[समीक्षित कृति-साँसों के सन्तूर (दोहा-संग्रह), दोहाकार-आचार्य भगवत दुबे,
प्रकाशक-पाथेय प्रकाशन, जबलपुर]
वैसे, दोहा जैसे छोटे-छन्द में काव्य-सृजन का
साहस समर्थ कवि भी संकोच से करते हैं। एक तो दोहा के लघु-आकार के कारण “अरथ
अधिक अरु आखर थोरे” की अनिवार्यता रहती है, ठीक जिस तरह एक कुशल नट, कुण्डली (छोटे से घेरे) से अपने आप को
समेटकर निकल जाता है। दूसरे, दोहा को “लोक” की कसौटी पर खरा उतरना पड़ता है।
एक सामान्य व्यक्ति भी दोहा पढ़/सुनकर यह कह बैठे—“वाह! कवि ने हमारे मन की बात
कह दी।” इस दृष्टि से आचार्य भगवत दुबे एक सफलतम दोहाकार हैं। “साँसों के
सन्तूर” उनका छटवां दोहा-संग्रह है। इसके 1038 दोहों को मिलाकर दोहाकार के 12
हजार से ऊपर दोहे प्रकाशित हो चुके हैं, जिनपर विविध शोध-कार्य प्रचलन में हैं।
रागसिध्द दोहाकार दुबेजी ने संयोग के धरातल पर
अधिकांश दोहों को संस्कारित किया है। अर्थ, उक्ति-सौन्दर्य और गेयता जैसे गुणों से
आप्लावित ये श्रंगारी-दोहे सहृदयों को सहज ही आकर्षण-पाश में बांध लेते हैं।
प्रस्तुत दोहे में नायिका का “शरीर-सौन्दर्य” मध्यकालीन “रीति-परम्परा” का
स्मरण कराता है–
पंचमुखी रुद्राक्ष से,
सुन्दर सारे अंग।
प्रिये तुम्हारे रूप का, अर्चन
करें अनंग।।
यही अनुरागी कवि जब रागबोध से युगबोध की ओर
मुड़ता है तो बदलते मानव-मूल्य, रुग्ण होतीं हुईं सदभावनाएँ, पश्चिम का अन्धानुकरण,
जाति-धर्म और वर्ण पर समाज का विभाजन, साधु-संतों-इमामों का दुहरा चरित्र,
प्रदूषित-पर्यावरण इत्यादि से वह व्यथित हो जाता है एवम् ऐसे में उसकी अभिव्यन्जित
काव्योक्तियां पाठकों/श्रोताओं को झकझोरतीं हैं, चिन्तन के लिए विवश करतीं हैं—
बहुत गर्म है आजकल, दुल्हों
का व्यापार।
लाखों में बिकने लगे, दैनिक
चौकीदार।।
अपनी दीर्घ दोहा-यात्रा के उत्तरार्ध में यह
वरिष्ठ सृजन-साधक, आस्तिकता-आध्यात्मिकता से प्रभावित लगता है। देखा जावे तो, संग्रह
की शुरुआत ही ‘ईश्वर पर विश्वास’ से हुई है—
साईं दीपक राग है, पातक तम
हो दूर।
इनकी इच्छा से बजे, साँसों
के सन्तूर।।
उक्त शीर्षक-दोहे में-कवि ने आर्य-संस्कृति में
वर्णित आश्रम-व्यवस्था के शतायु जीवन (साँसों) की गणना पर आधारित शततंत्री सन्तूर
की कल्पना की है, सामान्यतः सूफियाना-संगीत में प्रमुखता से प्रयुक्त इस प्राचीनतम
वाद्य में 72 से 90 तार होते हैं। बाबजूद इन सबके, दोहाकार ने “दिशा देने का
हितैषी अनिवार्य पक्ष भी ओझल नहीं रहने दिया”-
वाणी पर संयम रखो, बोलो
सोच-विचार।
वाणी से हों आपके, दुश्मन-दोस्त
हजार।।
अगर जिन्दगी के दिवस,
तुम्हें मिले हों चार।
तो क्यों कर लेते नहीं,
सबसे जी भर प्यार।।
इक नन्हें से दीप ने, फैला
दिया प्रकाश।
अंधियारे के हो गये, डर कर
जर्जर पाश।।
इस एकहजारी दोहा-माला में ठलुए, दडवे, वज्जाद
जैसे सामान्य बोल-चाल के शब्द, बेईमानी पुज रही, खेतों में उगने लगे अब लोहे के
वृक्ष, पुण्यों की बछिया जैसे नये मुहावरे, शरद की रात में सितारों का चन्द्रमा की
बारात लेकर निकलना, जुगनुओं की पूँछ पर् मशालों से घने तिमिर का भाल ठनकना जैसे
सुन्दर उपमानों और अन्ना हजारे का आधुनिक-आदर्श (रौल-माडल) में प्रतीकात्मक
प्रयोग यह सिध्द करता है कि आचार्य जी अब उस मुकाम पर पहुँच चुके हैं जहाँ उन्हें
पद-प्रतिष्ठा-पैसा-मान-सम्मान कोई महत्त्व नहीं रखता। वे एक सच्चे कर्मयोगी की
भांति साहित्य-साधना रत हैं। वे अपने कमाये अनुभवों और अनुभूतियों को दोनों हाथों
से उलीच रहे हैं। उनकी सोच, उनके सामाजिक सरोकार, उनका सत्य के पक्ष में डटकर खड़े
रहना और अपनी बात को निर्भीकतापूर्वक कहना-उन्हें कबीर की पांत में बिठा देता है।
और, जैसा कि आचार्य ने आत्मनिवेदित किया है—
रोज कलम घिसते रहे, गोदे
पृष्ठ हजार।
दोहा लिख पाया मगर, मुश्किल
से दो-चार।।
हम तो यही कहेंगे—“आचार्य जी! धैर्य धारण करें!!
यथाशीघ्र, ये ही दो-चार दोहे आम-कहन का हिस्सा बनेंगे, लोगों की जुबान पर थिरकेंगे
और तब- आपका श्रम एवम् सृजन सार्थक होगा”।
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