सोमवार, 23 मार्च 2015

नवगीत: झोपड़-झुग्गी से बँगलेवाले हारे

झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे।
झाड़ू लेकर
राजनीति की
बात करें।
संप्रदाय की
द्वेष-नीति की
मात करें।
आश्वासन की
मृग-मरीचिका
ख़त्म करो।
उन्हें हराओ
जो निर्बल से
घात करें।
मैदानों में
शपथ लोक-
सेवा की लो।
मतदाता क्या चाहे
पूछो जा द्वारे
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे।

मन्दिर-मस्जिद
से पहले
शौचालय हो।
गाँव-मुहल्ले
में उत्तम
विद्यालय हो।
पंडित-मुल्ला
संत, पादरी मेहनत कर-
स्वेद बहायें,
पूज्य खेत
देवालय हों।
हरियाली संवर्धन हित
आगे आ रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे।

जाती जन्म से
नहीं, कर्म से
बनती है।
उत्पादक अन-
उत्पादक में
ठनती है।
यह उपजाता
वह खाता
बिन उपजाये-
भू उसकी
जिसके श्रम-
सीकर सनती है।
अन-उत्पादक खर्च घटे
वह विधि ला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे।

श्रम की
सबसे अधिक
प्रतिष्ठा करना है।
शोषक पूँजी को
श्रम का हित
वरना है।
चौपालों पर
संसद-ग्राम
सभाएँ हों-
अफसरशाही
को उन्मूलित
करना है।
बहुत हुआ द्लतंत्र
न इसकी जय गा रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे।

बिना बात की
बहसें रोको,
बात करो।
केवल अपनी
कहकर तुम मत
घात करो।
जिम्मेवारी
प्रेस-प्रशासन
की भारी-
सिर्फ सनसनी
फैला मत
आघात करो।
विज्ञापन की पोल खोल
सच बतला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे।
-संजीव सलिल

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