शुक्रवार, 27 मार्च 2015

ज़रूरत है।

जाग जाएँ, तम-विनाशन की ज़रूरत है।
क्षात्रता के दीप-नूतन की ज़रूरत है।
याद कर लें शान अपनी मान-मर्यादा,
अस्त्र उस पावन पुरातन की ज़रूरत है।
रुढियों के फंद के उलझाव से सुलझें,
क्रांति के शुभ-पथ सनातन की ज़रूरत है।
एकटक चेहरा हमारा क्यों न सब ताकें!
फिर हमें सर्वोच्च आसन की ज़रूरत है।
उन पुरानी खूबियों को याद फिर कर लें,
आज फिर इतिहास वाचन की ज़रूरत है।
फिर पड़ेगा क्षात्र को ही सामने आना,
पुनः नव-आदर्श सर्जन की ज़रूरत है।
युद्ध सामाजिक पड़ेगा आज फिर लड़ना,
अविलम्ब दोषों के विसर्जन की ज़रूरत है।
मेल से फिर खेल बनने में कहाँ देरी!
आपसी कटुता न अनबन की ज़रूरत है।
संगठन से जीत, कारण हार का विघटन,
शीघ्र कारण के निवारण की ज़रूरत है।
           -डॉ. शेषपाल सिंह ‘शेष’

0 comments :

एक टिप्पणी भेजें

Your Comments