बनारस होते
हुए काठमांडू की यात्रा की। पशुपति-नाथ, स्वयंभू-नाथ और गोरखनाथ के दर्शन कर वहां की ‘एस्क्लेतेड
लाइफ स्टाइल’ (एक पायदान पर खड़े होकर मंजिल तक पहुंचना) का अध्ययन किया। पांच सितारा होटल, सजे-धजे
केशिनो, टेक्सी में चलती दुनिया की बेहतरीन कारें, इलेक्ट्रिक बस
रूट, खुबसूरत बाज़ार, रायल पैलेस, साँस्कृतिक विरासत भक्तपुर स्मृति-पटल पर आज भी चलचित्र की
भांति दिखाई देते हैं।
हमारी यात्रा
का अगला पड़ाव पोखरा था। पोखरा, काठमांडू से 200 किलोमीटर दूर पर्वतराज हिमालय की गोद में
समुद्र-सतह से 900 मीटर ऊपर स्थित सुरम्य पयर्टन-स्थल है। यह रास्ता हमलोगों {मैं, मीना (पत्नी), सौरभ, ऋषि, अबीर (पुत्र), वीरेन्द्र (भतीजा)}
ने बस द्वारा तय किया। रास्ता पहाड़ी एवम दुर्गम था। संकेत-सूचक विहीन घुमावदार
रास्तों पर बस चलाने में चालक अभ्यत था। पहाड़ों पर झुलेदार पध्दति से खेती, मृदा-संरक्षण
के लिए बनाये गये स्टेप्स और रहवासी मकान (सामान्यतः कच्चे दुछत्ती, ऊपर का हिस्सा
लकड़ी से तथा छत घास, टिन या कवेलू युक्त-समुचित ढाल के साथ) मनुष्य का प्रकृति
के साथ तादात्म्य स्थापित कर रहा था। बस की खिड़की के करीब बैठकर सुदूर बर्फ से
आच्छादित हिमगिरी की चोटियों का सुन्दर दृश्य कवि की कल्पना सा प्रतीत हो रहा था। बर्फीली
हवाओं के थपेड़े चेहरे से टकराकर झुरझुरी सी पैदा कर रहे थे। मन अत्यन्त उमंग से भर
उठा था। निश्चय ही, यह यात्रा
जीवन की बिरली यात्राओं में से एक थी।
पोखरा में हम होटल
डायमण्ड में रुके। होटल की छत से 4.5 वर्ग किलोमीटर में फैली प्रसिध्द फेवा झील
तथा हिमालय का ऊँचा कंगुरा फिश-टेल का सुन्दर नज़ारा दिखाई देता था। हमने प्रकृति के सुन्दरतम स्वरूप को नमन किया। शाम
को झील में नौका-विहार किया, झील के मध्य से अन्नपूर्णा के ललामी हिम-शिखर स्पष्ट दृष्टिगोचर
हो रहे थे। क्षितिज की मध्दिम रोशनी में फेवा झील, उसमें पड़ती
पहाड़ों की प्रतिच्छाया, झील को घेरे वन और टापू पर बने बहराई देवी मंदिर का दृश्य
रमणीय लगे। बीच-बीच में कुछ जल-जन्तु ऊपर सतह पर आकर झांकते नज़र आते, ठीक वैसे, घर में आये अपरिचितों को देख छोटे बच्चे दरवाजे या परदे की
ओट में छिपकर देखते हैं, और पहचान बनाने तथा घर में अपना अस्तित्व जतलाने का प्रयास
करते हैं। इसी बीच एक ऐसी घटना घटी, जिसने हम सभी को विचलित कर दिया। हुआ यह, सौरभ ने झील
में बहती एक जलकुम्भी पकड़ी- उसमें मछुआरों द्वारा डाला गया जाल बंधा था- जिससे नाव
उलझ गयी। नाविक के चेहरे पर उभरी चिंता की
लकीरें परिस्थिति की गंभीरता को स्पष्ट कर रहीं थीं। अनुभवी नौचालक ने हमें
सुरक्षित किनारे तक पहुंचा दिया। थैंक्स गॉड! बाल-बाल बचे।
झील पर टहलते
समय एक बंगभाषी परिवार मिला। कोलकाता से आकर उन्होंने अपनी पोखरा से प्रारम्भ की
थी। बातचीत से निजता बढ़ी। परदेश में अपनों की आत्मीयता और मृदुल व्यवहार से हम
अभिभूत हुए। “पोखरा भ्रमण कैसे करें?” ‘काठमांडू का कार्यक्रम कैसे बनायें?’
इत्यादि आदान-प्रदान हुआ।
रात्रि–भोज के
बाद सुपर-मार्केट की सड़कों पर चहलकदमी की और अगली सुबह के लिए टेक्सी तय की। मोलभाव
के बाद होटल द्वारा नियत दर से आधे में टेक्सी मिल गई। टेक्सी चालक ने बताया कि
होटल के माध्यम से बुलाने पर उसे तो उतना ही मिलता। “सुबह 5:30 बजे होटल पर
टेक्सी पहुँच जाएगी”- टेक्सी ड्राइवर ने आश्वत किया। दिन भर की थकान, खट्टे-मीठे
अनुभव एवम मनोरंजन की चर्चा करते हुए योजना बनी कि सुबह ज्यादा ठण्ड होने से ऋषि
और अबीर को सोने दिया जायेगा। सन राइज के बाद शेष भ्रमण में वे साथ रहेंगे।
अगली सुबह, 4:30 बजे—तापमान 4 ड्रिग्री के आसपास। एक झटके के साथ ऋषि
और अबीर उठकर बैठ गये। लगा, वे रात भर सोये नहीं! वे हमसे पहले तैयार हो गये। ठीक 5:30
बजे। होटल कंपाउंड में किसी गाड़ी के रुकने की आवाज आई। छत से झांक कर देखा तो- “गुड
मार्निग! गाड़ी आ गया, साब”। सुनाई दिया। अपने
आप को सहेजते हुए हम लोग टेक्सी में बैठ गये।
लगभग रात ही
थी। जब टेक्सी सुनसान रास्ते से गुजरती तो कुत्ते भौंकने लगते। परन्तु एक उमंग, एक कौतुहल। 2000
फीट की सीधी चढ़ाई के बाद हम लोग 6:25 बजे उस स्थान पर पहुंचे, जहाँ से
सूर्योदय देखना था। टेक्सी से उतरते ही एक ग्यारह-बारह वर्ष का नेपाली लड़का आया और
बोला—“गाइड चाहिए”? “क्या बतलायेगा”? पूछने पर उत्तर मिला-‘हिमालय की चोटियाँ
दिखाऊंगा, वन हंड्रेड आई सी लगेगा’—मेरे “टेन रुपीज एन सी” बोलने पर
वह पीछे पड़ गया। पचास, चालीस करते-करते वह बीस रुपया आई सी तक आ गया। हम लोग ‘पोखरा
वियु प्वाइंट’ के नजदीक थे। अपनी दाल न गलते देख उसने ऊपर से आ रहे एक हमउम्र
को ‘बीस रुपया आई सी’ कहते हुए वापिसी ली। ऐसा लगा जैसे कोई ठगराज हमारा पीछा कर
रहा था, उसकी सीमा समाप्त होने पर उसने अपना शिकार आगे वाले को सौंप
दिया। हम लोग हंसे बिना न रह सके।
बीती रात
आसमान साफ था, अतः हिमगिरी का रजत-सौन्दर्य सहज दिखाई दे रहा था। कडकडाती
सर्दी के बाद भी बहुत से सैलानी- सभी अपने कैमरे, वीडियो, दूरबीन तैयार
कर भुवन-भास्कर की अगवानी में खड़े थे। एकाएक याद आई अन्जिलो सिकेलियानो की
कविता-
सूर्योदय रुका हुआ है।
सूरज को मुक्त करो
ताकि संसार में प्रकाश हो
देखो उसके रथ का चक्र कीचड़ में फंस गया है
आगे बढ़ो साथियों
सूरज के लिए यह सम्भव नहीं,
कि वह अकेला उदित हो।
6 बजकर 40
मिनिट पर मुर्गे की बांग सुनाई दी और पूर्व दिशा से पौ फटने लगी। अचरज हुआ!
सूर्योदय का इतना सटीक समय, इस प्राणी ने किस घडी से मिलाया? प्राची में सूर्य की एक
हलकी सी झलक के साथ सैकड़ों फ्लेश चमकने लगीं। स्वस्थ, तरोताजा, आबनूस सा
दमकता सूर्य ऊपर आ रहा था।
प्रकृति–प्रेमियों
ने इसे अपना एहलौकिक सुख माना जबकि धर्म–प्रियजन इस ईश्वरत्व को स्वीकार
प्रातः-वंदना करने लगे। उदयाचल में सूर्य का स्वरूप सामने आते –आते अरुणिमा और
ऊष्मा का संचार होने लगा, साथ ही सुदूर उत्तर में अवस्थित धौलगिरी, फिशटेल और
अन्नपूर्णा के शिखरों पर लदी बर्फ का रंग सुनहरा होने लगा। हिमराशी के दुग्ध –धवल
सौन्दर्य में सुनहली आभा का दृश्यावलोकन ही इस वियु प्वाइंट का आकर्षण है। हम सभी प्रकृति
का इतना सहज एवम लुभावना परिवर्तन देखकर मन्त्र–मुग्ध से खड़े रहते, यदि सह–सैलानी
की तेज आवाज ध्यान–भग्न न करती; वे किसी पर नाराज हो रहे थे– “तुम्हें तो ठीक से
पर्वत-शिखरों के नाम नहीं मालूम, फिर बीस रुपया किस बात का दूँ”। मैंने देखा यह वही बालक है, जिसने हम
लोगों को अपने हमजोली के हाथ ‘बीस रुपया आई सी’ कहते हुए सौंपा था। बालक होशियार
था, सफल गाइड के गुण पालने में ही दिख रहे थे।
हम दीप्तिमान दृश्यावलियों को हृदयंगम कर वापिस लौटे। चाय–नाश्ता
के बाद पोखरा के अन्य दर्शनीय स्थल-विंध्यवासिनी देवी का मंदिर, महेंद्र गुफा, सेती गार्ज, देवी फाल तथा
नेचुरल म्यूजियम देखे। रात्रि में नेपाली सांस्कृतिक कार्यक्रमों में वहाँ के
परम्परागत नृत्य, गीत संगीत का आनंद उठाया। बच्चे अत्याधिक खुश थे। हमें भी
संतोष था कि यदि सुबह ऋषि और अबीर को साथ न लिया होता तो वे एक ऐसा मौका गँवा देते
जिसे शायद हम सभी कभी न भूल सकेंगे।
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