शनिवार, 17 मार्च 2018

नर्मदा यात्रा की शुरुआत

नर्मदा नदियो में सर्वश्रेष्ठ है. एक ओर वह अलहड किशोरी की तरह प्रचंड वेग और सौन्दर्य का संधान करती है, वही दूसरी ओर समर्पित सन्यासिन की तरह शांत और मग्न है. मध्यप्रदेश की तो वे जीवन रेखा ही है और हम सरीखे लोगों की आजीविका. नर्मदा से जुडा सर्वाधिक प्रेरक प्रसंग है कि विश्व की एकमात्र ऐसी नदी है जिस की प्रदक्षिणा की जाती है. नर्मदा भक्त सम्पूर्ण श्रद्धा भाव से, मन वचन कर्म से उसकी परिक्रमा करते हैं – “हम भी चार खंडों में अखंड नर्मदा की परिक्रमा करें, वह भी सड़क मार्ग से, वह भी निजी वाहन से  जब यह विचार अपने परिजन के समक्ष रखा तो दस सदस्य हमारे साथ चलने को तैयार हो गए.

श्वेत सैलानी पक्षियों का झुंड  
10 फरवरी 2018, शुरुआत ग्वारीघाट से अलसुबह नर्मदा नहा - धोकर तरोताजा दिखाई दे रही थी. बिल्कुल षोडश बाला की तरह. ग्यारह लोगों के एक साथ घाट पर उतरते ही जन-जीवन में चेतनता का संचार हो गया. नाविकों की मानो ख़ुमारी उतर गयी और वे सक्रिय हो गये. पंडे-पुजारी अपनी दुकान सजाने लगे. एक सजी-धजी नाव के नाविक के कहने पर हमने पूजा सामग्री के अलावा नमकीन सेव के दो पैकेट खरीदे और नौका पर सवार होकर मेकलसुता माँ नर्मदा के मातृत्व भाव के विराट प्रवाह के मध्य अपनी दीपाअंजली अर्पित कर अपनी यात्रा की सफलता के लिए प्रार्थना की. इस दौरान श्वेत सैलानी पक्षियो के झुंड ने नमकीन सेव के बदले जो करतब दिखाये उन्हे देखकर जी बाग- बाग हो गया. उससे मिली सकारात्मक ऊर्जा से उल्लासित हमारा दल नर्मदा मैया के जयकारा लगाने लगा. शुरुआत इतनी अच्छी रही तो दिन निःसंदेह अच्छा गुजरेगा.

घाट पर वापिस आते ही एक पंडित जी से सामना हो गया. दान-दक्षिणा के बाद कुछ चर्चा हुई, सार्थक, प्रभावी तर्क युक्त! जैसे कि-
·         खारी घाट टंकण त्रुटि में ग्वारीघाट हो गया और अब गौरी का पर्याय उमा घाट.
·         यहाँ की संध्या आरती बनारस की गंगा आरती की टक्कर की होती है.
·         कभी यहाँ से दूसरे तरफ गुरु द्वारे तक पुल बनना था, भू-माफिया ने तो 'टांजिट जबलपुर' का सपना दिखाया था. लेकिन भटौली के पास NH12-A का बड़ा पुल बन जाने से ग्वारीघाट पर पुल निर्माण की योजना ठंडे बसते में चली गई.
नर्मदा अर्चना - ग्वारीघाट 

हमने जब जबलपुर नागपुर बड़ी लाइन का मुख्य स्टेशन ग्वारीघाट बनने की बात की तो उन्हें कुछ संतुष्टि हुई,  बोले- चलो आवाजाही बनी रहेगी.
हमने उन्हें चन्द्रसेन विराट कृत "नर्मदा स्तवन" की एक प्रति भेंट की, जिसके 55 शैर खंडवा-खरगौन के नारमदेय ब्राम्हण "नर्मदा स्त्रोत" की तरह पूजा-पाठ में प्रयोग करते हैं.

ग्वारीघाट से तिलहरी होते हमारी टीम बरेला पहुंची. बरगी की बड़ी नहर निकलने से यह क्षेत्र नर्मदा मय हो गया है. इसके घाटों पर मेले जैसा परिदृश्य दिखाई देता है. कभी बरेला के चिरौंजी के लड्डू प्रख्यात रहे परन्तु अब तो चिरौंजी के ही लाले पड़े रहते हैं. यहाँ के गुरु रामदास खालसा कॉलेज से ॠषि ने इंजीनियरिंग पढी है. यह परमहंस दादा ठनठनपाल की आध्यात्मिक नगरी है. जमुनिया में दादा की दिव्य समाधि पर पहुंच कर भाव अंजली अर्पित करते हुए हम सभी ने निवास रोड पकड़ लिया.

हमारे मित्र रामसेवक पटेल, (गढ़ाफाटक, जबलपुर  का प्रतिष्ठित 'शंकर घी भंडार'  इनके परिजनों का है) दादा ठनठनपाल के अनन्य भक्त हैं. उन्होंने दादा के समग्र जीवन पर दो पुस्तकें प्रकाशित की हैं. उनमें वर्णित दादा की दिव्य अनुभूति यों और चमत्कारों की चर्चा करते-करते हम घुघवा राष्ट्रीय उद्यान तक पहुँच गये. यह पार्क पुरावनस्पति, फसिल्स (जीवाश्म) और प्राचीनतम पाषाण के लिए विश्व धरोहर है.

यहाँ संग्रहालय में एक डिसप्ले बोर्ड पर लिखा है जीवाश्म (फसिल्स) का अर्थ होता है, पत्थर में बदल गये जीव". यह शब्द मृत जीव-जंतु और पेड़-पौधों के उन अंशों के लिए प्रयोग होता है, जो खनिज कणों के भर जाने या अन्य विधि से सड़न से बच गये और आज भी, संरक्षित अवस्था में हैं. यहाँ पौधों और जंतुओं के जीवाश्मों के अलावा उनके छोड़े गये चिन्हों यथा-उनके पैरों के निशान, घोंसलों, मल और पत्तियों की छाप के जीवाश्म मिलते हैं. डायनासौर के अंडे का दुर्लभ जीवाश्म यहाँ संग्रह में है. इससे इतर, बड़ी संख्या में शंख और सीपियों तथा ऐसी वनस्पति जो खारे पानी में होती है, के जीवाश्म मिलना दर्शाता है कि करोड़ों वर्ष पूर्व अरब सागर का फैलाव यहाँ तक रहा होगा. नर्मदा के उद्गम का विस्तार एक विशाल झील से होने की धारणा की पुष्टि 'नर्मदा पुराण' से भी होती है. सम्भव है प्रारम्भ में इस झील का पानी भी खारा रहा होगा.

जो भी हो, आयु का निर्धारण करने वाली रेडियोमिति के जानकार बतलाते हैं कि घुघवा के जीवाश्म 6.5 करोड़ वर्ष पुराने हैं. इतने पुराने, जितनी पुरानी मानव सभ्यता भी नहीं है. यहाँ तक कि हिमालय भी तब, अस्तित्व में नहीं आया था.

घुघवा जीवाश्म उद्यान को देखकर एक रोचक तथ्य सामने आया कि करोड़ों वर्ष पूर्व समाप्त हो चुके पेड़-पौधों से मिलते-जुलते पौधे आज भी विद्यमान हैं. अचानक याद आया कि हम तो निकले हैं माँ नर्मदा की प्रदक्षिणा का संकल्प लेकर, अत: जोर से जयकारा लगाकर ट्रेवलर-बस को हरी झंडी दिखा दी.

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