारिया जैसी बचपन में मासूम सी गुड़िया थी, अब भी वो चुलबुली, मासूम, गोल चेहरे वाली गोरी-चिट्टी लड़की थी। सोलह साल की सुन्दरता तन-मन दोनों पर छाई थी। समुद्र पार डूबता सूरज रोज अपनी लालिमा उसके गालों पर छोड़ जाता। गोरे रंग से लालिमा का मिलन गालों पर गुलाबी रंग का राज था।’
अव्यक्त जी की भाषा पर गजब की पकड़ है। वे जब परिसंवाद गढ़ते हैं, तो शब्द उनकी ढ्योड़ी पर खड़े प्रतीक्षा करते हैं कि कब अवसर मिले और वे उसमें स्थान पा लें। प्रत्यक्ष संवाद-शैली, तदानुरूप पात्रों के हाव-भाव (बाड़ी लेंग्वेज) और तदानुकूल आसपास के परिदृश्यों के सजीव रुप कहानी में प्राण फूँक देते है। ‘लाईफ गार्ड’ का एक कथांश, जिसे पढ़ते-पढ़ते ‘उसने कहा था’ कहानी के आदि और मध्य- ‘‘तेरी कुड़माई हो गई’’। ‘‘धत् !’’ की याद ताजा हो गई।
मारिया ने पूछा था, ‘‘और किससे प्यार है विक्टर ?’’
वो सिर्फ मुस्कराया था नीचे सिर किये।
विक्टर ने पूछा था ‘‘तुम्हारे डैड को कोई गुस्सा नहीं, तुम यहाँ मेरे पास आती हो ?’’
मारिया ने कहा था, ‘‘ नहीं, उनका प्यार बंदिशें लगाने वाला नहीं, भरोसा और केयर करने वाला प्यार है। उन्हें पता है, मैं जो करुंगी, सही करूंगी। मैं तो उन्हें बता भी चुकी हूँ कि ’’ ........वो चुप हो गयी।
विक्टर ने पूछा, ‘‘क्या बता चुकी हो ?’’
मारिया ने कहा, ‘‘कुछ नही।’’
‘‘अरे फिर
............
बोलो क्या बता चुकी हो ?’’
‘‘तुम बताओ क्या बताया होगा?’’ आँखों में आँखें डाल बोली ।
विक्टर सम्मोहित-सा था उन आँखों से। खामोश देखता रहा।
फिर बोला, ‘‘यही न कि तुमको अपुन पसंद है ?’’
वो बस देखती रही एक-टक। खामोश सहमति, मानो शब्दों से खलल न पड़ सके इस परमानंद के पलों में। डूबता सूरज कुछ देर को और रुक गया था आगे क्या होगा देखने। समुद्री लहरें और हवाएँ बतियाने लगी थीं खुसुर-फुसुर। विक्टर ने लम्बे, बलिष्ट हाथ फैलाये थे और मारिया समा गयी थी विशाल सीने में।
सूरज संतुष्ठ-सा डूब चला था। हवाओं और लहरों की खुसुर-फुसुर रुक गयी थी। शांत, ठहरे हुए पल। कुछ आवाजें थीं तो बस दो साथ-साथ धड़कते दिलों की।
अव्यक्त जी की प्रेमपरक कहानियों में प्रेम एक पूजा है, इबादत है, समर्पण है, विश्वास है। उनके युवा पात्र जब प्रेम का प्रकटन करते हैं तो उनमें अनंत आकाश सा विस्तार और अथाह सागर सी गहराई दिखती है। न कोई ओर न कोई छोर। और, उनका प्यार जताने का तरीका दिल को छू जाता है। ‘‘ज्यों-ज्यों बूड़े श्याम-रंग,’’ त्यों-त्यों कहानी में गंभीरता आती जाती है।
एक बार तूलिका ने चने की पुड़िया से दो दाने निकालकर टेबल पर रख दिए और पूछा -
‘‘कितना प्यार करते हो मुझे टेबल पर रखे चने के दो दानों जितना कि पुड़िया में रखे ढ़ेर सारे चनों जितना।’’
आदित्य ने दोनों चने फिर से पुड़िया में डाल दिए थे और कहा था, ........ पुड़िया की ओर उंगली दिखाकर...........
‘‘इतना। वो दो दाने भी क्यों निकाले?’’
(चने के दाने)
हाँ ! ‘‘आधी परी’’ कहानी की जितनी प्रशंसा की जावे, कम है। यह एक मर्मस्पर्शी कहानी है। कहा जावे तो, रचनाकार का जिया-भोगा सच है। और उसके दिल के किसी कोने से उभरी है - यह सत्य कथा। पचास वर्षीय मंदबुद्धि का बोनमेरो ब्लड़-केंसर पीड़ित भाई ललित में मिलकर उसे पूरा बनाता है। यानि, आधी परी पूर्णता प्राप्त कर लेती है। कहानी का ऐसा सुखांत अन्यत्र नहीं। ‘‘सही के हीरो’’,
‘‘हवा का झोंका-समीर’’, ‘‘जिंदगी एक चेसबोर्ड’’ संकलन की चुनिंदा संस्मरणात्मक कहानियाँ है, जो सही की घटनाओं पर आधारित हैं,
जो हमें सफलता के मंत्र देती है, उठकर खड़े होने, संघर्ष करने, हॅसने-खिलखिलाने और स्वस्थ जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं।
कहानीकार अग्रवाल जी का असल पेशा डाक्टरी है, यानि उनका अपना परिवेश है, उनका अपना पर्यावरण है, उनके अपने शिक्षा-संस्कार है उनके अपने मरीज, अस्पताल, डायगोनेशिश ट्रीटमेंट और मेडीसन है, उनकी अपनी भाषा है, उनके अपने मुहावरे हैं, उनकी अपनी डायमेन्शस् हैं - और इन सभी का मिश्रित प्रभाव संग्रह की कहानियों में है। अधिकांश कहानियों का कहीं न कहीं किसी गंभीर बीमारी या उसके सफल इलाज से संबंध दिखाई देता है। जैसे-केंसर (चने के दाने) क्रोनिक माइलायड ल्युकेमिया (आधी परी) सडन कार्डियक अरेस्ट (मेरा चेम्पियन) बेल्स पाल्सी (सही का हीरो) गुलेनवारे सिंड्रोम (मैं ठीक हूँ) सेरिब्रल पाल्सी (आसान है) एच.आई.वी. (हवा का झोंका-समीर) बेड रिडेन (जिंदगी एक चैसबोर्ड), बोन मेरो प्लांटेशन (आधी परी) इत्यादि। चूंकि ये कहानियाँ मूलतः इन्टरनेट रीडर्स/फेसबुक फेनस् के लिए लिखी गयी थी। अतः इनमें कहीं-कहीं भाषा का ठेठ अंदाज और शब्दों के संक्षिप्तीकरण की प्रवृत्ति देखी गयी। अंग्रेजी भाषा एवं कम्प्यूटर की शब्दावलियों का भी बहुल प्रयोग है। बदलते जमाने के साथ हमें ऐसे प्रयोगों को स्वीकार करना होगा, ठीक वैसे जैसे हम अन्य भाषाओं (संस्कृत, अरबी, फारसी, उर्दू) के तत्सम और तद्भव शब्द प्रयोग एवं मान्य कर हिन्दी के आगार की श्रीवृद्धि कर रहे हैं।
कहानियों में प्रयुक्त मुहावरे, कहावतें, उपमायें और प्रतीक जो कथाकार की कल्पनाशीलता से नये स्वरुप धारण कर कथानकों में आये, उल्लेखनीय हैं -
‘लाल रंग का सलवार सूट। लड़के सिर्फ कुछ रंग ही जानते हैं।
शायद, वो मैरून था।’ (पासवर्ड)
'वो तो मेंढक के डिसेक्शन में भी ऐसा मशगूल होता जैसे कोई
सन्यासी गहन ध्यान कर रहा हो।’
(जादूगर)
‘लड़कियों को जब ज्यादा प्यार आता है वो कुछ
बनाकर खिलातीं। ये युगों से चला आया।’ (जादूगर)
‘मारिया का दिल सुनामी-सा उछालें भर रहा था।’ (लाईफ गार्ड)
अव्यक्त जी का प्रकृत्ति यानि ‘मदर नेचर’ के साथ गहरा संबंध रहा है। वे सुरम्य पर्वतीय वादियों में पढ़े-बढ़े है और पार्ट-टाइम टूरिस्ट-गाइड भी रहे हैं। उनकी वर्णनात्मक शैली अत्यन्त सहज, सरल और प्रभावशाली है। वे जब प्रकृत्ति और उसके मनोहर दृश्यों को शब्दों के माध्यम से चित्र-सा उभारते है तो ऐसा लगता है, मानो प्रत्यक्ष किसी स्थल विशेष के चप्पे-चप्पे से परिचय करा रहे हों, एक तरह से ‘लाइव कामेन्ट्री’। उसमें वहाँ का इतिहास, वहाँ से जुडे मिथक और मुहावरे, वहाँ की संस्कृति, भूगोल, वहाँ के लोग उनका खान-पान, रहन-सहन, वाणी-बोली - सब कुछ स्पष्ट हो जाता है। लिहाजा, उनकी कहानियों की पृष्ठभूमि में गोवा (लाईफ गार्ड) पचमढ़ी (चने के दाने/मेरी पचमढ़ी और मैं), ऊँटी (पासवर्ड) भेड़ाघाट/जबलपुर (जिंदगी एक स्टेशन) काशी (वो अधूरी कहानी) विशिष्ट आग्रह के साथ उपस्थित हैं। प्रसिद्ध पर्यटक-स्थल पचमढ़ी की प्राकृतिक धरती पर जब उन्होंने ‘चने के दाने’ जैसी प्रणय-गाथा को गुंथा तो वहाँ की विहंगम, दृश्यावलियाँ सजीव हो उठी। लगा, कहानीकार कहानी छोड़कर छंदबद्ध कविता कहने लगा।
‘पचमढ़ी ज्यादा हसीं हो गई थी।
बादल पहाड़ों पर उतर आये थे चुगली करने।
पचमढ़ी झील में बैठे सफेद बगुले उड़ने लगे थे अफवाह फैलाने।
चिड़ियों ने चीं-चीं गॉसिप शुरु कर दिया था
बागों में फूल मुस्कराने लगे थे यूँ ही।
आँखों ने इक-दूजे का प्रणय प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था।’
सच है, प्रेम की पराकाष्ठा और कुदरत के ऐसे अद्भुत नजारे, कि ‘‘कोई कवि बन जाये, सहज संभाव्य है।’’
जीवन की कड़वी सच्चाई को कुरेदती, इस संकलन की कहानियों में टपकता हुआ आत्म विश्वास है, दर्शन है, सामाजिक-संचेतना है। पारिवारिक दायित्व-बोध है, जिन्दगी की दुश्वारियां है। कथा-प्रसंगों के कुछ नमूने वानगी-बतौर इस प्रकार हैं:-
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उसने कहा ‘‘अपने छोटे भाई के साथ मिलकर अपना कम्प्यूटर सेंटर खोलूंगा।’’
उसने ये नहीं कहा कि सेंटर खोलना चाहता हूं, उसने कहा था ‘‘सेंटर खोलूंगा।’’ (सही के हीरो)
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‘उक्त वक्त हमारे स्कूल का नाम गधानगर स्कूल था। दो किलोमीटर दूर हम बच्चे पैदल जाते और जाते समय दूधवालों से साइकिल पर लिफ्ट ले लेते थे। लौटते समय दूध वाले नहीं मिलते, नंगे पैर जब रोड गर्म लगती, तब पैरों में ‘दोने वाले पत्ते तोड़कर बांध लेते थे’। (मेरा गांव)
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‘वो कार वाले, लाल बत्ती वाले कहीं ज्यादा ताकतवर हैं। वो जब निकलते है तो सब थम जाता है। या अलग-थलग हो जाता है। जैसे कृष्ण के चक्र घुमाने पर महाभारत में सब थम गया था, वैसा।’ (आइसक्रीम कैंडी)
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‘हाँ हमें बच्चों को सुखों के झरोखों से जिंदगी के करतब भी तो दिखाने हैं। बच्चों को दुनिया के बायस्कोप में ताजमहल और लाल किले तो दिखाना है, लेकिन इन्हें बनाने वाली उंगलियों को भी थामना सिखाना है। उन छिले हुए हाथों में दर्द है, बच्चों को ये भी बताना है। दौड़ में उन्हें जरूर जिताना है, लेकिन उमैयां के तमाशे पर ताली भी बजाना है। हाँ हमें बच्चों को इंसान बनाना है’। (उमैया एक तमाशा)
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‘अगले दिन सतपुड़ा रिट्रीट के लॉन में चाय की चुस्कियों के साथ में मैने वाइफ को बताया कि मुझे गाइडिंग के लिए कस्टमर्स इस होटल से भी मिलते थे। एक दिन इसी लॉन की कुर्सी पर अपने कस्टमर के परिवार के साथ बैठा था। तब होटल मैनेजर ने बुलाकर बहुत डांटा था और कहा था ‘‘गाइड होते हुए भी बराबरी से बैठने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?’’
मैं चुपके से रोया था अपमान के बाद। इसलिए यहां का सबसे मंहगा रूम देने को कहा। हँसकर कहा ‘‘बिल गेटस होता तो खरीद ही लेता’’ (मेरी पचमढ़ी और मैं)
चाइल्ड स्पेशलिस्ट अव्यक्त अग्रवाल के लिए रोगी बच्चों की सेवा-सुश्रुषा ही परम धर्म है। वे बच्चे ही उनका ईमान होते है और वे ही भगवान। डॉ. अग्रवाल अपने पास आये मरीज बच्चों से खुलकर मिलते हैं, उनसे बतियाते हैं, उनके साथ समय बिताते हैं, उनका मन-मस्तिष्क पढ़ते हैं। यदा-कदा गंभीर रोग ग्रस्त बच्चों को मॉल या मेकडोनाल्ड ले जाते हैं, उन्हें 3डी/5डी फिल्में दिखाते हैं, पिज्जा-बर्गर खिलाते हैं, उन्हें खुशी के कुछ बेशकीमती पल देते हैं। ‘बेल्स-पाल्सी’ से पीड़ित बारह वर्षीय कटनी के हीरो जैसे बच्चे उनकी - प्रेरणा हेाते हैं, और वे ही कहानी के किरदार बनकर इस संग्रह के ‘‘सही के हीरो’’ हैं।
कहानी संकलन का आवरण आकर्षक है। रचनात्मक प्रज्ञा के मानक शिखर के स्पर्श से अपनी उपलब्धियों को नापने वाली इन कहानियों संस्मरणों के संकलन का मूल्य मात्र रुपये 235/- है जिसे किसी भी ई-पुस्तक विक्रेता यथा, पुरुषोत्तम बुक स्टोर, पावर पब्लिशर्स, इन्फीबीम, स्नेपडील, फ्लिपकार्ट, पे.टी.एम., अमेजोन और ई.वे. से प्राप्त किया जा सकता है। स्थानीय समदड़िया माल में शीघ्र ही इसके विक्रय हेतु विशेष काउन्टर खोला जा रहा है।
हिन्दी में समादृत डाक्टर अग्रवाल की ये संग्रहित कहानियां पीड़ित मानवता के रिसते व्रणों (घावों) पर मलहम लगाकर शीतलता प्रदान करेंगी राहत पहुँचायेंगी, यही शुभेच्छा है। एक बात और, जैसा स्वयं अव्यक्त जी ने लिखा है कि - ‘‘अपने मिशन में जुटा आदमी कभी अकेला नहीं होता।’’ विश्वास मानिये, हम जैसे अनेक प्रशंसक उनके साथ हैं, हर पायदान पर! उनके हर अभियान पर!!
सुरेन्द्र सिंह पॅवार
201, शास्त्री नगर
गढ़ा, जबलपुर-3 (म.प्र.)
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