शनिवार, 14 अप्रैल 2018

नर्मदा उद्गम स्थल


वह गोधूली की बेला रही. दिन भर की भाग-दौड़ के बाद क्लांत सूर्य को घर लौटने की जल्दी तो थी; परन्तु क्षितिज पर आच्छादित नन्हीं बदलियों को देख वह, उनके साथ लुका-छिपी खेलने लगा. ठीक वैसे, जैसे शाम को घर लौटता पिता, बाहर खेलते अपने बच्चों के साथ कुछ पल बिताकर अपनी दिन भर की थकान भूलने का प्रयास करता है और अपनी अगली जिम्मेदारियों के लिए तरोताजा हो जाता है. आसमान के विशाल कैनवास पर उभरी उन विविधवर्णी चित्रावलियों की पृष्ठभूमि में उदगम-स्थल की झांकी देखते ही बनती थी.

तत्कालीन रीवा रियासत के मुस्लिम-राजमिस्त्रियों द्वारा मंदिर का सुसज्जित बेलबूटेदार प्रवेशव्दार और उसके ऊपर स्थापित गणेश-प्रतिमा, भारत की गंगा-जमुनीसंस्कृति का बोध करा रही थी. मंदिर का धार्मिक तथा आध्यात्मिक वातावरण एवम वहां की सकारात्मक ऊर्जा से हमारा दल रिचार्ज हो गया. हम सभी ने माँ नर्मदा के प्राचीनतम स्वरुप के दर्शन किये, प्रसाद लिया, परिजनों की सलामती के लिए सामूहिक प्रार्थना की और वहीं पायदानों पर बैठकर कुछ वक्त बिताया. जब किसी ने यह बताया कि हम अरब सागर की सतह से 1060 मीटर की ऊँचाई पर बैठे हैं, तो सहजता से विश्वास नहीं हो रहा था, परन्तु यही सच्चाई रही.

नर्मदा उद्गम स्थल


सामने चबूतरे पर ऐरावत हाथी की पाषाण-प्रतिमा खड़ी हुई थी. वहां एक महिला जिसका पहिनावा तो गोंडी था परन्तु साफ़ बुन्देलखंडी बोल रही थी, वह लोगों को उस हाथी के नीचे से निकाल रही थी. उसका कहना रहा कि - ‘जोन के मन में गांस-गुडी नहीं रहत है, वोई ऐके नैचे से निकर पात हे’. हाथी के नीचे से निकलना एक कुशल नट के करतब की नाईं था, अपने हाथ-पैर और शरीर को मोड़-सिकोड़कर हाथी की आकृति से सामंजस्य स्थापित करते हुए निकलना पड़ता था. सौरभ (पुत्र) और अलीशा (पुत्रवधू) उसके नीचे से आसानी से निकल गये. तभी एक सज्जन उस हाथी के नीचे से निकलने का प्रयास करने लगे तो उस महिला ने उन्हें मना कर दिया; यहाँ मनाही का आधार उस व्यक्ति की बड़ी तोंद रही, लगभग 46 इंच की कमर रही,   कि पाप-पुण्य का लेखा-जोखा. वैज्ञानिकता की कसौटी पर वह पाषाण हाथी एक शारीरिक-मापदंड है और सन्देश देता है कि मेहनतकश और यायावरी लोग, शारीरिक रूप से लचीले और चुस्त-दुरुस्त (फिट) होते हैं.

नर्मदा मैया


संध्या-वंदन के पूर्व मंदिर-समूह विद्युत के कृत्रिम प्रकाश से जगमगा उठा. मंदिर के गर्भगृह, उनकी प्रस्तर दीवालें, गगनचुम्बी शिखर, दीपस्तंभ, नर्मदा-कुण्ड सभी एक से बढ़कर एक, दमकते, अनोखी बहुरंगी छटा बिखेरते. तभी, शंख-घड़ियालों के साथ नर्मदा जी आरती होने लगी. वह हमारे लिए एक विरल संयोग रहा. बाबा तुलसी के शब्दों में,“जन्म हमार सुफल भा आजूमानो, आज की यात्रा का सुफल आज ही मिल गया .
नर्मदा-कुंड के पास एक समाधि दिखी. लोगों ने बताया कि वह रेवा नायक की है. मंडला जिले के इस बंजारे को नर्मदा ने दर्शन दिये थे, और उसने लाल पत्थरों का यह नर्मदा कुंड बनवाया था. वैसे, आदि-ग्रंथों का शोधन कर, आदिगुरु शंकराचार्य ने यह उद्गम-स्थली सुनिश्चित की थी. जिसे महाभारत के वनपर्व में वंश-गुल्मों से आच्छादित माना गया है. यह अलग बात है, कि आज की स्थिति में नर्मदांचल में बांस-भीरे कहीं नहीं हैं.
रात्रि,  बढती सर्दी और साथ में तीन छोटे बच्चों का ध्यान आते ही हम अपने नियत ठिकाने, ‘श्री नर्मदे-हर सेवा न्यास’,  बाराती एरिया की खोज में चल पड़े. रास्ते में वाहन-चालक ने एक लोक-गीत (लमटेरा) की कैसेट चला दी -
नर्मदा मैया ऐसी तो मिली रे,
ऐसी मिली रे, जैसे मिल गये मताई उन बाप रे. नर्मदा मैया हो

स्वाभाविक सा प्रश्न उठा कि नर्मदा को माता’, ‘मैयाया मतारीजैसे सम्बोधन क्यों?” वैसे, मेकलसुता नर्मदा, मातृत्व भाव का एक ऐसा विराट प्रवाह है, जो अनंत काल से अपनी भूमि और उस पर जन्म लेने वाली हम-जैसी असंख्य संतानों को सभ्यता, संस्कारों, भक्ति, कला, प्रेम, स्वतंत्रता और समृध्दी के जीवन मूल्यों से पोषित करती रही है. यदि, ‘पुरुषसूक्त’ (मेघराज ठाकुर कृत हिंदी अनुवाद) में जननी, जन्मभूमि के साथ नर्मदा को रखकर पढ़ें तो नर्मदा के किनारे अलग-अलग बोलियाँ बोलने वाले (जनं विभ्रती विवाचस) और तरह-तरह के आचार-धर्म पालन करने वाले (भाभो धर्मानं यथोकसम्) लोग रहते हैं किन्तु नर्मदा सबको समान रूप से अपना वात्सल्य लुटाकर, अमृत तुल्य जल पिलाकर और खाद्यान्न उपजाकर समान पोषण करती है. तब, ‘डग डग रोटी और पग पग नीरबांटती जीवन दायिनीनर्मदा की अलौलिक अनुभूतियों से भरा हमारा मन कह उठता है, “नर्मदा हमारी माता है और हम इसके पुत्र है.यही मतारीभाव, सदियों से लोक और नर्मदा के अन्तः-संबंधों का सेतु भी है.

न्यास में मिले अस्थायी-ठौर और आज की सार्थक-यात्रा के लिए हमने माँ नर्मदा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की.

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